हरदर्शन सहगल
मेरी नज़र में किसी लेखक का ''वे ऑफ राइटिंग'' या ''स्टाइल ऑफ राइटिंग'' ही उसको, उसका, अभीष्ट प्रदान कराता है। क्योंकि यह एक स्वत: सिध्द स्वाभाविक वृति है कि कोई लेखक किस ''तौर-तरीके'' से लिखता है, तो भी इस ''स्टाइल'' का महत्व अपनी जगह कायम है। इसी के द्वारा कोई लेखक अपनी प्रबुध्द लेखक बिरादरी में छा जाना चाहता है। कोई विद्वानों, आलोचकों, समीक्षकों की नज़र का तारा बन जाना चाहता है : तो किसी विशेष लेखक का ध्यान अपने विशाल साधारण पाठक वर्ग की ओर ही रहता है। मानो वह उन्हीं में से एक, उन्हीं की खातिर लिखता है। वह बड़ी सादगी के साथ, समाज की विषमताओं, कष्टों, उतार-चढ़ावों को अभिव्यक्ति दे, ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपना साथी, भागीदार बना कर उन्हें अपनी यात्रा में साथ चलने को आमंत्रिात करता है।
मुझे लगता है कि अनेकानेक लोगों के प्रिय लेखक यादवेन्द्र शर्मा ''चन्द्र'' का सम्पूर्ण लेखन उसी बड़े असहाय शोषित वर्ग के लिए है। उन्होंने प्रेमचंद ही की भांति जन भाषा में अपनी बात, अपनी कहानियों में कही है; ताकि उन्हें पढ़ने समझने में, ''फालतू वाली कला'' आडे नहीं आए।
मैं एक बात प्राय: सबके सामने दुहराता रहता हूं कि ''चन्द्र'' जी के लेखन की सबसे बड़ी सिफ्त यही है कि एक बार उनकी कहानी पढ़ना शुरू करो तो मेरे जैसे साधारण पाठक उसे पूरा पढ़े बिना नहीं रह सकते। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियों में प्रवाह है और जिज्ञासा जगाने का अद्भुत जादू भी कि वह पाठक को अपने साथ बहाता चला जाता है। अगर पाठक को विवशतावश कहानी बीच में छोड़नी भी पढ़ जाए, तो कहानी ही जैसे, उसे पुकारती रहती है। वह दूसरी तीसरी बैठक में उसे पढ़ कर ही दम लेता है। स्पष्ट है कि सभी कहानियों के साथ ऐसा नहीं हो पाता।
तब प्रश्न उठता है कि चन्द्र जी की कहानी कैसी लगी। इस प्रकार, इस पर विस्तार से चर्चा हो सकती है (कथ्य बुनने में चन्द्र जी का कोई सानी नहीं) लेकिन जो कहानियां अटक-अटक कर खूब ज़ोर लगाकर पूरी की जाती हैं और छूट जाती हैं। उन पर ''दूसरी प्रकार की चर्चा'' ही संभव होगी। उनकी चर्चा कराई ही जा सकती है।
इतने लंबे अंतराल के बाद आज भी प्रेमचंद, यशपाल सरीखे लेखक आम पाठकों के हृदय में क्यों जगह बनाए बैठे हैं। चर्चा इस दिशा में भी होती रहती है।
चन्द्र जी ने अनेक यात्रााएं की। अनेक स्थानों पर पड़ाव डाला। भारत के प्राय: हर वर्ग- साधारण से साधारण पेशे वालों से लेकर फिल्मी, राजनीतिक हस्तियों तक- उनका गहरा संपर्क रहा। इसलिए भी चन्द्र जी के पास सदा व्यापक कथा चरित्रा रहे। स्वाभाविक है कि उनकी कहानियों के पात्रा अपने ही दम ख़म के साथ हमारे सम्मुख आ उपस्थित होते हैं। आकर हमें कहते हैं- देखो मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूं। मेरे लिए बस थोड़ी सी फुर्सत निकालो। मेरे साथ बतियाओ। मैं तुम्हें अपने सुख-दु:ख का भागीदार बनाना चाहता हूं। भाई! तुम मेरी बात सुनना तो शुरू करो। मुझे यकीन है कि मेरी बात को बिना पूरा सुने, तुम बीच में उठोगे नहीं। बाद में बेशक ज़रूर सोचते रहना कि मैंने बात खरी कही थी कि नहीं। हम रेगिस्तान के भूखे प्यासे लोग अकाल के मारे हुए हैं। हम सामंतों, साहूकारों, महाजनों के चुंगल में फंसे हुए हैं। गुण्डों, लठैतों ने हमें कहीं का नहीं रखा। ये लोग हमारी बेटियों, लुगाइयों की इज्ज़त के साथ खिलवाड़ करते हैं। पर हम बेबस हैं। हमारी कोई नहीं सुनता। तुम हमारे साथ आओ। हमें थोड़ा ही सही, न्याय दिलवाओ। और कुछ नहीं तो ढांढस ही बंधााओ। जाकर अपने साथियों और तमाम मिलने वालों से भी कहो- हमारे साथ बहुत ही गलत हुआ है। ऐसा नहीं होना चाहिए था।
चन्द्र जी के पास देश के कोने-कोने से हर तबके के पाठकों के पत्रा आया करते थे। उनकी एक कहानी पर कई युवकों ने चन्द्र जी से पूछा था- क्या वास्तव में ऐसी कोई शोषित परित्यक्ता लड़की है? है तो हम उससे शादी करने को तैयार हैं। ऐसे अनेक प्रसंग चन्द्र जी के साथ जुड़े हुए हैं। उन्होंने लिखा भी तो कितना अधिक है कि वह सारा आम पाठकों और साहित्य जगत के बीच हमेशा के लिए छा गया। उन्हें कभी भी पाठकों, प्रकाशकों, संपादकों की कमी नहीं रही। एक-एक पुस्तक के सात-सात तक संस्करण बिके। उनका दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ। कोई सोच कर बताए कि ऐसा कौन सा विषय अछूता रह गया जिस पर चन्द्र जी ने कहानियां न लिखी हों। उनका कथा-संसार दूर-दूर तक फैला है। दूर-दराज़ के ठेठ अंचलों तक। एक खोजी पत्राकार की भांति अपनी कहानियों में ढाणियों, बहुत ही कम आबादी की बस्तियों में रहने, गुज़र बसर करने वालों की खोज-खबर ली है, जो किसी भी तरह संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व को स्वाभिमान पूर्वक बचा लेने की चिंता में निमग्न हैं। फिर भी अवसर मिलते ही जीवन की मस्ती उनमें लौट आती है। उनमें से कोई लोहार है। कोई टोटकेबाज़ झाड़- फूंक करने वाला। कोई सपेरा जादूगर। कोई टीपने वाला या साधुओं का चोला धारण किए हुए। इन हर श्रेणी के लोगों के, विचित्राता लिये हुए रीति-रिवाजों का लेखा-जोखा इतनी बारीकी से चन्द्र जी ने किया है कि पढ़ने वाला जैसे उनके बीच जा पहुंचता है।
औरत के शोषण, उसके त्याग की भी अनेक कथाएं चन्द्र जी ने हमें दीं, जिन्हें पढ़कर हम में उन प्रताड़ित स्त्रिायों के प्रति हमारी संवेदनाएं, सहानुभूति जागृत हो उठती हैं। लेकिन इतना कर चुकने के बाद भी चन्द्र जी अपने को दायित्व मुक्त नहीं कर पाते। वे नारी में ऐसे संघर्ष और विद्रोह की ज्वाला फूंक देते हैं, जिसके ताप से हम सबको तृप्ति मिलती है।
एक कहानी का नाम शायद तीसरा बिस्तर है, जिसमें सास नवदम्पती के बीच अपनी खाट लगा कर सोती है। उसे वहम है कि बहु के साथ सोने से उसका बेटा कमज़ोर हो जाएगा। आखिरकार तंग आकर बहू, सास की खाट को कहीं दूर पटक आती है। एक आदमी ऐबी है। साहूकार उसे ऋण के चुंगल में फांस लेता है। अपने आदमी को साहूकार से छुटकारा दिलवाने के लिए उसकी औरत साहूकार को अपनी देह सौंपती है। फिर ऐसे ऐबी पुरुष को हमेशा के लिए छोड़कर कहीं और चली जाती है। एक औरत, मरणोन्मुख कैंसर रोगी की तुष्टि के लिए त्याग करती है।
अकाल की मार झेलते हुए मरू प्रदेश पर लिखी भी अनेक कहानियां हैं। इनका कुशल संपादन डॉ. आदर्श सक्सेना ने किया है- ''चन्द्र की यथार्थवादी कहानियां''। एक कहानी में अकाल पीड़ित परिवार को चूहे जैसे घृणित जीव का भोजन करते दिखाया गया है। ऐसी तमाम कहानियों में राजस्थानी शब्दों मुहावरों का भरपूर बोलबाला है।
चन्द्र जी का व्यापक विस्तृत कथा संसार महानगरों, फिल्मी दुनिया और विभाजन की त्राासदी तक भी फैला है। विभाजन पर हाल ही में ''दो आबा'' पत्रिका में छपी कहानी ''मेरा अपना घर'' पूरा जीवन दर्शन है। राजनीति करने वाले स्वार्थी नेताओं के कुटिल चेहरे हैं, जो अपनी सत्ताा कायम रखने के लिए आम लोगों को मरवाते रहते हैं। उन्हें बेवकूफ बनाते रहते हैं।
चन्द्र जी की कहानियों के सारे पात्रा हमारे देखे भाले लगते हैं जो अत्यंत सजीव हो कर हमारी आंखों के सामने और अधिक स्पष्ट रूप लिये आते-जाते रहते हैं। यही है चन्द्र जी के, ''स्टाइल ऑफ राइटिंग'' का कमाल। जादू वह, जो सिर चढ़ कर बोले। हां इस जदू के कुछ शिथिल पक्ष भी हो सकते हैं किन्तु वे सारे के सारे, चन्द्र जी की कहानियों के प्रबल कथ्य, रचना की प्रामाणिकता तथा जीवन के यथार्थ के सम्मुख खास गिनती में नहीं आते। चन्द्र जी का ''वे ऑफ अप्रोच टू रीडर्ज़'' बरकरार रहता है।
चन्द्र जी ने बच्चों के लिए भी ढेरों लिखा- उनमें लोक कथाएं भी हैं। प्रदेश विशेष की कथाएं भी। मौलिक कहानियां भी विशेष महत्व रखती हैं। इनमें भी यादवेन्द्र जी का विद्रोही स्वर मुखर होता रहता है, ताकि बच्चे सही दिशा में सोचने की आदत डालें। ''चिड्डा पुराण'' भूले नहीं भूलती।
5-ई-9 ''संवाद'' डुल्लैक्स कालोनी, बीकानेर- 334 003 (राजस्थान)
प्रतिस्मृति- वे ऑफ एप्रोच टू रीडर्ज, यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' की कहानियों से गुज़रते हुए
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