आलेख :- बाज़ार में भटकता हुआ शब्द


आलोक पाण्डेय
आधुनिक संदर्भों में मानविकी की भूमिका के बारे में जब मैं सोचना शुरू करता हूँ तो सबसे पहले अपने घर में झांकता हूं। मेरा घर यानी हिन्दी साहित्य या कहें तो साहित्य का घर। जब मैं इस घर में झांकता हूं तो पाता हूं कि इसकी दरो-दीवार से उदासी झांकती हैं। कहां से आई ये उदासी? क्यों आई ये उदासी? प्रश्नों की पूंछ पकड़ कर जब मैं अपने कठिन समय की वैतरणी पार करना चाहता हूं तो बहुत सारे और भी सवाल मुझे घेर लेते हैं। बेचैन करते हैं मुझे कि मैं इनके जवाब ढूंढू। मैं इनके जवाब ढूंढ पाऊंगा या नहीं लेकिन एक ईमानदार कोशिश जरूर करूंगा। इस कोशिश में हो सकता है कि मैं 'अकादमिक शुध्दता' के केन्द्र में नहीं, बल्कि हाशिए पर मिलूं।
हम जानते हैं कि सिर्फ हमारा ही स्कूल या संकाय ऐसा है जहां ह्युमैनिटीज शब्द जुड़ा है- स्कूल ऑफ ह्युमैनिटीज। बाकी किसी स्कूल या संकाय को मनुष्यता से इस प्रकार सीधे जुड़ने का गौरव, जहां तक मैं जानता हूं, हासिल नहीं है। यह गौरव हमें देने के पीछे जो चिंता या सपना काम कर रहा था, वह था मनुष्यता या मानवीय मूल्यों की स्थापना और विकास, उनकी सुरक्षा और संरक्षा। वे मूल्य, वे सपने जिनके पल्लवन-पुष्पन के लिए हम आए थे, मुरझाए हुए हैं। साहित्य जिसका मैं विद्यार्थी भी हूं और अध्यापक भी, वह क्या करता है? क्या उसके मूल में ही 'सहित' का भाव शामिल नहीं है? क्या वह हमें अधिक मानवीय और बेहतर इंसान नहीं बनाता? क्या साहित्य सिर्फ हमारा मनोरंजन करता है, मजा देता है किसी चुटकुले की तरह? तो फिर गड़बड़ कहां हुई? आखिर ऐसा कब, कैसे और कहां हो गया कि साहित्य के अध्यापक के रूप में, वे मूल्य हमें नहीं छूते, हमें नहीं बदलते और विद्यार्थियों के ऊपर से भी वैसे ही गुजर जाते हैं, बिना झिझोडे, बिना गीला किए, बेपानी बादलों की तरह। गड़बड़ कहां हुई? अध्यापकों के साथ, विद्यार्थियों के साथ, साहित्य के साथ या फिर जमाने के साथ। जमाना जिसमें साहित्य है, विद्यार्थी हैं और मैं हूं। और जमाना जो बाजारू है।
हम जिस परम्परा में जीते हैं, सांस लेते हैं, उसका बोध हमें तब तक नहीं होता, जब तक उससे थोड़ा कट नहीं जाते। यह कटाव जहां एक तरह की टीस पैदा करता है, वहीं हमें वह तटस्थ दृष्टि भी देता है जहां से हम अपने को पहली बार एक ऐसे बिन्दु से देखने लगते हैं जो हमारा अभिन्न अंग होते हुए भी बाहर तथा अलग है। ब्रिटिश उपनिवेश के दुष्परिणाम हम आज तक भोग रहे हैं। औपनिवेशिक शासन ने हमारे समस्त बौध्दिक तथा सांस्कृतिक आधारों पर आघात किया, वे आधार जिनसे भारतीय समाज तथा व्यक्ति के संस्कारों की रचना हुई थी। अंग्रेज़ी भाषा तथा पश्चिमी शिक्षा पध्दति ने क्रमश: उन समस्त स्रोतों को सुखा दिया जिनसे एक भारतीय अपनी अस्मिता, अपने अस्तित्व को संजोता-संभालता था। वह दो भागों में बंटा हुआ एक आत्म उन्मूलित व्यक्ति बन गया, जिसका एक भाग परम्परा से जुड़ा था और दूसरा भाग पश्चिम की आधुनिक जीवन शैली, चिंतन-पध्दति और संस्कृति से और चूंकि दोनों भागों में किसी तरह का संतुलन नहीं था इसलिए इसका परंपरा पक्ष उतना ही खोखला होता गया जितना उसका आधुनिक पक्ष कृत्रिाम और बनावटी। बाहरी हस्तक्षेप भारतीय मानस को जितना आत्मनिर्वासित करता गया, उतना ही अंदरूनी हस्तक्षेप के ऊर्जा स्रोत सूखने लगे। यह सिलसिला जो शुरू हुआ तो रुका नहीं, जारी है।
आजादी के बाद विकास की जो संकल्पना हमारे सामने आयी वह अत्यन्त संकुचित थी, विकास की परिभाषा सकल राष्ट्रीय उत्पाद तथा आय के मानकों को आधार बनाकर की गई। विकास की इस अवधारणा तथा विचार प्रक्रिया ने मानव की जिस एक आयामी संकल्पना को पुष्ट किया, वह है उत्पादक तथा उपभोक्ता मानव की संकल्पना। इस नयी व्याख्या के चलते धन ही सुख का पर्याय बनता चला गया और विकास तंत्रा में उच्च सामाजिक तथा सांस्कृतिक लक्ष्य हाशिए पर चले गए। पूंजीवाद के पहले के सभी समाज मूलत: खेतिहर समाज थे। पूंजीवाद ने उत्पादन का चरित्रा ही बदल दिया। वह पूरी तरह निर्वैयत्तिाक हो गया। बाजार जो पूंजीवाद की कोख से जनमता है भी मूलत: निर्वैयक्तिक होता है, बड़ा बाजार तो और भी ज्यादा। वह राष्ट्रों की सीमाएं लांघ जाता है। आज लगभग पूरी दुनिया एक बाजार है जो खतरनाक बात है। पहले बाजार इतना नुकसानदेह नहीं था। क्योंकि उत्पादन का एक सीमित हिस्सा ही बाजार में आता था। पहले भी व्यापारी दुनिया भर में आते जाते थे लेकिन तकनीक का स्तर नीचा था तथा उत्पादन और वितरण विकेन्द्रित थे, इसलिए जीवन मूल्यों में व्यावसायिकता का दखल बहुत सीमित था। आज व्यावसायिकता ही एकमात्रा मूल्य प्रतीत होती है। क्या यह बाजार की जीत तथा साहित्य की हार है? नहीं, यह साहित्य की हार नहीं है, क्योंकि साहित्य एक नयी दुनिया रचने का स्वप्न जरूर देखता है, पर मौजूदा दुनिया को बदलने की वह कोई व्यवस्था नहीं है। यह व्यवस्था राजनीति तथा समाजनीति से आती है। लेखक इस मामले में शायद सबसे कमजोर होता है, क्योंकि भौतिक साधानों पर न उसका नियंत्राण होता है और न वह ऐसा नियंत्राण कायम करना चाहता है। वह पदार्थ और मनुष्य तथा मनुष्य और मनुष्य के रिश्तों को समझना और उनके बेहतर तथा मानवीय रूपों का संधान करना चाहता है। वह रचनाकार होता है, उत्पादक नहीं। अत: वह यही चाह सकता है कि सारा उत्पादन रचनात्मक बने। रचनात्मक उत्पादन मानवीय उत्पादन होता है। उससे बाजार की सृष्टि नहीं होती बल्कि समाज और सघन होता है। लेखक का लक्ष्य ऐसा ही समाज होता है।
लेकिन जब से पूंजीवादी बाजार का प्रवेश हुआ है, लेखक को अपनी रचना बाजार के अधीन करनी पड़ी है। इससे लेखक की भौतिक स्थिति तो सुधरी है पर उसका आत्मिक क्षरण हुआ है। अब अधिकांश लेखक लिखते समय बाजार का ध्यान रखते हैं। जो साहित्य बाजार की शक्तियों द्वारा वितरित नहीं हो सकता, उसका रचा ज्ञान और लोगों तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो गया है। यह आज के लेखक की विडंबना है कि उस पर बाजार की गहरी छाप है। 'संतन को कहा सीकरी सो काम' वाली बात उलट गयी है। अब सारे संत सीकरी में ही रहना चाहते हैं। नतीजतन लेखक की और अंतत: उसके रचे साहित्य की विश्वसनीयता कम हुई है।
साहित्य एक बाजार विरोधी घटना है, जैसे बाजार एक साहित्य विरोधी विचार है। साहित्य बाजार की अमानवीय प्रक्रिया के ठीक विपरीत मनुष्य को अधिक मानवीय बनाने का साधन है। पश्चिम के उपभोक्तावादी समाज तथा मुक्त बाजार की व्यवस्था में मनुष्य और संस्कृति की दुर्गति की ओर संकेत करते हुए आक्टोवियो पाज ने कहा था कि ''जिस समाज में अधिक उपयोग के लिए, अधिक से अधिक उत्पादन का उन्माद बढ़ता है, वह विचारों, भावनाओं, कला, प्रेम, मित्रता तथा मनुष्य को भी उपयोग की वस्तु बना देता है। वहां हर चीज खरीदी जाती है, उसका उपभोग होता है और अंत में वह कूड़ेदान में फेंक दी जाती है।'' क्या यह स्थिति हमारा सच भी नहीं बनती जा रही है? आज क्या साहित्य हाशिए पर नहीं चला गया है? साहित्य यदि मानवीय संवाद और फलत: मानवीय मूल्यों के उन्नयन का माध्यम नहीं बन पा रहा है तो जाहिर है कि आज कविता की सामाजिक भूमि तथा भूमिका खतरे में हैं। और यह खतरा बढ़ता जा रहा है। समाज को संवेदनशील तथा मानवीय बनाए रखने के लिए साहित्य आज पहले से भी अधिक जरूरी है क्योंकि पाज के ही शब्दों में, ''जो समाज कविता की संभावना को नष्ट करता है, आध्यात्मिक आत्महत्या करता है।'' आर्थिक तर्कों ने साहित्यिक तर्कों का स्थान ले लिया है, यह मानने वाले पाज यह भी कहते हैं कि ''पर अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है।'' पाज का यह विश्वास कई मायनों में महत्वपूर्ण है। इस मैक्सिकन लेखक के सामने उसका अतीत और वर्तमान दोनों हैं। उपनिवेशवाद के जमाने से लैटिन अमेरिकी समाज ऐसी यातनाओं तथा व्यवस्थाओं का सामना करता रहा है, जो यथार्थ को भ्रम तथा भ्रम को यथार्थ बनाने की कोशिश करती रही हैं। यह स्थिति सच को गायब कर देती है और असत्य को सच की तरह प्रस्तुत करती है। क्या हमारे देश में भी क्रमश: ऐसी ही स्थितियां नहीं प्रकट हो रही हैं? हाइटेक सिटी की चमक-दमक सच है या वारंगल में बदहाली से तंग आत्महत्या करता हुआ या पुलिस की गोली से मरता हुआ किसान। हो सकता है कि अंधेरा अभी इतना न गहराया हो कि हमें अपना ही हाथ दिखाई न दे लेकिन हम क्रमश: जो समाज बन और बना रहे हैं, लैटिन अमेरिकी समाज उसी का विकसित रूप है। ऐसे समाज में जहां सैनिक-असैनिक तानाशाही है, रचनाकार यूरोपीय-फैंटेसी की मदद से बराबर लिखता रहा है। 'सौ सालों का एकांत' पर नोबल पाने वाले कोलम्बियाई उपन्यासकार मार्क्वेस, 'इस दुनिया की बादशाहत' के 'कार्पोनियर' तथा 'भूतों का घर' के लेखक इसबेल अलेंद आदि इसी समाज के अत्यन्त महत्वपूर्ण लेखक हैं। ये तमाम लेखक साहित्यकार अपने-अपने देशों में चलने वाले सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के अंग और मुक्ति संघर्षों के योध्दा भी हैं।
कहना चाहता हूं कि यही हमारा सच भी है और रास्ता भी। एक अध्यापक के रूप में खास कर मानविकी के अध्यापक के रूप में हमें 'बुध्दिजीवी की सामाजिक सक्रियता' में विश्वास करना होगा। सिर्फ बुध्दिजीवी होना नाकाफी है। हमें साहित्यकार के रूप में, रचनाकार के रूप में, अध्यापक के रूप में अपने शब्दों को कर्मवाची बनना होगा। मित्राो, यदि हमारा आचरण खरा और शब्द कर्मवाची नहीं हुए तो सारा साहित्य, सारा शब्दकर्म 'थोथा चना बाजे घना' भर होकर रह जाएगा। हम हिन्दी के भक्तिकालीन कवियों तथा आधुनिक कालीन प्रारंभिक साहित्यकारों के जीवन और आचरण को ध्यान में रखें तो रास्ता मिलेगा। हां, इस पर चलना आसान नहीं है। हमें अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठना होगा, संकल्प शक्ति को प्रबल बनाना होगा और अपनी दृष्टि को अपने समाज तथा देश की चिंताओं और भविष्य से जोड़ना होगा। यदि हमारे एजेंडे में हमारा देश और उसके दीनदुखी लोग होंगे तो हमारे साहित्य में वह ताकत आएगी जो किसी भी समाज की बेहतरी के लिए बेहद जरूरी है। साहित्य भले ही सीधे जमाने को न बदलता हो पर वह उन्हें बदलता है जो जमाने को बदल सकते हैं।
यदि हमें बिहारी की 'कल बल जल ऊंचे चढ़े' वाली बात याद रहे तो ना साहित्य की 'सहर' शबगजीदा होगा और ना ही मानविकी की।
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद- 500 046

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