स्मृति में रचनाकार : बोलना भी मना सच बोलना तो दरकिनार!

योगेंद्र कुमार
दुष्यंत कुमार आधुनिक हिंदी कविता का एक चर्चित, शुमार और चहेता नाम है। उन्हें छोटी उम्र का बड़ा कवि कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। 'छोटे-छोटे सवाल' (सन् 1964) और 'आंगन में एक वृक्ष' (सन् 1967-69) उनके लिखे दो उपन्यास हैं। 'एक कंठ विषपायी' एक काव्य नाटक है और कथ्य में मिथकीय। 'सूर्य का स्वागत' उनका पहला काव्य संग्रह है जो सन् 1959 में छपा। 'जलते हुए वन का वसंत' दुष्यंत का एक और मशहूर काव्य-संग्रह है जो सन् 1973 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद सन् 1975 में प्रकाशित गज़ल संग्रह 'साये में धूप' आधुनिक हिंदी कविता में एक बिल्कुल अलग क्रांतिचेता प्रतिरोधी मुकाम का हासिल है। अधिकार मदोन्मत्ता निरंकुश हो गयी सत्ता से सीधा और बेखौफ संवाद है। इमरजैंसी के स्याह सायों में जबरदस्त हस्तक्षेप की कौंध-
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार।
अपने विद्रोही मिजाज़ और तल्ख़ तंजज़दा (व्यंग्यात्मक) तबीयत के कारण यह गज़ल संग्रह नयी युवा पौध और कवियों के लिए जैसे रोशनाई साबित हुआ। सत्ता को इस तरह से 'हूट' कर सकता है कोई विरला, नागार्जुन या दुष्यंत-
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर, ये तमाशा देखकर हैरान है।
दुष्यंत के इसी ज़िदभरे खाँटीन के चलते डॉ. विजय बहादुर सिंह लिखते हैं- ''इसमें भी आज कोई दो मत नहीं कि मध्ययुग में संतों, मीर और गालिब आदि महान् शायरों के बाद हिंदी समाज में जिस कवि/शायर में अपनी निजी और सामूहिक तबीयत की भरोसेमंद और प्रामाणिक आवाज़ महसूस की, वह यही था जिसका नाम दुष्यंत कुमार था।''
सच्चे कलाकार की क्या दरकार है, इस बारे में महान रुसी कथाकार मैक्सिम गोर्की लिखता है- ''कलाकार अपने देश तथा वर्ग का संवेदनशील ग्रहणकत्तर्ाा है- उसका कान, आंख तथा हृदय है। वह अपने युग की आवाज है। उसका कर्तव्य है कि जितना कुछ जान सकता है जाने और अतीत को वह जितना भलीभांति जानेगा, वर्तमान को उतना ही अधिक अच्छी तरह समझेगा और उतनी ही गहराई और सूक्ष्मता से वह हमारे समय की सर्वव्यापी क्रांतिकारिता या उसके कार्यभारों की व्यापकता को बोधगम्य कर सकेगा। उसके लिए जनता के इतिहास का ज्ञान आवश्यक है और इसी प्रकार उसके सामाजिक तथा राजनीतिक चिंतन का ज्ञान भी।''
दुष्यंत न तो इतिहास को दरकिनार करता है न समाज के वर्गीय संघर्ष की अवमानना और अनदेखी। बल्कि वर्गीय संघर्ष की चेतना को हाशिये के हर उस शख्स में जगाये-जिलाये रखने का ख्वाहिशमंद है जो इस निज़ाम और उसके नरककुंड वास से निज़ात और मुक्ति चाहता है-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
हिंदी साहित्य पर कथाकार-संपादक राजेंद्र यादव की टिप्पणी है- ''हिंदी साहित्य में कला बहुत है, आग बहुत कम! लेकिन दुष्यंत इस आरोप से बरी और अपवाद हैं। यथार्थवादी होने के कारण विद्रोह उसकी तासीर और तबीयत है। लिहाज़ा अपने वर्गीय दाय के प्रति वे खांटी वफ़ादार, जवाबदेह और ईमानदार हैं। कविता संग्रह 'उजड़े हुए वन का वसंत' की भूमिका में वे इस बात को खुलकर कहते हैं- ''मेरे लिए मनुष्य मात्रा की अवमानना सबसे अधिाक कष्टप्रद है। उस पर मेरी प्रतिक्रिया नितांत व्यक्तिगत ढंग से होती है। मगर चूंकि मैंने अपने आपको सारे अनुभवों के लिए खुला छोड़ रखा है, इसलिए मैं भीड़ का एक हिस्सा भी हूं और मेरी पीड़ा इसलिए केवल मेरी नहीं रह जाती; मैं आपके और आप मेरे सुख-दुख के सहयोगी बन जाते हैं।'' यानी समाज दुष्यंत की चेतना का हिस्सा है। यह उसके अस्तित्व की पहचान, भरोसा और हौसला, सभी कुछ है और यही यकीन उनका यह शेर दिलाता है-
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं
हर गज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
दुष्यंत को पढ़ते हुए कबीर की याद आ जाना स्वाभाविक है। दुष्यंत भी दुखिया है, इसलिए रात-रात भर रोता है क्योंकि आंखों देखा अन्याय उसे बे-बर्दाश्त है। बस्तर के आदिवासियों के देवतातुल्य राजा प्रवीरचंद भंजदेव की नृशंस हत्या की प्रतिक्रिया में लिखी गयी दुष्यन्त की कविता 'ईश्वर को सूली' इसकी गवाह है-
मैंने सोचा था- जब किसी को दिखाई नहीं देता
मैं भी बंद कर लूं अपनी आंखें
न सोचूं
एक ज्वालामुखी फूट रहा है।
घुल जाने दूं लावे में
तड़प-तड़पकर एक शिशु
प्रजातंत्रा का भविष्य-
जो मेरे भीतर मीठी नींद सो रहा है।
मुझे क्या पड़ी है
जो मैं देखूं, या बोलूं या कहूं कि मेरे आसपास
नर हत्याओं का एक महायज्ञ हो रहा है।
('कल्पना': जुलाई 1966 में छपी)
दुष्यंत भाववादी नहीं, धुर यथार्थवादी कवि/शायर हैं। छायावादियों' के छदम- की भांति वह न तो गड़े मुर्दे उखाड़ता है, न पुरातन सांस्कृतिक गौरव का पाखंड प्रदर्शन और पूजन। वेदनाजन्य आंसुओं का कारखाना उसकी कविता नहीं है और न किसी तरह के रहस्यवाद का धोखा ही खड़ा करता है। जैसा कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है- ''साहित्य का साधक केवल कल्पना की दुनिया में विचरण करके केवल 'हाय-हाय' का या वाह-वाह की पुकार करके अपने सामने की कुत्सित कुरुपता को नहीं बदल सकता।''4 क्योंकि ''विचार हवा में नहीं निकाले जा सकते जिस तरह मिसाल के लिए नाइट्रोजन निकाली जाती है। विचारों का सृजन धरती पर होता है, वे श्रम की मिट्टी से फूटते हैं।'' जबकि भाववाद, भौतिकवाद के धुर विपरीत ईश्वर और धर्म में विश्वास एवं उसकी वकालत का दर्शन और सिध्दान्त गढ़ता है। इस 'अमरता' का रहस्य प्रकट करते हुए अप्टन सिंक्लेयर लिखते हैं- ''आदमी को अमरता में विश्वास कराने वाला बना दो और उसके पास धन-संपत्तिा आदि जो कुछ भी है सब लूट लो। वह उफ नहीं करेगा; यहां तक कि अपने को लूटने में खुद आप से/मैं इन्हीं सब नादानियों, फरेब-भ्रम, धोखे और साज़िशों की ज़ानिब समझा रहा है, गुहार लगा रहा है और सच की तरफ इशारा कर रहा है, जैसे-
यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।
हमें पता नहीं था हमें अब पता चला,
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही।
गजब है सच को सच कहते नहीं वो
कुरानो-उपनिषद खोले हुए हैं।
मजारों से दुआएं मांगते हो,
अकीदे इस कदर पोले हुए हैं।
मरघट में भीड़ है या मज़ारों पे भीड़ है,
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और।
और आखिर में-
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
अर्थात् दुनिया के मजदूरो। एक हो। खोने को कुछ भी नहीं पाने को सारा जहांन तुम्हारा।
दुष्यंत ने जिस 'रेंज' तक मुनासिब समझा कविता को भरोसे का हथियार बनाया है लेकिन खतरे की 'इंटेनसिटी', समय की नज़ाकत और दुश्मन की ताकत और तौल के चलते कविता को छोड़ 'गज़ल' को आजमाया है। गज़ल को थाम लेने से उसकी ताकत और चोट (प्रहार) जैसे कई गुना बढ़ गयी है। वह तेग़ भी है और तोप भी। गाज़ भी बनकर वह गिरी है-
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात जरुरी है इस बहर के लिए।
कविता की बनिस्पत गज़ल को वे दुस्समय के दवाबों से छुटकारा पाने का सहज रास्ता और शदीद तकलीफ के लमहों में सुकून और राहत की सांस का सैलाब पाते हैं। वे लिखते हैं- ''सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के मदद करेगा। धार्मिक उपदेशकों और सत्तााधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फांसियों, कोड़ों और इन सिध्दांतों का निर्माण हुआ है।''
'अमरता' विशेषाधिकार प्राप्त, सत्ता, पूंजी और प्रभुत्व (शक्ति) सम्पन्न (शोषक) वर्ग का मनगढ़ंत सिध्दांत है। दुष्यंत अमरता का नहीं बदलाव का ख्वाहिशमंद है-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
लेकिन यह बदलाव तभी संभव है जब सर्वहारा वर्ग राजनीति के छल, धार्म के धोखे, काल्पनिक और झूठे ईश्वर तथा मनुष्य की बौध्दिक गुलामी व शोषण के लिए ईजाद किये गये मनगढंत षड़यंत्राों के प्रति अपनी चेतना जाग्रत करे और उसका समाज में विस्तार-प्रसार करे। लेनिन लिखते हैं- ''लोग राजनीति में सदा छल और आत्मप्रवंचना के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे जब तक वे तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे। सुधारों और बेहतरी के समर्थक जब तक यह नहीं समझ लेंगे कि हर पुरानी संस्था वह कितनी ही बर्बरतापूर्ण और सड़ी हुई क्यों न प्रतीत होती हो, किन्हीं शासक वर्गों के बलबूते पर ही कायम रहती है, तब तक पुरानी व्यवस्था के संरक्षक उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे। और इन वर्गों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का केवल एक ही तरीका है, और वह यह है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसी में उन शक्तियों का पता लगायें और उन्हें संघर्ष के लिए जाग्रत तथा संगठित करें, जो पुरातन को विनष्ट कर नूतन सृजन करने में समर्थ हो सकती है और जिन्हें अपनी सामाजिक स्थिति के कारण्ा समर्थ होना चाहिए।'' दुष्यंत अपनी गज़लों लिए मैंने गज़लें नहीं लिखीं। उसके कई कारण हैं, जिनमें सबसे मुख्य है कि मैंने अपनी तकलीफ़ को ... उस शदीद तकलीफ हो, जिससे सीना फटने लगता है, ज्यादा से ज्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए गज़ल कही है।''8
गज़ल में दुष्यंत जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रा और भाषा की दीवारों से कतई पार एक अदद इंसान के रूप में नज़र आते हैं। उनकी गज़लों में आया-नुमाया इंसान दुनिया भरर में बसता है। क्योंकि पूरी दुनिया मजदूरों का घर है-
न हो कमीज़ तो पावों से पेट ढंक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए।
इसी तरह गज़ल, गज़ल होती है। न वह उर्दू होती है न हिंदी होती है। जुबानों के फ़र्क और उसके फिरक़ापरस्ताना (कठमुल्लों द्वारा जबरदस्ती थोपा गया, निरा सियासी) अंदेशे को साफ करते हुए अपने आत्म कथ्य में वे लिखते हैं- ''उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूं। इसलिए ये गज़लें उस भाषा में कही गयी हैं, जिसे मैं बोलता हूं।''
दुष्यंत की रचना, वह कविता हो या गज़ल; दुनिया के उस श्रमशील- संघर्षरत आम आदमी, जो सत्ताा और शक्ति के बल पर हाशिये पर धकेल दिया गया, की उनने बेजुवान चोटों, चीखों और हसरतों का बयान है, जिन्हें वह अपने सीने में दबाये ही दुनिया से विदा हो जाता है, अनाम मर जाता है। मशहूर कथाकार कमलेश्वर के इस कथन के बाद दुष्यंत कुमार के बारे में कहने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता। वे लिखते हैं- ''हम सब जो जीवित हैं- आदमी के सपने को लेकर चले थे और अपने सपनों को लेकर जीने लगे। दुष्यंत अपने सपने लेकर आया था और आदमी का सपना देकर चला गया। उस आदमी का सपना जो अपने विराट समय को पहचानते हुए, उसी में जीता और मरता है।''
रीडर अंतर्राष्ट्रीय हिंदी शिक्षण विभाग, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा- 282 005 (उ.प्र.)

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