कविताएं : कुसुम बुढलाकोटी, यतीन्‍द्रनाथ राही, सुरेश सेन 'निशांत', नन्‍दकिशोर

ईष्ट : - कुसुम बुढलाकोटी
फैशन चैनल पर आती सुंदरियां,
औदार्य भाव से प्रस्तुत देह
जिसके प्रति रहता, एक तटस्थ भाव
मुझे लगता है,
इसमें एक औघड़ संत का सा भाव
संत भी जैसे अपने ईष्ट
में डूबा रहता है, स्वयं के प्रति उदासीन
दोनों का ही अपने ईष्ट के प्रति गहरा समर्पण
भले ही एक का ईष्ट हो मात्रा पैसा
और दूसरे का ईष्ट उसका ईश्वर....!

अलनूरा : यतीन्द्रनाथ 'राही'
अलनूरा एक लाउन्ड्री है
अबूधाबी में-
भारतीय मूल के देवता प्रसाद की।
वस्त्रा धुलते हैं यहाँ,
हर ज़ात मज़हब के-
मैले कंदूरे, दाग़ी चादरें
स्याह अंबाए।
पसीने से दुर्गन्धित अन्त:वस्त्रों से लेकर
खूबसूरत कीमती परिधानों तक
सब यहाँ आते हैं
धुलने सँवरने।
साथ आती हैं-
इनकी सलवटों की कहानियाँ
नाज़ो अन्दाज़ की रंगीन रवानियाँ
कुछ गोपनीय
कुछ सपाट बयानियाँ।
लोग जो आते हैं
मुखौटे भी हो सकते हैं, असल इंसान भी
बतियाते हैं सुख-दुख की बातें
बीते दिन और रातें
दिल फरोशी के किस्से
हादसों के चर्चे
कैसे धक रहे हैं ज़िन्दगी के चरख़े।
इनकी ऑंखों में मैंने देखी है-
अपनत्व की तलाश
दूरवतन की माटी में भटकती प्यास
प्यार को, खुलकर पसरती बाँहें
निर्लिप्त सी अतृप्त चाहें
दर्द में इन्सानियत की बुनियादें हैं
मुठ्ठी भर सपने हैं, साधें हैं।
संवेदनाओं की कुंठित होती साँसें
अभिव्यक्ति के पोरों में-
चुभी घुसी फाँसें।
खोजती हैं रात दिन
सर छुपाने को छत का एक टुकड़ा
दो जून की रोटी
और भीड़ में खोए अपने वजूद की पहचान
जो पता नहीं
कब और कितनों को मिल पाएगी
ज़िन्दगी यों ही चली थी,
यों ही चली जाएगी।
किन्तु,
जब तक जिजीविषा है
तलाश तो रहेगी ही
क्या पता
इस लाउन्ड्री के ही,
गन्दे कपड़ों में दबा-ठुसा
किसी अलमारी में सजी
मिल जाए कहीं
कबीर की चादर
मीरा की चूनर
राधा का चीर
या कन्हैया का अंगरखा।
काश! तुम्हारी चाहत
ले जा सके तुम्हें इस लाउन्ड्री से उस विराट लाउन्ड्री तक
जहाँ नूर में घुलकर
पवित्रा होती हैं आत्माएँ।
वहाँ, न वस्त्रा होते हैं,
न वस्त्रा धारक तन
होती है सिर्फ-
प्रकाश की अनवरत
अनन्त वर्षा
आनन्द का अतल सागर
यहीं आकर ख़त्म होती है-
ज़िन्दगी
और ख़त्म होता है-
इस लाउन्ड्री से उस लाउन्ड्री तक का
चिरन्तन सफर। (आबूधाबी (यू ए ई))

कविताएं : सुरेश सेन 'निशान्त'

मां 1
सदियों तक
पुरखे मुझे छुपाये रहे
अपनी नसों में।
सदियों से मैं छुपा रहा
अन्न के दानों में
नदियों के जल में
हवा की नमी में
सदियों तक।
वह आई
सूरज से छिटक कर
मेरे लिए, मुझे जन्म देने
अपनी समस्त वनस्पतियों को लिए
अपने गीतों, अपनी लोरियों के संग।
पीठ पे मुझे बांधे
घूमती रही सूरज के चारों ओर
और अपने अक्ष पर भी।
चढ़ती रही पहाड़
नंगे पांव।
लांघती रही
सिर पर लकड़ियों का गट्ठर रखे
जर्जर पुलों को।
लाती रही
मेरी प्यास बुझाने को
तीन कोस दूर से पानी।
धरती के सूखे को
और मेरे तन को
सींचती रही
अपने पसीने से
अपने लहू से।
मेरी देह का समस्त हरापन
है उसी का आशीर्वाद
उसी की आंखों में पलने वाली
खुशी का एक रंग।

मां 2
माओं की नींद में
हर रोज़ बड़े होते रहे
खोये हुए बेटों के नन्हें पांव
घर भर में गूंजती रही
उनकी हंसी।
आंखों में जल की तरह
बैठे रहे खोये हुए बेटे
यादों की देहरी पर
दूर जाने के बावजूद।
गीतों के बोलों में
होते रहे जवान।
खोये हुए बेटों को
भूल ही नहीं सका कोई
जब तक मायें रही जिंदा
वे जब चाहते आ जाते
ठकठकाने लगते चेतना का द्वार।

मां 3
मांये कभी मरती नहीं
वे हममें ही कहीं होती हैं बैठी हुई
जब हम रोप रहे होते हैं
धरती पर गुलाब
जब हम तरेर रहे होते हैं
आतताईयों पर आंखें।
जब हम बचा रहे होते हैं
किसी की डूबती नाव।
जब हम बना रहे होते हैं
कोई सुन्दर सा चित्रा
लिख रहे होते हैं
सुन्दर सी पंक्ति।
जब हम डांट रहे होते हैं
अपनी किसी गल्ती पर
खुद को ही।
मांये कभी मरती नहीं
वे हममें ही बैठी होती हैं कहीं।

मां 4
अपने जाने के बाद भी
वह मुझे मिलती रही
पगडंडियों की उस पुरानी धूल में
जहां मैं खेल-खेल में दौड़ते हुए
कई बार गिरा था।
कई बार अचानक वह
फलों के मीठे स्वाद में
बैठी मिली
नीम के कड़वे पन में भी।
अपने जाने के बाद
कई बार बूढ़े पिता को मनाने की
एक छोटी सी
कोशिश की ओट में
मिली बैठी हुई।

औरत तो हर्गिज़ नहीं
जब तक जिन्दगी थी
बांटती रही फल
देती रही छाया।
चिड़िया सी व्यस्त रही
उम्रभर गृहस्थी के
तिनकों को सहेजती हुई।
जूतों सा पहनी गई
उतरन सा फेंकी गई
इसी में ढूंढती रही
अपने होने का अर्थ।
जब तक जिन्दगी थी
देह को ताकली सा घुमाती रही
वक्त को सूत सा कातती रही।
कभी कश्ती का तख्ता थी
तो कभी सफर में
प्यास बुझाने के लिए
मश्क में रखा हुआ जल भर।
कभी नाव का चप्पू
कभी एक लुड़कता हुआ पत्थर
औरत तो हर्गिज़ नहीं
जब तक जिन्दगी थी। (ग्राम- सलाह, सुन्दर नगर- 1, जिला- मण्डी (हि.प्र.))

कविताएं - नंद किशोर
नाम
मेरा नाम
करीम है
किशन भी
हो सकता था
खुशवंत या
जोसेफ भी
बहरहाल
इंसान ही होता
और लाल होता
खून मेरा
बिलकुल
तुम-सा...

नव वर्ष
हम एक सफ़र हैं
रोज रोज घटते हुए
हम चमकते हुए दिन हैं
पल पल बीतते हुए
हम ग्लास हैं मय के
घूंट घूंट कमते हुए
हम फैले हुए समय हैं
अदृश्य रीतते हुए
और मुझे देनी है बधाई
तुम्हें नव वर्ष की
लिखनी है एक चिट्टी
पुलक की, हर्ष की .... (14/1 ईस्टमाल रोड, कोलकाता- 80)

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