लघुकथाएं-आलोक कुमार सातपुते, सुरेन्द्र मंथन

आलोक कुमार सातपुते

कॉमन फैक्टर
हिन्दू-सिख दंगों के दौरान हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई
हिन्दी-मुस्लिम दंग़ों के दौरान- हिन्दू सिख भाई-भाई या हो सकता है हिन्दू-ईसाई भाई-भाई
इन घटनाओं में कॉमन है हिन्दू और फैक्टर है, अल्पसंख्यकों का बहुसंख्यकों से सद्भावना रखते हुए दंग़ों की मुख्य धारा में शामिल होना।

सवर्ण
वह एक दलित प्रोफेसर रहा है। आजकल रिटायर्ड है और शौकिया तौर पर समाजसेवा करता है। उसने अपनी काम वाली बाई के खाने का अलग बर्तन रखा है। गली झाड़ने वाले मेहतर के लिए चाय का फूटा हुआ कप अलग से रखा है। वह दलितों में सवर्ण है। सारे दलित उसे प्रमाण करते हैं।

राख
उस सरकारी कार्यालय में गणतंत्रा दिवस मनाया जा रहा है। झण्डा-वन्दन हो चुका है। सब लोग प्रफुल्लित हैं। हंसी-मज़ाक कर रहे हैं। जल्द ही लड्डू बांटे जाने हैं। लड्डू खरीदने की ज़िम्मेदारी एक बांभन को सौंपी गयी है। ये बांभन, चपरासी से प्रमोट होकर क्लर्क बना है। अधिकारियों के घरों में कथा बांचने के कारण उसे आउट आफ टर्न प्रमोशन दिया गया है।
बांभन महाराज लड्डू का डिब्बा उठाये सबके सामने जा रहे हैं और कह रहे हैं- लीजिये अपने हाथ से लड्डू उठाइये। मेरे पास पहुंचकर वह अपने हाथ से लड्डू उठाकर देते हैं। ऐसा ही वह मेरे बाजू में खड़े एक चर्मकार कर्मचारी को भी हाथ से उठाकर देने लगते हैं। इस पर वह चर्मकार कर्मचारी अड जाता है कि वह डिब्बे में ही हाथ डालकर लड्डू उठायेगा। वह बांभन भी अड़ जाता है। वह अब बांभन को मां-बहन की गली देने लगता है। कार्यालय के बास अनुसूचित जाति के दूसरे कर्मचारियों से कह रहे हैं कि बात न बढ़ाई जाये, और उसे समझाया जाये कि इस बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाये।
इसके बाद सभी अनुसूचित जाति के कर्मचारी उसे समझा-बुझाकर शांत कर देते हैं और समानता-भाईचारा आदि शब्दों की बयानबाजी के साथ गणतंत्रा दिवस मना लिया जाता है।
यह एक ऐसी राख है जो अन्दर ही अन्दर सुलग रही है।
झण्डा चौक, बजरंग नगर, रायपुर- 492 001

सुरेन्द्र मंथन

ब्लैकमेल

भजन चलने लगा तो मैंने सोचा, फजूल रिक्शा पर आठ-दस फूंक देगा। सामान सायकिल के कैरियर पर लाद कर कहा- चलो, बस स्टैंड साथ ही है, छोड़े आता हूं।
भजन ने रास्ते में फिल्मी-पत्रिाका खरीद ली। मैंने मन को समझाया- चलो, सफर की बोरियत से बचेगा।
भजन जब भी आता, अनाप-शनाप पैसा बहाता रहता। राजकुमारों जैसा शाही दिल है उसका। दोस्तों के बीच बैठता है तो क्या मजाल कोई दूसरा बिल अदा कर जाए।
एक मैं हूं, पैसा-पैसा दांत से पकड़ना पड़ता है। बड़ा होने की मजबूरी है। जब तो भजन शादी-शुदा है। उसका फर्ज़ नहीं बनता था, बापू को साथ ले जाने की बात कहता? कितना बढ़िया बहाना है, यहां पोते-पोतियों में बापू का मन बहल जाता है।
घर पहुंचने पर पत्नी ने कहा- क्या ज़रूरत थी कुली बन कर सामान ढोने की?
- अरे भागवान, दस रुपए बच गये। चूल्हे अलग हुए तो क्या हुआ; घर का पैसा घर में रह गया।
- तब पड़ोसियों की नंबर दो कमाई पर क्यों चिढ़ते हो? काला धन ही सही, देश से बाहर तो नहीं जा रहा।
मुझे महसूस हुआ, कोई मुझे लगातार ब्लैकमेल करता आ रहा है।
2711/3, गांधीनगर, बंगा- 144505 (पंजाब)

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