उपन्यास :- जलाक ( सुदर्शन प्रियदर्शिनी)

एक गाड़ी है जिस की खिड़की पर मैं कोहनी रख कर बैठी हूं। बाहर के दृश्य गाड़ी के साथ-साथ पीछे को दौड़ते चले जाते हैं। गाड़ी और उनमें होड़ लगी हुई है। लेकिन इस से भी अधिक मेरे अन्दर एक दौड़ लगी हुई है...। एक कैमरा रील दर रील मेरे अन्दर खुलता जा रहा है...।
सुदूर विदेश की धरती पर बीते बचपन के वे तीन वर्ष हैं... जिन में मन की परतों पर खुदी गहरी लकीरें हैं...।
टेलिविजन पर आने वाले चित्रा और उनमें चुम्बन-आलिंगन के स्पष्ट दृश्य हैं। आम सड़कों और शॉपिंग सेन्टरस् के बड़े-बड़े खुले बरामदों में चौदह-पन्द्रह-पन्द्रह साल के बच्चों का हाथों में हाथ डाले विचरना है। कमरों पर हाथ रखे लड़कियों को थामना है और मेरी उम्र के दिनों का सालों के रूप में बढ़ना है...।
यहां जिस स्थिति तक पहुंचते सालों लगते हैं, वहां वे मनस्थितियां दिनों में परिपक्व हो जाती है...।
यही नहीं- माता-पिता के वे वर्जित दृश्य हैं, जो वहां जाने पर वर्जित नहीं रह गए थे...।
फिर एकाएक उन सारे दृश्यों पर एक पटाक्षेप  है...। क्या मेरी मनस्थिति उस पटाक्षेप के लिए तैयार नहीं थी...।
शोभना और देवला की मन:स्थितियां क्या बहुत लचीली थी? या उनकी वे तमन्नाएं जागी ही नहीं कभी?
आप ही बताइए... ऊपर चढ़कर कोई नीचे उतरना चाहेगा? कोई आगे जाकर पीछे मुड़ना चाहेगा...?
लेकिन सवाल यह है कि आगे बढ़ना और ऊंचे चढ़ना किसे कहते  हैं...?
मैंने जिस वस्तु-स्थिति को केवल भौतिक रूप में अनुभवा शायद दूसरों ने उसे उस रूप में नहीं लिया।
शोभना और देवला ने वहां जो देखा, जो सीखा वह उनके व्यक्तित्व को दृढ़ बनाता गया... उनके स्वरूप को और भी निखारता चला गया... लेकिन मैंने जो देखा, वह मुझे और भी विवश करता गया... मुझे कमजोर बनाता गया।
इस सबका दोष किसे दूं...?
मां को... या पिता को...? या स्वयं अपने आपको...?
मां ने बहकती हुई सामाजिकता को स्वीकार नहीं किया... क्या इसलिए...?
पिता ने मां की इस घटिया दकियानूसी धारणा पर हथियार डाल दिए... क्या इसलिए?
मैं आज तक उन सबसे घृणा करती रही हूं। इसी घृणा के वशीभूत हो, मैं बार-बार जाकर उनके शांत हुए जीवन में पत्थर फेंकती रही हूं...?
मैं यह क्यों नहीं मान सकी कि वे भी कहीं स्थितियों के समक्ष विवश  थे...। एक स्थिति वह थी, जो उन्हें विदेश ले गई और एक वह थी जो उन्हें वापिस ले आई...।
मेरी शिकायत यह है कि उन सब स्थितियों के बीच कहीं बच्चों की मानसिक उथल-पुथल को उन्होंने क्यों नहीं आंका? आंका नहीं, आंकने की कोशिश तो की होती!
पर मैं यह भी कैसे कह सकती हूं कि उन्होंने यह कोशिश की ही नहीं... क्योंकि मेरी ही मनस्थिति में ये टकराव आए... दूसरे बच्चों के साथ उन्हें कोई उलझन नहीं हुई...।
पिता ने वापिस देश लौटने का समझौता क्यों किया यही मुझे उम्र भर सालता रहा...।
लेकिन आप समझती हूं... एक दूसरे के समक्ष हथियार डाल देना... हारना नहीं अन्तत: जीतना ही होता है। आज वे सब जीते हैं और मैं ही हारी           हूं...।
बचपन के वे खिलौने... वह साज-समान और बिछौने जब बाहर जाने की झांक में बिखेरे गए... बांटे गए... कुछ बेचे गए... तो मैं एक एक चीज को पकड़ कर रोती रही...। खीझती रही मां पर... अपनी चीजों को पकड़-पकड़ कर सीने से लगाती रही... मैं नहीं दूंगी... मां इसे मैं साथ ले जाऊंगी...।
मेरी किसी ने नहीं सुनी।
मेरे बचपन की जिद... क्या जाने कायदे और कानून कि मेरी छोटी साईकिल, हवाई जहाज पर नहीं जा सकती। मेरा सूत का सतरंगा पलंग (जो घर में पुश्तैनी रूप से चला आता था।
उस सारी पीड़ा को, वहां के सब्जबाग दिखा-दिखा कर दूर किया जाता          था...। उन बचपन के खिलौनों को सुदूर भविष्य के सपनों में देखा जाता था।
माता-पिता ने यह नहीं सोचा कि बच्चों की आंखें भविष्य नहीं केवल वर्तमान देख सकती हैं?
फिर उन सपनों का भी क्या हुआ...?
उन सपनों के निकट ले जाकर... फिर उन्हें बेरहमी से तोड़ दिया गया...।
बचपन से ही हमारी किस्मत में एक खानाबदोशों वाली जिंदगी लिखी थी। इस जिंदगी में अपना कुछ भी नहीं था। बस हर बार जैसे कोई मुठ्ठी भर ऐशोआराम किराए पर ले लें और फिर छोड़ दें...।
कैसी तटस्थ मन:स्थिति के रहे होंगे मेरे माता-पिता जो कभी पा लेते-कभी छोड़ देते... और फिर कुछ अन्य पाने की धुन में दौड़ पड़ते...।
यही पाने-छोड़ने का शनिवार मेरी काया में लिपटा है।
मैं मन से कभी ऐसी स्थिति के साथ समझौता नहीं कर पाई...। पर क्या जानती थी, अन्तत: पाना और खोना ही मेरी नियति बन जायेगी।
माता-पिता के अपनी जिदंगी के साथ किए गए तजुर्बे (अनुभव) कभी-कभी बच्चों को कितने महंगे पड़ते हैं, कभी माता-पिता ने सोचा होगा...?
माता-पिता का आपसी तनाव जितना बच्चों को तोड़ता है उतना ही उनका आपसी लगाव, बच्चों को उनसे दूर ले जाता है...।
माता-पिता की अनन्य निष्ठा की बच्चों को उतनी ही जरुरत है जितने उनके आपसी लगाव की...।
इन दो स्थितियों के बीच कोई-कोई मां बाप ही सन्तुलन रख पाते हैं... अधिाकांश भटक जाते हैं...।
अपने आदर्श और अपनी मान्यताएं थोपते-थोपते मां-बाप कभी-कभी बच्चों को कुछ का कुछ बना डालते हैं। इसी तरह बच्चों की बेलगाम, मरजी को तरजीह देकर चलने वाले माता-पिता भी अन्तत: धोखा ही खाते हैं...।
क्या मेरे साथ यही नहीं हुआ?
मैंने पाश्चात्य वस्तु-स्थिति को जैसे अपने अन्दर धारा... इसे धारणा नहीं गहना-कहना चाहिए... या ये दोनों शब्द ही गलत हैं। वह ऐसी स्थिति थी जिसमें मरजी से गहना या धारणा नहीं होता। आप पानी में तैरते हुए पानी के गीलेपन से अलग नहीं हो सकते... कुछ इसी तरह...। विशिष्ट स्थितियों में पड़ कर जैसे स्थिति-अनुरूप ही आप बहते जायेंगे... कुछ उसी तरह।
बढ़े हुए परिपक्व पेड़ को कैसे भी जल दो फल जायेगा लेकिन उगती हुई पौंध को तो जल और वायु की विशिष्टता ही प्रभावित करेगी...।
पता नहीं कौन-कौन से स्टेशन निकल गए हैं... और मैं वहीं खिड़की पर सिर टिकाए समय को भागते देख रही हूं... बस उसी तरह- जैसे मेरी जिदंगी में से न जाने क्या-क्या बिना छुए और बिन देखे निकल गया है...।
कुछ क्षण मेरी जिन्दगी में ऐसे आए हैं जिन पर मैं आज भी उंगली रख सकती हूं। वे क्षण मुझे बिन-छुये नहीं निकल सके हैं। वे मेरे अन्दर से होकर आरी की मानिंद गुजरे हैं... और आज भी गुजर रहे हैं...।
मैंने बिन-पूछे- बिन समझे घर छोड़ दिया था। देहली में जब श्रीकांत मुझे विवाह के लिए ले जाने वाले थे... तो मैं बेबस-उदास सी हो आई थी।  बिना श्रीकांत को बताए मैंने टेलीफोन पर पिता का नम्बर घुमा दिया था.. मैं जानती थी, वहां से हमारा शहर सीधो- सम्बन्धित है टेलीफोन से (डायरेक्ट कॉल)... पिता दुकान पर ही मिल गए थे...।
मेरी आवाज सुनकर- उनकी आवाज भर आई थी... कुछ क्षण टेलीफोन पर मौन सधा गया था...।
उस समय जाने क्या था- मैंने बड़े बेलाग होकर कहा था- मैंने घर छोड़ दिया है- पापा...
जैसे बिना पूछे छोड़ा है उसी तरह बिना- पूछे लौटना भी मत मीनल... पापा ने कहा था...। और वह मीनल शब्द कहीं आज भी मेरे अन्दर उसी तरह भरा-भरा बैठा है। यही वह अंतिम शब्द था जो मैंने पिता के मुंह से सुना था...।
लेकिन उस समय उनकी वह भारी-भारी आवाज भी मुझे लौटा नहीं पाई थी...।
इसके बाद कुछ वर्ष पहले जब मैं बहुत भटक गई थी... और कहीं मेरी गाड़ी एक बार शहर के बीच से ही गुजर रही थी- तो समय का अन्दाजा लेकर- मैंने एक बार फिर टेलीफोन पर नम्बर घुमा दिया था... पिता मिल गए  थे...।
मैं मीनल बोल रही हूं... पापा।
पापा... बहुत लम्बा गोता खा गए थे...।
पापा...। मेरी आवाज भटकन की थकान से रोनी-रोनी हो आई थी।
कैसी हो... मीनल...।
ठीक हूं... पापा...
पापा... मैं घर आ जाऊं...?
पापा... बहुत देर चुप हो रहे थे... फिर धीरे-धीरे बोले- नहीं मीनल... नहीं... तुम घर नहीं आ सकती। जाने का फैसला तुम्हारा था- यह हमारा  है...। और बिना कुछ और कहने-सुनने का मुझे अधिकार देने से पहले ही पापा ने फोन बंद कर दिया था...।
इसके बाद... तो पीछे मुड़कर देखने का साहस ही नहीं हुआ। किसी खिड़की की खुली- हवा मुझे नसीब नहीं हुई और किसी घर की चौखट मेरे पांवों को नहीं मिली...।
तब सोचती थी कि कहीं मैं ही घर छोड़ने और वापस जाने की मन: स्थितियों के बीच में पिसी हूं...। माता-पिता की जगह पर होकर मैंने कभी उस वस्तु-स्थिति को नहीं आंका उनकी स्थिति कितनी विकट रही होगी...।
पर उस दिन फोन पर लगा- मां और पिता भी कैसे निर्मम हो सकते हैं? पर जो निर्ममता मैंने की थी, उसके बाद भी मैं पिता से इतने खुलेपन की अपेक्षा किए थी... जिसमें वे बच्चों को अनुभवों का मौका दे सकते हैं। लेकिन शायद इतना बड़ा जिगर मां-बाप में नहीं होता। पहली बार जब श्रीकांत के घर से फोन किया था- तो पिता ने एक बात और कही थी- मीनल- जिस  दिन मन-बदले उसी दिन पीछे देखना... केवल बाहरी जरुरतों को पूरा करने आयेगी- तो मैं आने नहीं दूंगा... और आज पिता ने बिना-पूछे ही- फैसला सुना दिया...। एक बारगी नहीं पूछा- मीनल... तुम क्या सच ही घर लौटना चाहती हो...?
उसके बाद उम्र भर मैं उनकी एक-एक बात को मन में रखकर... उनसे भरपूर घृणा करती रही... घृणा और बेहद घृणा...।
पर आज जब भी कहीं माता-पिता शब्द आते हैं तो मेरी आंखें नम हो जाती हैं। मैं कहीं अन्दर के खालीपन से ढह जाती हूं...।
ये इतने सारे खिलवाड़ मैंने अपनी बचपन की चंचलता में कर डाले...। एक-एक खिलौना तोड़ डाला... कि आज किसी खिलौने का भग्न-मर्मस्पर्श भी नहीं रहा...।
मेरे पीछे जो इतिहास है बिसूरने को- उसमें मां और पिता की मासूम तस्वीरें हैं.. बहिन-भाइयों के दर्द भरे चेहरे हैं... जो दर्द मैंने उन्हें उम्र भर के लिए दे दिए क्या वे कभी उभरे होंगे... उनसे... एक नासूर की तरह मैं उनके दिलों में हर-सुबह दु:खती रही हूंगी...। हर सुबह चाय की प्याली के धुंए में मैं कालिख बनकर उनकी आंखों में उभरती रही हूंगी...।
उन्हीं का कल मैं हूं... पर जब वे मेरी अपने कल के रूप में कल्पना करते होंगे... तब उनकी आंखों में क्या कोई नमी उभरती होगी...? कोई भाप उठती होगी...? नहीं... वहां तो जब भी मैं उनका कोई आज या कल बनकर उभरती हूंगी- एक घृणा की लपट की तरह उनके कलेजों को दबोच लेती हूंगी।
मैं उम्र भर यही करती रही हूं...।
आज सोचती हूं- आदमी क्या इसीलिए जीता है कि वह अपने अरमानों को पूरा कर ले और उन्हें पूरा करने के लिए अपनी बनाई राह पर मनमाना चलता फिरे...। उस मनमानी में चाहे दूसरों को रौंद डाले?
क्यों हमारे समाज में नियम बनते हैं? क्यों नैतिक मानदंड, चारित्रिाक मान्यताएं या सीमाएं निर्धारित की जाती हैं...? आज समझ गई हूं कि बेलाग नदी की उछलती लहरों का कोई किनारा नहीं होता... और किनारे में रहने वाली नदी- उम्र भर खेतों-खलिहानों को सेत कर अंत में वहीं अपनी सीमा में समाप्त हो जाती है और उस सीमा में ही उसकी गरिमा को लोग नहीं भूल पाते...।
मैंने तो सभी दीवारें तोड़ी हैं, सभी नियम उलांघे हैं। सबको अपनी मनमानी से रौंदा है। इसलिए आज कहीं मरने को भी स्थान नहीं है। किसी की आंखों में भाप सी नमी नहीं है। किसी का नरम-घुटना नहीं है और प्यार भरी आंखें नहीं हैं जहां अपना दम-तोड़कर उन आंखों की चमक में जिंदा रह सकूं...।
शायद इसी... मात्रा इसी शांति के लए लोग उम्र भर नियमों में बंधे रहते हैं... अपनी सीमाओं में ही असीम की खोज करते हैं...।
मैं जिस पिता को मां के सामने हथियार डालने वाले बंधक के रूप में कोसती रही- उसी पिता के बारे में सोचती हूं कि परिवार की जड़ को हिला न सकना कायरता नहीं थी... धर्म था। मेरे पिता ने जो धर्म निभाया था... वही धर्म आज मेरे लिए पश्चाताप का अग्निकुंड बन गया है...।
कौन सा पड़ाव है जहां में उतर कर अपनी मानसिक-पीड़ा को राहत दे सकती हूं...। दीदी शोभना! यही कहीं थी... बंगलौर में... मैसूर के कहीं आसपास... और बड़ी दीदी बड़ौदा में... दोनों अपनी नौकरी के चक्कर में कहां-कहां घूमती रही हैं... मैं तो सब को लांघ आई हूं...। कहीं पैर उठाने का साहस नहीं हुआ... बड़ौदा और नागपत के प्लेटफार्मों पर घूमते अजनवी चेहरों में यूं लगता रहा ... कहीं कोई कहेगा... अरे ये तो अपनी मीनल है... मीनू और बांह फैल जायेंगी... लेकिन... कहीं कोई बाहें नहीं फैली... केवल हॉकरों की आवाजों के बीच मेरे अन्दर का सैलाव ही फैलता रहा...।
अपने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कब से घूम रही हूं... कहीं एक भी चेहरा नहीं उठा मेरी ओर...। कहीं एक भी बांह नहीं फैली... अब मैं अपने बचपन की जिद की बलैय्या लूं या अपने सपनों की आरती उतारूं... उम्र का वह पड़ाव है अब कि आरती ही उतार सकती हूं...।
हवाई जहाज उड़ रहा है- कुवैत और आबूधाबी पर से ऊपर उठकर स्वीट्जरलैंड की हरीतिमा पर से गुजर रहा है...। कैसी मोहक हरीतिमा है। सभी ठिठुरने लगे हैं। होस्टेस एक्स्ट्रा कंबल दे गई है। लोग उठकर खिड़कियों से स्विट्जरलैंड की सुन्दरता को पी रहे हैं। हम ने भी खिड़कियों पर कब्जा कर लिया है। छोटा भैय्या उछल रहा है खिड़की तक पहुंचने के लिए... लेकिन मैं खिड़की पर जमी हुई हूं... अविनाश को खिड़की तक आने नहीं दे रही  हूं...। विदेश जाने की ऊंचाई और भी उठती जा रही है... मेरे अन्दर। कोई बुत बड़ा पहाड़ उठ रहा है... जो क्षण-क्षण ऊंचा होता जा रहा है... दूसरों से अलग...  पड़ोस के हजीत और उषी का ख्याल आता है। वे नीचे जमीन पर रेंग रहे हैं। बहुत छोटे हो गए हैं... खेल रहे हैं वही एड़ीटप्पा, गीटे और मचा रहे हैं बरामदे में धमाचौकड़ी...। अरुण ने कैसे सबको नीचे लगा रखा था... बड़ा ऊंचा-ऊंचा होकर चलता था सिर्फ इस बात के लिए कि उसके पिता विदेश में हैं... विदेश में भी जांबियां में...। छि: वह भी कहने लायक विदेश है। और यहां हम स्वीट्जरलैंड के ऊपर से उड़ रहे हैं। मैं मन ही मन बड़ी खुश हूं..। सोचती हूं जिस दिन वापस जाऊंगी, उसे पूछूंगी- स्वीट्जरलैंड देखा           है...? उसकी ऊंची-ऊंची हरियाली से भरी घाटियां देखी हैं? और फिर अभी तो अमेरिका... की भव्यता... अलग होगी...।
खिड़की से मुंह हटाकर मैंने पिता की ओर कृतज्ञ नजरों से देखा था...। लगा कितना ऊंचा कर दिया है हमारा अहम् हमारे पिता ने...। कितना ऊंचा उठा दिया था उन्होंने हमें... कहीं बचपन के अल्हड़-भेजे में ये बातें किसी रूप में उठी थी...।
अब अरुण की बोलती बंद होगी- बड़ी हेकड़ी मारता था... मैंने खिड़की से हटते हुए सब की ओर देखते हुए कहा...।
मेरी बात पर शोभना-मुस्करा भर दी और  देवला वही बूढ़ी-नानियों जैसी तटस्थ गंभीरता ओढ़े रही...।
पिता ने मेरी ओर घूर कर देखा- मां की नज़र में भी घुड़की थी...। मां ने कभी पंसद नहीं किया- मर्यादा से बाहर ऊंची बात करना...। मां का सदैव यही कहना रहा है जितना फल लगता है पेड़, उतना ही झुकता है...।
मैं चुप हो गई थी...।
हम चारों बहिन भाइयों की नज़रों में पिता कहीं बहुत बड़े हो गए              थे...।
रात्रिा के लगभग 10 बजे हम अमेरिका पहुंच गए थे...। पिता के एक मित्रा हमें लेने आने वाले थे...। ये सारा ताम-झाम उन्हीं का ही तो था...। सभी उन्हें देखने को उत्सुक आंखें बिछाए थे...।
वह एयरपोर्ट पर पहले से ही मौजूद थे। सीढ़ियों पर से उतरते ही हमने उनके हिलते हाथ को देख लिया था...। कितनी प्यार-भरी नज़र से वे हमें जहाज की सीढ़ियों से उतरता देख रहे थे...।
नीचे उतरते ही उन्होंने सभी को बाहों में भर कर प्यार किया था...। उनके प्यार में भी एक भव्य-शालीनता थी...।
उनकी बड़ी मर्सीडीस गाड़ी में हम लोग पीछे और पिता उनके साथ आगे बैठे थे...। उनके बेपरवाही से उड़ते हुए बाल... उन्हें एक अलग ही गरिमा           दे रहे थे...। पिता से वे सारी राह अपने देश की बातें पूछते रहे थे...।         मौसम... राजनीति... खेती बाड़ी और न जाने क्या-क्या...?
हम भाई बहिन उनकी सादगी और बेबकूफी पर दबी नजरों से मुस्कराते रहे थे...। क्या रखा है, वहां का सब पूछने में... यहां की बातें क्यों नहीं करते... ये...? हम अब वहां का सब कुछ जान लेने को उत्सुक थे...।
घर आ गया था। बाहर से घर बड़ा साधारण और वर्षा-धूप की मार खाए हुए लगता था। हमारा उत्साह ठंडा होता जा रहा था।
घर की डोर-बैल पर हाथ रखते ही दरवाजा खुल गया था। मिसेज धवन मुंह पर चारों ओर मुस्कान लपेटे दरवाजे पर खड़ी थी...। हम सबको उन्होंने बाहों में भर-भर कर भरपूर प्यार किया था...।
यों मुझे याद है... वहां एक वर्ष रहने के बाद भी हमें मिसेज धवन के परिवार जैसा कोई परिवार नहीं मिला था। सब मुखौटे लगाए, अन्दर ही अन्दर  एक अन्य-भाव-भंगिमा में जी रहे थे। अमेरिका के कथित कायदे-कानून अपनाए हुए... चेहरों पर रुक्ष-भाव के रेगिस्तान ओढ़े हुए एवं एक राजसी वैभव के अहम् के नीचे दबे हुए...। अंकल धवन एवं आंटी धवन ने हमारी तुच्छता में भी हमें गरिमा दी थी... और धीरे-धीरे जैसे हाथ-पकड़कर चलना सिखाया था...।
घर... क्या घर था उनका... इतना बड़ा राजसी घर... बडे-बड़े फानूस... मसनदी सोफे... कोई दो सीट वाला सोफा, जिसे लव सीट भी कहते थे, कोई तीन सीट वाला। पैरों के नीचे बिछे हुए नरम-नरम गद्देदार गलीचे... जो दीवारों और सीढ़ियों तक उठे हुए थे...। मुलायम इतने कि चलने पर पैर धांस जाता...। इतनी सारी कोमलता इतनी सारी सुन्दरता अनायास ही हमारे चारों ओर बिखर गई थी...। सब कुछ इतना साफ-सुथरा... इतना वैभव-पूर्ण कि पिक्चर्स् में देखे हुए घरों को भी मात करता। आर्टिफिशल मनीप्लांट की बेलें-सुन्दर कांच के गुलदस्तों में सजी हुई थीं... भिन्न-भिन्न प्रकार की लतरें, सीढ़ियों की रेलिंग से लिपटती- ऊपर तक चली गई थी। छतें इतनी ऊंची कि आकाश-की तरह नज़र उठानी पडे...। ये बच्चों के खेलने का कमरा है। यह ड्राईंग रूम, यह लिविंग रूम, ये बैडरूम... ये बच्चों के अलग-अलग बैडरूम्स, ये बेसमेन्ट... स्टोरस्-गैराज... और किचन...। मिसेज धवन हमें एक-एक करके घर दिखा रही थी...।
कहीं आंखें न टिकती थी...। हम सभी एक दूसरे को भौंचक नज़रों से देख रहे थे...। इतना वैभव, इतनी सम्पदा...। जगह-जगह ब्रास के नटराज, शिव की मूर्ति, मरियम का बस्ट, छोटे-छोटे केबिनट की तरह बने लकड़ी के मेजों पर सज रहे थे।
हर कमरे में सबका अपना-अपना साज-समान था...। कलर्ड टी.वी., टेपरिकार्डर विडियो कैसेट आदि-आदि। रसोई घर में माइक्रोवेव, ओवन, डिशवाशर, गारबेज डिसपोजल और न जाने क्या-क्या!
मिसेज धवन बताती जा रही थी, हम सुनते जा रहे थे...। तब तो पूरी तरह समझ में भी नहीं आए थे... सब चीजों के नाम... लेकिन बाद में- तो वे नाम जैसे हमेशा के लिए मेरी जहन में खुद गए थे...। ऐसे खुदे कि फिर कभी मिटे ही नहीं। वे सारे नामो-जनित वैभव मेरी जिदंगी का मापदंड बन गए...। जीने का चौखटा बन गए... और चौखटे को बनाने की धुन में, जैसे कोई उम्र भर मेरे पीछे लगा रहा...।
जब वह चौखटा टूट गया तो जिदंगी का शीशा किरच-किरच टूटता चला गया...।
ये सब हमारे घर में भी होगा न। मैंने मां से पूछा था...।
उन्होंने पिता की ओर प्रश्न भरी नज़र उठा दी थी पिता की दृष्टि में उत्तार नहीं, विस्मय था...।
मेज पर अनगिनत प्रकार के 43 व्यंजन सजाए थे उन्होंने...। जम कर खा सकते थे हम लोग... पर झिझक और नयेपन ने कुछ करने नहीं दिया...।
दो तीन दिन हम धवन अंकल के घर ही ठहरे थे...। फिर हम अपने पहले से ढूंढे हुए घर में चले गए थे...। उनका अपने यहां ठहराना... और उन सब सुखों का हममें लालच आ जाना भी कहीं मेरी बरबादी के इतिहास के कारण रहे होंगे...।
उस सारे वैभव के सामने, देहरादून के राजा चक्रधर का महल भी कितना फीका हो गया था...। वहां के कमरे और दालान इस तरह झकझक चमकते नहीं थे...। उन गलियारों में एक अनाम अंधेरा सा बिछा रहता था। फानूस मसनदी-मखमल से गलीचे वहां भी थे लेकिन वे सब कितने पुराने हो चुके       थे... यहीं की तरह लकदक-चमचम करता हुआ कुछ भी नहीं था...। महाराज रसोई बनाते थे तो सारा धुआं गलियारों में भर जाता था। भंडार घर की दीवारें काली-धुआंसी हो गई थी...। बड़े-बड़े देगचे चूल्हे पर चढ़ते थे तो काले हो जाते थे... महाराज के कपड़े भी तो कितने तेल-चुए से हो जाते थे...। महाराज के कंधे पर लटका हुआ लाल-परना... कितनी बदबू मारता था... देसी  घी की...। यहां रसोई घर ऐसा लगता था जैसे यहां कभी कुछ बनता ही न हो...। जगह-जगह छोटे-छोटे स्टैण्ड बने हुए थे... जिन पर पेपर-टॉवल नेपकिन टंगे रहते थे...। धवन आंटी कितनी बेरहमी से उन्हें खींचती थी  और            छोटे तौलियों को बराबर फाड़ कर जरा सा हाथ-पोंछ कर कूड़े में डाल देती थी...। कैसी बरबादी करती हैं यह घर की...। शोभना और देवला दीदी की भी यही राय थी...।
राजा चक्रधर के बड़े लड़के जो मेजर और बिग्रेडियर के पदों पर लगे हुए थे... इस वैभव के सामने- वे भी पानी भरते दीखते थे...।
धवन आंटी जब चलती तो लगता कोई मेम ठुमक-ठुमक कर चल रही है...। राजमाता की चाल की गरिमा नहीं। उसमें उछलती नदी की उछामता थी, पर फिर भी ऊपर-नीचे जब वे चलती-फिरती तो लगता कोई राजरानी अपने महल में पूरे अधिकार से घूम रही है। उनका स्वभाव भी तेज नहीं था लेकिन चाल में एक अहम् था... एक सलीका था.. कि मेरी अल्हड़ उम्र के लिए ये सारे-सलीके पैने-छुरे से मेरे अन्दर घुसते जाते थे...। तो यह होता है विदेश.. तो यह होती है विदेश में रहने की ठसक... इसी से जब लोग वापस              देश जाते हैं तो किसी से बात करना अपनी हेठी समझते हैं...। क्यों न          समझें...। उन्हें पूरा हक है यह समझने का...। इस सब का कहीं स्वजन भी देखा जा सकता है यहां...।
उस दिन रात को लिविंग रूम में गप्पे मारते, टी.वी. देखते, खाते-पीते अनचाहे भी कई छोटे-छोटे तिनके गलीचे पर बिखर गए थे...। सुबह मां          उन्हें हाथ से बीनने लगी... तो मिसेज धवन ने कहा- कुन्ती यों नहीं ये वॉक्यूम से साफ होगा... और वे अन्दर से एक मशीन सी ले आई...। स्विच लगाकर उसके हत्थे को टेढ़ा करके वह उसे गलीचे पर घुमाने लगी... और .... यह क्या था... सभी भौच्चक देख रहे थे... और गलीचा फिर नया का नया चमकदार हो गया था...।
हमारे लिए यह सब सपनों का वह धु्रव था जिस की कल्पना भी हमने नहीं की थी...।
राजमाता की सारी सम्पदा, उसकी सुन्दरता यहां हवा हो गई थी...। राजमाता का महल, राजा चक्रधर का भव्य-व्यक्तित्व कहीं इस नए वैभव के नीचे तिरोहित होने लगे थे...। उनके यहां खाए 43 व्यंजन, उनके यहां खेले गए बचपन के पुराने खिलौने... दूर-दूर से देख कर तरसने वाले ऊंची छतों वाले, मीनारों वाले दालान कहीं अमेरिका की इस मशीनी-कमाल में खोने लगे थे...।
मैं तो कहीं बावली हो गई थी...। मैं हैरान थी कि मां पिता देवला और शोभना ने कैसे हर चीज को सहजता से लिया था...।
क्या उन्हें सब कुछ पहले से मालूम था...? उन्हें तो हर चीज जैसे ऊपर छू कर निकल गई थी... और मैं... मैं तो जैसे विष्णु की तरह लक्ष्मी को कांख में दबाए... सारा अमृत पिए जा रही थी...।
मैंने अपनी हिन्दी की पाठय-पुस्तक में पढ़ा था कि देवता लोग कभी स्वर्ग तो कभी धरती लोक में विचरते रहते थे...। यों स्वर्ग ही देवताओं का असली वास था...। वहां किन्नर बालाएं, अपसराएं उनका मनोरंजन करती थीं। वहां नंदनवन था जो सदा हरा रहता था...। वहां कामधेनु गाय थी जो सभी इच्छाओं को पूरा करती थी। मुझे लगा, विमान से बुत ऊंचे उड़कर, बड़े-बड़े पहाड़ों और धरती के टुकड़ों को लांघ कर हम भी स्वर्ग लोक में आ गए थे... जहां अप्सराओं की तरह सुन्दरियां चारों ओर विचरती थीं...। कामधेनु गाय की तरह इतना धन-धान्य था कि सब अपने स्वपनों की पूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए थे...।
क्या स्वर्ग वही नहीं होता... जहां मुस्कराते चेहरे बिना नकाब लगाए... एक मुक्त जीवन जीते हैं...? वहां के लोग ऐसे ही तो थे...।
हमारे देश में जो कुछ अंधेरे में होता है, वह सब यहां मुक्त होकर उजाले में होता है। यहां छिपाव-दुराव धोखा और भ्रम नहीं था...। वहां पिछले दरवाजे से किसी को बांहों में छुप के नहीं भरा जाता था। मनचाहा तो खुलेआम उसे बाहों में भर कर प्यार कर सकते थे...।
कितना अन्तराल था दो स्थितियों में...।
यही नहीं, वहां जब कोई भी अमेरिकन मिलने आते या हम लोग जाते, तो वे आपस में गले-मिलकर गाल पर एक दूसरे को चूमते और पुरुष लोग बिल्कुल हम जैसे पराए देश की औरतों के साथ हाथ मिलाते थे। मां कितना झिझकती थी और पहले ही हाथ जोड़ देती थी... लेकिन धीरे-धीरे मां भी खुल गई थी...। उस मिलाप में इतना अपनापन लगता था मुझे, कि दूर से नमस्ते में हाथ-जोड़ने की प्रथा मुझे फीकी लगने लगी थी...।
वही खुलापन और स्वछन्दता मेरी नियति के कोढ़ बन कर आज तक मुझे साल रहे हैं। कहीं पृथ्वी के ही एक कोने में वह सब व्यक्ति का अधिकार है और कहीं वही स्वछन्दता चरित्रा का मानदंड बन जाती है।
मेरा यही अभिशाप है कि मैं अपने देश की लकीरों के बीच और पाश्चात्य-स्वच्छंदता के बीच कहीं सीमा-रेखा नहीं खींच पाई...।
मेरे पिता ने अपनी जवानी के कुछ वर्ष देहरादून के राजा चक्रधर के यहां शाही-दरजी के रूप में बिताए थे...। मेरी मां एक अमीर लेकिन अभिशापित मां की बेटी थी... एक ऐसी मां की, जिसे स्वयं उम्र भर मालूम नहीं पड़ा कि उसके लिए जिदंगी का मतलब क्या है...? वह विधवा होने के बाद हमारे संग रह कर अपना जीवन काटती रही। मैं अपनी नानी की लाड़ली रही हूं...। घर में जो कहानी मेरे जन्म की किवदन्ती के साथ जुड़ी हुई थी उसे मेरी नानी ने ही एक दिन मुझे सुनाया था...।
अपने जीवन की कहानी भी उसने उसी दिन सुनाई थी... जिस दिन मैं बार-बार घर लौटना चाह कर भी कोई राह नहीं खोज पाई थी और अन्तत: नानी को अकेले में मिलने चली आई थी...।

श्रीनगर की एक बस्ती नरसिंहगढ़ में एक छोटी सी अल्हड़ किशोरी अपने मकान मालिक के लड़के रत्न के साथ खेलती रहती थी...। मस्त होकर... खेलती.. खाती...पीती और निर्द्वंद होकर घूमती फिरती...। दोनों मिलकर ऊधम मचाते, गली में आए चेरी बेचने वालों से उछल-उछल कर चेरी खरीदते, ढापोन्स (सौदे के बाद अलग से डाली हुई थोड़ी सी मुक्त चीज) मांगते और पाने के बाद हंसते-हंसते फिर गलियों में खो जाते...। कभी अपने बाबा के साथ तो कभी उसके बाबा के साथ काश्मीर की उन रंगीन-वादियों में हाथों में हाथ डाले घूमते। कभी हब्बा कदल तो कभी अमीराकदल... पैदल चल कर घर के लिए खताईयां, चैरी तो कभी दही के दोने भर कर लाते...। चश्मे-शाही की फुहारों में उतर-उतर एक दूसरे पर पानी उछालते, पानी पीते और चोरी-छुपे आड़ू खुरमानी, आलुबुखारे के दरख्तों पर चढ़ते-उतरते...। घर के लोगों के साथ आए हैं, ये भी भूल जाते...। घर के लोग कहीं हरी मखमली दूब पर बैठे करतबों पर हंसते रहते...।
जैसे ही बारह वर्ष की हुई... पिता ने मेरी सगाई देहरादून के एक माने हुए दर्जी घराने में कर दी... घर जमीन-जायदाद से मालामाल था। गांव में तीन तो कुंए ही थे उनके अपने...। कश्मीर के सेवों में पली-लाल कचनार सी खिली उन्हें देखते ही भा गई थी मैं...। लड़का पढ़-लिखकर कुछ बनने के स्वप्न देखता था...। लेकिन इकलौता होने के कारण अंत तक दसवीं के बाद घर की ही देखभाल करता रहा...।
रत्न को जब मालूम हुआ तो बहुत खुश हुआ...। अरी शाहनी बनने जा रही है...?
सुना है बड़े अमीर हैं... तेरे ससुराल वाले...?
सहज मुस्कान लिए वहां से दौड़ आती थी... कहीं एक अतिरिक्त झिझक एवं शर्म मेरे हाव-भाव में आ गई थी...।
रत्न को अटपटा लगा था... लेकिन अन्यथा कुछ भी उसके मन में नहीं आया था...।
एक दिन काश्मीर की वादियों को छोड़ आई थी...। मां से चिपक कर  बहुत रोई थी... और जिद-करती रही थी कि... तुम भी साथ चलो... रत्न को भी साथ ले चलो...। वहां किस के साथ खेलूंगी...। रत्न भी अपने बाबा के साथ रुआंसा खड़ा यही जिद कर रहा था... उसके बाबा की आंखें भी बराबर बह रही थी...।
उस अल्हड़ लड़की को क्या पता था कि इस राह पर उसे अकेले ही जाना है...। उसकी उम्र तेरह पार कर रही थी...। सच-झूठ की तमीज अभी कहां आ पाई थी...। मैं अक्सर पति से रत्न की बातें करती रहती। पति भी चुपचाप सुनते रहते। कभी यह नहीं जाना कि जिस रास्ते पर रत्न अब खड़ी है उस पर पिछली लकीरें दरारें बन जाती हैं।
एक दिन रत्न की बात पर उन्होंने तड़ाक से एक थप्पड़ मेरे गाल पर जड़ दिया था... और साथ ही 'छिनाल' शब्द हवा में उछाल कर वह डयोड़ी लांघ कर चले गए थे...।
एकाएक कुछ भी समझ नहीं आया था...। जिस रत्न को वह अक्सर याद करती रही है। जिसके साथ खेलती, खाती कूदती रही है उसी के नाम पर आज अचानक यह थप्पड़...। पहले तो कभी पति ने ऐसा नहीं किया था...।
फिर धीरे-धीरे उनकी विमुखता से 'छिनाल' शब्द अपने सौ-सौ अर्थों में खुलने लगा था। अन्दर ही अन्दर ज़हर घुलने लगा था... और ऐसे क्षणों में, मैं अपने छोड़े हुए रत्न को मिलने के लिए उतावली हो उठी थी...।
अब रत्न के साथ खेले गए खेल... उन वादियों में मिलकर गाए गए कश्मीरी टप्पे... सौ-सौ इंगितों से मेरी उम्र को बुला रहे थे...। मैं बाहें फैलाए उन वादियों को बाहों में भरने को अकुलाने लगी थी। लेकिन रत्न शब्द हलक में उठते ही 'छिनाल' शब्द के साथ गड्मगड होने लगता था...।
कुछ भी तो नहीं कह सकती थी...। लगता था मेरी उम्र... मेरे सपने...        मेरे जीवन के बंसत सब उस देहरादून की हवेली में कैद होकर छटपटा रहे हैं...।
एक बार पिता लेने आए थे...। मां ने प्यार भरी मनुहारों के साथ सेवेंइया, नान खताईयां और काश्मीरी बादाम भेजे थे... और साथ ही भेजा था एक छोटा सा प्यारा पैन... और कहा था- इस पैन से जब भी हमें चिट्ठी लिखे- रत्न को भी नमस्ते लिखे... यह पैन रत्न ने ही उसे भेजा था...।
उन सब चीजों के ऊपर वह पैन अपनी जिस मस्ती से पड़ा था... उसे क्या मालूम उसने किसी की जिदंगी के कितने इतिहास अपने में बंद कर रखे हैं...। पिता के बहुत कहने पर भी मेरे पति ने मायके भेजना मंजूर नहीं किया था... कहा था- इकलौता हूं न...। सारी जिम्मेवारी मुझ पर है...। घर मे ंयह न रहेगी तो मेरा बाहर भी चौपट हो जायेगा...।
मैं परम्परागत नारी की महिमा ओढ़े चुपचाप इस फैसले को अपनी सिसकियों में दबा गई थी...।
पिता भी लड़की के पिता होने के अपराध-भाव से झुके-झुके बिना मेरी ओर देखे चले गए थे...।
उसके बाद तो बहुत कुछ घट गया था... वह सब इतनी तेजी से घटा कि स्थिति को समझने का भी समय नहीं आया...।
एक दिन घर से तार आया था कि जानकी को जल्दी भेज दो...।
पति ने भी तार को गंभीरता से लिया था और मुझे किसी हरकारे के साथ भेज दिया था...।
वह श्रीनगर का सफर, वे बलखाती सड़कें... वे चिनार और सफेदे के महकते पेड़... आज भी कहीं मेरी मानस-आंखों में थिरक रहे हैं...। लेकिन उस दिन काश्मीर का सौन्दर्य नहीं... पिता की तार का कल्पित हादसा मुझे बेंधा रहा था...।
रास्ते भर मैंने कुछ नहीं खाया था। बटोट में सभी यात्राी उतरे थे... होटल के गलियारे से वही पुरानी सौंधी-महक उठ-उठ कर बार-बार मेरे नथुनों को जगा रही थी... कहड़ी-चावल... बाखर-खानियां चाय-काश्मीरी चाय की गुलाबी महक... और न जाने क्या-क्या...।
पर मेरी आंखें में मां, भैय्या और बड़ी दीदी की मृत प्राय मूतियां बार-बार तैर जाती थी...। पिता अगर एक पंक्ति और लिख देते कि मां बीमार है या कोई और... तो मेरी सारी संवेदना- क्यों बार-बार सबके आसपास अपशकुन सी चक्कर काटती...। रत्न का चेहरा आंखों में तैरता तो एक वर्जना... गले में फांस बनकर रुक जाती...।
वहां पहुंच कर जो कुछ देखा था वह तो कुछ और ही था...। सबके चेहरे उतरे हुए थे... जैसे कालिमा पुते हों... लेकिन सब के सब स्वस्थ थे...। मेरी अतिरिक्त आवभगत हो रही थी...। मेरी थकावट उतारने के लिए काश्मीरी चाय और बंद परोसे जा रहे थे...। मैं कुछ भी न पूछ पा रही थी... केवल अन्दर ही अन्दर आश्वस्त हो रही थी कि सब कुछ ठीक है और मुझ से मिलने का ही यह एक ढंग निकाला गया होगा...।
एकाएक विशना भैय्या (रत्न के बड़े भाई) दौड़ते हुए अन्दर आए और लपकते हुए मेरे गले से लिपट कर रोने लगे...। मैं उस लंबे अंतराल             और लिपटने के प्रवाह में बह गई थी। मेरी आंखें भी अवरुध्द बाढ़ तोड़ रही थी...।
तभी एकाएक मां ने खींच कर मुझे गले से लगा लिया था और कहा... जानकी... तेरा रत्ना... मर गया... री... तेरे कारण... तेरे लिए... और सारा घर जैसे इस इंतजार में था कि फूट-फूट कर सभी रोने लगे...।
उस दिन मेरे काश्मीर के घर की दीवारें हिली थीं और गिर गई थीं... मीनल...
लगता है आज तक मैं उस मलबे के नीचे दबी पड़ी हूं... और मुझे निकालने वाला रत्ना चला गया है...।
मैं बकर-बकर नानी की गीली आंख देखती रह गई थी और सोच रही           थी... नानी अपने अभाव में भी भरी हुई है...। काश! कहीं मेरे पास भी एक रत्ना होता...।
मेरे पति ने न जाने कब और कैसे रत्ना के बाप को एक ऐसा शर्मनाक पत्रा लिखा था कि उसमें मेरे माता-पिता और रत्न को उसके माता-पिता समेत पुश्त-दर-पुश्त गालियों में पिरो दिया था... और साथ ही जो कुछ मेरे बारे में लिखा था... वह किसी भी मां-बाप के लिए मर जाने की बात थी...।
पत्रा की सारी लानत-सलामत के बाद रत्ना मां के पास आया और मां के पैरों पर झुक कर बोला था- मां जानकी को कहना- मुझे माफ कर दे।         मुझे तो इस बात की तमीज ही नहीं थी कि मैं उसके लिए खुशी का कारण बनता... उल्टा उसके दु:ख का कारण बना हुआ हूं...।
मां ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था- रत्ना तुम दोनों मेरे सामने होकर भी मिट्टी में मिल गये... यह सब मैं सोच न सकी... जरा भी सोचा होता तो यह सब न होता बेटे...।
रत्ना और हमारे घर का इतना मेल-जोल सारी हवेली में चर्चा का विषय था...। एक ही आंगन, एक ही गलियारा... जिस में हमारा सारा बचपन बीता था...। बहिन-भाईयों जैसा उठना-बैठना... खाना-पीना चलता था... कभी किसी ने क्या... हमने भी ऐसा नहीं सोचा था।
बिछुड़ने पर पीड़ा का आभास हुआ था जरूर, पर उस पीड़ा का कोई नाम नहीं रखा था मैंने...।
पति की लांछना ने उस पीड़ा को एक दिन नाम दे दिया था...।
जब हमारे देश में शादियां तय हो जाती हैं तब एकदम अच्छे-बुरे, अपने-पराये की पहचान ही कहां हो पाती है-बेटियों को...। मेरी शादी भी कहीं मेरे दादा ने ही बहुत पहले तय कर दी थी...।
मां को जरा भी संदेह नहीं हुआ था कि रत्ना अपने मन में कुछ अन्यथा धरे हुए है। उसकी अठारह साल की अल्हड़ उम्र और उस पर किशोर उम्र की वह चोट... जिस की तमीज ही हादसा गुजरने के बाद आई...।
उसी दिन उसी मानसिक-उत्पीड़न में रत्न ने जेहलम में छलांग लगा ली थी...।
वह अमीराकदल से कश्ती लेकर दूसरे पार चला गया था... वहां तैरने का भी एक छोटा सा तालाब बना हुआ था...। उस से आगे जाकर जेहलम पुल के नीचे से गुजरती और गहरी-तर गहरी होती जाती थी...। मछुआरों ने देखा था... उसे बहते हुए... बहुत हाथ-पैर भी मारे थे... जाल फेंके लेकिन रत्न सब जालों के पार चला गया था...।

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