कसौटी : भोजपुरी लोककथा पुनर्रचना तथा सफेद से कुछ दूरी पर पीला रहता था


मनुष्य की स्थितियां दिखाती कथाएं -ऋषि कुमार चतुर्वेदी

वरिष्ठ कथाकार मिथिलेश्वर ने इस पुस्तक में इक्यावन भोजपुरी लोककथाओं की पुनर्रचना खड़ी बोली में की है। ये लोककथाएं उन्होंने भोजपुरी लोकसाहित्य के विशाल भंडार में से चुनी हैं। पुस्तक के आरंभ में भोजपुरी भाषा के साहित्य का परिचय दिया है। इस भूमिका में उन्होंने बताया है कि भोजपुरी में ईश्वर भक्ति या ईश्वर की अनुग्रह प्राप्ति से एवं प्रचलित व्रतों से सम्बन्धिात लोककथाओं के अतिरिक्त मनुष्य-दानव सम्बन्धों तथा परियों से सम्बन्धित लोककथाएं भी मिलती हैं, किन्तु इस संकलन के लिए उन्होंने किसी प्रकार की लोककथा को नहीं चुना है। प्रस्तुत संकलन की कथाएं प्राय: मानव के पारस्परिक सम्बन्धों, व्यवहारों और स्थितियों का निर्देशन करती हैं, जिनमें कोई न कोई मूल्य सम्बन्धी सत्य निहित रहता है।
ये लोककथाएं बताती हैं कि व्यक्ति के अपने समझे जाने वाले लोग ही पलक झपकते उसका गला दबाकर अपना हित साधन करने को तत्पर बैठे हैं अत: उसे बड़ी सावधानी से बुध्दिपूर्वक जीवन पथ पर आगे बढ़ना है। संकलन की अनेक कहानियां मित्रों के परस्पर विश्वासघात पर केन्द्रित हैं। 'चार चोर' परस्पर विश्वासपूर्वक रहते हुए अपना काम करते रहते हैं, किन्तु जब उनकी नीयत में खोट आ जाती है तो चारों मारे जाते हैं। 'चिट्ठी' में दो मित्रा एक साथ धन कमाने निकलते हैं। एक, दूसरे को मारकर उसका धन छीन लेता है किन्तु अंत में वह भी मृत्युदंड को प्राप्त होता है। विश्वासघाती या तो इसी प्रकार अपनी मौत करता है या फिर बदले में स्वयं भी विश्वासघात की चोट खाता है। लोककथाकार शठे शाठयं समाचरेत की नीति पर विश्वास करता है। 'ऊंट फूंट और सियार' में सियार ऊंट को अपनी धूर्तता से विपत्तिा में डाल देते है तो ऊंट उसे बीच नदी में डुबो देता है। 'बंदर और मगरमच्छ' में भी यही स्थिति है। 'जोड़ का तोड़' में कचरेवाला, झाड़ूदार को ब्लैकमेल करना चाहता है तो झाड़ूदार भी उसकी पोल खोलने की धमकी देकर उसका मुंह बंद कर देता है। 'लेनी की देनी' में दो मित्रा परस्पर कपट करके धोखा खाते हैं। अंत में उन्हें सद्बुध्दि आती है और वे समझ जाते हैं कि इसमें दोनों का नुकसान है और धोखे बाजी अच्छी बात नहीं है। 'बंटवारा' के बड़े भाई को भी अंत में सबक मिल जाता है कि छोटे भाई को भोला समझकर उसका दोहन करके वह गलती पर था। 'जैसे को तैसा' में राजकुमारों और राजकुमारियों के बीच जो प्रतिशोधा की भावना दिखाई देती है, उसमें श्रृंगार और हास्य का अद्भुत मेल है। दूसरी ओर 'कछुआ कौआ और हिरन' की मैत्राी परस्पर विश्वास पर आधारित है। ये तीनों सच्चे मित्रा हैं और अपने बुध्दिबल से परस्पर सहायता करते हुए सुरक्षित जीवन व्यतीत करते हैं।
बुध्दिबल पर लोककथाकार का अप्रतिम विश्वास है। 'गुरुजी का चक्कर' में पत्नी अपने नासमझ पति को युक्तिपूर्वक पाखंडी साधु से छुटकारा दिलाती है। मिस्त्राी की चतुर लड़की अपने बुध्दि कौशल से पति और पिता के बीच वैमनस्य दूर करती है। 'ककड़ी की चोरी' में अकेला बिगन चार चोरों को परास्त कर देता है। 'बुढ़िया की लड़की' में बुध्दिकौशल के साथ-साथ अदम्य साहस भी है जिसके बल पर वह बुरी नीयत से घर में घुस तीन गुंडों को मौत की नींद सुला देती है। बुध्दिकौशल के साथ यदि अन्य गुणों का भी योग हो तो व्यक्ति में अद्भुत आत्मविश्वास आ जाता है।
जहां व्यक्ति बुध्दि के स्थान पर आवेश से प्रेरित होकर बिना सोचे विचारे कोई काम कर बैठता है वहां अन्त में पश्चाताप ही हाथ लगता है। 'निहोरा का नेवला' में निहोरा अपने वफ़ादार नेवले को, 'बंधकी' का जगत अपने स्वामिभक्त कुत्तो को, 'माहूर फल' का राजा अपने बुध्दिमान तोते को गलतफहमी के कारण आवेश में आकर मार देता है और अंत में इन निरीह प्राणियों के गुणों की याद करके विलाप और रुदन ही उनके जीवन में शेष रह जाता है।
लोककथाएं हमें बताती हैं कि धूर्तता और मक्कारी का फल कभी अच्छा नहीं होता। सियार को इन कथाओं में प्राय: धूर्तता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसके चलते उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ जाता है। 'सुकन गदहा' अपनी धूर्तता से कामचोरी करके प्रसन्न होता है किन्तु अंत में इसी प्रवृत्ति के कारण शेर का शिकार बन जाता है।
ये लोककथाएं दिखाती हैं कि परोपकार का फल सदा अच्छा होता है (लकड़हारा और सॉप)। इसके विपरीत दूसरे को हानि पहुंचाने की नीयत से किया जाने वाला काम अनिष्टकारी होता है (बुढ़िया और पागल)। सत्संगति से दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति भी सुधर जाते हैं और सच के रास्ते पर चलने वाला व्यक्ति अंतत: सुखी होता है (सच के रास्ते पर)। ईमानदारी और स्वधर्म के प्रति निष्ठा सदा शुभ फल ही देती है। लालच कभी अच्छा नहीं होता (मणिवाला सांप)
इन कथाओं में ऐसे भी मनुष्य और पशु-पक्षी हैं जो एक दूसरे की भाषा समझते हैं। 'टिपटिपवा' में शेर, मनुष्यों की भाषा समझता है किन्तु यही समझ उसके लिए विपत्तिा का कारण बन जाती है। 'जंबूक बोला यह गति तू का बोला काग' की लड़की भी अपने इस भाषाज्ञान के कारण कष्ट भोगती है किन्तु अंत में यही ज्ञान उसके कष्टों से उध्दार का कारण बनता है। वास्तव में कष्ट का कारण भाषाज्ञान नहीं, उससे उत्पन्न भ्रम की स्थिति है। शेर के प्रसंग में भ्रम का निवारण नहीं हो पाता, लड़की के प्रसंग में हो जाता है और उसके दु:ख दूर हो जाते हैं।
'कौआ हंकनी' में एक बात और देखते हैं जो लोक कथा शैली की प्रमुख विशेषता है और वह है किसी चुभती हुई बात का चमत्कारी प्रभाव। राजा के इस प्रश्न पर कि 'भला माटी का हाथी भी पानी पी सकता है' बच्चों का यह प्रतिप्रश्न कि 'भला रानी के पेट से ईंट-पत्थर पैदा हो सकते हैं', राजा की आंखें खोल देता है, और 'कौआ हंकनी' बना दी गई रानी फिर से अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेती है। 'बाप और बेटा' में पलटू अपने बूढ़े अशक्त पिता से छुटकारा पाने के लिए उसे दफ़नाने के विचार से गङ्ढा खोदता है। दूसरी ओर पलटू का छोटा-सा पुत्रा भी गङ्ढा खोदने लगता है और पूछने पर कहता है, 'जब आप भी बाबा जैसे बूढ़े हो जाएंगे तो इसी गङ्ढे में आपको धकेल दूंगा।' इस उत्तार से पलटू के ज्ञान पक्षु खुल जाते हैं और उसके पिता के सुदिन फिर लौट आते हैं। 'मौलवी साहब का बंधना' में मौलवी साहब का उत्तार सुनकर पथभ्रमित रानी को सद्बुध्दि आ जाती है।
वाग्वैदग्ध्य की तरह क्रियावैदग्ध्य भी एक उपाय है जिसका सहारा लोककथाकार अपनी बात को असरदार ढंग से संप्रेषित करने के लिए लेता है। यह क्रिया रहस्यमय होती है और किसी के समझाने से ही समझ में आती है। 'संग साथ' में राजा अपने पुत्रों को आपस में सलाह से रहने की सीख देना चाहता है। वह अपने पलंग के चारों पायों के नीचे एक-एक गगरा गड़वा देता है। राजा की मृत्यु के बाद उन गगरों में से निकाली सामग्री का अर्थ मंत्राी और पंडित बुझाते हैं उससे राजपुत्रों को समझ में यह बात आ जाती है कि आपस में मिल जुल कर रहने के सिवा और कोई चारा नहीं है। 'बुध्दि की कमाई' के राजकुमार रास्ते में मिले चिह्नों से पता लगा लेते हैं कि इधर काने ऊंट पर बैठकर कोई गर्भवती स्त्राी गई है। बाद में वे राजा के सामने इसका खुलासा करते हैं। 'अबूझ पंडिताई' में नरमुण्डों के कान में सींक डालकर उनकी बुध्दिमत्ताा और अबुध्दिमत्ताा का पता लगाने की क्रिया पंडित को सियार के द्वारा मालूम होती है जो सात पंडितों की जीवन रक्षा का कारण बनती है। इस तरह की स्थितियों की रचना करके कथाकार एक औत्सुक्य की सृष्टि करता है फिर उसका खुलासा करके उसका मूल्यपरक समाधान करता है।
लोककथाकार जानता है कि जीवन में केवल मानव सुलभ उपायों से सभी काम नहीं बनते, कभी कभी संयोग ऐसा बनता है कि जहां आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती वहां भी रास्ता निकल आता है। 'संयोग' कहानी इसका एक अच्छा उदाहरण है जिसमें कुछ ऐसे संयोग घटित होते हैं कि गांव का सीधा सादा पंडित राजा बन जाता है। 'अबूझ पंडिताई' में युवा पंडित अपनी जान बचाने के लिए घर छोड़कर जा रहा है। रास्तें में सियार और सियारिनी की बातचीत से उसे राजा के प्रश्न का रहस्यपूर्ण समाधान मिल जाता है और उसका विषाद हर्ष में बदल जाता है। 'बुध्दि की कमाई' के राजपुत्रों के साथ भी ऐसे ही संयोग घटित होते हैं जिससे वे मणियों के साथ-साथ राजपुत्रियों से विवाहित होकर घर लौटते हैं। संयोग का ऐसा उपयोग अन्य कहानियों   में भी देखा जा सकता है। संयोग से कभी-कभी विडंबनापूर्ण स्थिति का         निर्माण होता है जैसे- पागल को मारने के उद्देश्य से बुढ़िया जहरीली रोटी   देती है, किन्तु अंत में वही रोटी खाने से उसका पुत्रा मर जाता है। आत्महत्या करके अपने कष्टों का अंत करने के लिए वृध्द दम्पत्ति 'माहूर फल' खा लेता है किन्तु इससे उनका कायाकल्प हो जाता है क्योंकि वास्तव में वह अमृतफल था।
लोककथाओं की एक विशिष्ट शैली वहां दिखाई देती है जहां कथा कार्यकारण की श्रृंखला में बंधी हुई आगे बढ़ती है और एक बिन्दु पर पहुंचकर या तो वहीं समाप्त हो जाती है या पीछे की ओर लौटकर फिर उसी आरंभिक बिन्दु में समा जाती है। ऐसी दो कथाएं इस संकलन में हैं- 'चिड़िया का संघर्ष' और 'बटेर और कौआ'। चिड़िया चक्की के जांते में से अपना दाना पाने के लिए बढ़ई, राजा-रानी, सांप आदि से फ़रियाद करती है, कोई नहीं सुनता किन्तु अंत में ऐसा सुयोग बनता है कि सब काम अपने आप बनते जाते हैं, कथा तेज़ी से पीछे लौटती है और चिड़िया अपना दाना पाने में सफल होती है। उसकी मेहनत की कमाई जो थी। इस प्रक्रिया में किसी का अहित भी नहीं होता। किन्तु दूसरी कहानी का लालची कौआ, बटेर के बच्चों को खाना चाहता है। उसकी प्रयास श्रृंखला पीछे नहीं लौटती एक बिन्दु पर आकर उसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो जाती है क्योंकि यदि वह बटेर के बच्चे पाने में सफल हो जाता तो बटेर का अनिष्ट होता।
इन कथाओं में 'अंधेरपुर नगरी' भी शामिल है जिसे भारतेन्दु ने सर्वथा एक नया रूप देकर अमर कर दिया है। 'रंगे सियार' वाला मुहावरा 'गड़ेरिया सियार और बाघ' वाली कहानी के आधार पर ही बना होगा। रहीम के दोहे 'मलयागिरि की भीलनी चंदन देत जराय' का बीज 'राजा और लकड़हारा' की कथा में ढूंढा जा सकता है। उस पद की रचना करते समय सूर के मन में 'चिड़िया का उपकार' जैसी किसी लोककथा की छाया रही होगी जिसमें उन्होंने किसी भक्त को यह कह कर भगवान की जय जयकार करते दिखाया है कि उसने ऊपर मंडराते बाज़ और सामने निशाना साधे शिकारी से एक साथ पक्षी की रक्षा की। सूर का उद्देश्य भगवद्भक्ति और कृपा की व्यंजना करना है। लोककथाकार यह बताना चाहता है कि समाज में हम एक दूसरे के प्रति उपकार और परस्पर रक्षा करते हुए ही सुखी हो सकते हैं।
इन कथाओं की अपनी दुनिया है जिसमें हम कथाकार की शर्तों पर ही प्रवेश करने के अधिकारी हो सकते हैं। वहां हमें यह मान लेना होगा कि पशु-पक्षियों की भाषा समझने वाले मनुष्य भी होते हैं, हिरन और कौए की दोस्ती हो सकती है और वे एक दूसरे की बोली समझ सकते हैं, चिड़िया चक्की में से अपना दाना निकलवाने के लिए कितने-कितने लोगों के पास जा सकती है आदि, क्योंकि कथाकार की दृष्टि घटनाओं की संभाव्यता, असंभाव्यता पर न होकर किसी ज्यादा बड़ी चीज़ पर है और वह है मूल्यगत सत्य। वह यह बताना चाहता है कि इस कंटकाकीर्ण जगत् में अपनी निर्मल बुध्दि, ईमानदारी और साहस का सहारा लेकर चलने वाला व्यक्ति ही सफल हो सकता है, इसके विपरीत आचरण वाला व्यक्ति दु:ख भोगता है।
मिथिलेश्वर का यह प्रयास हिन्दी में सर्वथा नूतन है, और इसका स्वागत होना चाहिए।
95, तिलक नगर, रामपुर- 244 901

जीवन के रंग और संघर्ष की कविताएं - किरण अग्रवाल

'सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला रहता था' सुपरिचित कवि संजीव बख्शी का चौथा कविता संग्रह है जो हाल में ही मेघा बुक्स से आया है। एक सौ छत्तीस पृष्ठों में फैले इस संग्रह में कुल तिरसठ कविताएं हैं। जिनकी पृष्ठभूमि उनकी पूर्व कविताओं की ही भांति पहाड़ी गांव और वहां का दैनंदिन जीवन है अपने नैसर्गिक रंगों और संघर्षों के साथ।
इस संग्रह तक आते-आते कुछ और मेच्योर और तटस्थ हो गया है कवि पहले जहां विकास के नाम पर भोले-भाले ग्रामीणों और प्राकृतिक सम्पदा का दोहन होता देख कवि मुखर हो उठता था ग्रामीणों को आगाह करता हुआ या उनके पक्ष में लड़ता हुआ, अब जैसे उसने कम या ज्यादा स्थिति विशेष के साथ जीना सीख लिया है। फिर भी एक नि:शब्द तड़प है जो 'जंगल का सागौन' सरीखी कविताओं में उभर आती है- ''दिखाए जाते हैं/सर्कस में जंगल के शेर आज/बहुत कुछ उनके बारे/बताया जाता है/कल सागौन, शीशम दिखाए जाएंगे/साथ में रखी जाएगी वह मिट्टी, बताया जाएगा/सागौन, शीशम उगा करते थे/इसी मिट्टी में/देखने की लगेगी टिकिट/बच्चे पास जाकर ढुएंगे, देखेंगे/कहेंगे पापा-पापा/जंगल का सागौन/जंगल का शीशम/हमने छू लिया/हम डरे नहीं।''
जीवन की छोटी-छोटी बेमानी सी प्रतीत होने वाली चीजों में कविता ढूंढ निकालते है संजीव बख्शी। एक क्षण को लगता है कि क्या यह कविता है! दूसरे क्षण लगता है यही तो कविता है जो जीवन से लापता होती जा रही है आज जिन्दगी की अंधी दौड़ में। विलियम बर्ड्सवर्थ ने एक जगह लिखा है, To me the meanest flower that blows can give/ thoughts that do often lie too deep for tears. संजीव के लिये भी तुच्छ से तुच्छ वस्तु, प्राणी, घटना इतनी करूणापूर्ण या हृदयस्पर्शी हो उठती है कि वह कविता में ढल जाती है चाहे वह मुंह अंधेरे ताजा अखबारों का पुलिंदा लिये साइकिल से एक निश्चित यात्रा पर निकल जाता हॉकर हो या समय का पाबंद घर-घर सबकी चिट्ठी पहुंचाता डाकिया, दीवार पर निकल आया पीपल का छोटा सा बिरवा हो या एक चुहिया और उसके नन्हें बच्चे, पंडित जसराज का कोई दर्द भरा गीत सुनना हो या जूता पहनना और उतारना जैसी अति सामान्य क्रिया, चाहे बस्तर के बाजार में पपीता बेचती हड़मी हो या फिर बस्तर के जंगल में मौहा के पेड़ से झरता मौहा।
जंगल और पहाड़ अपने पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों, अपने बादलों, चिड़ियों के गान, अपनी नदियों, टीलों, अपने हफ्ते का बाजार, अपने सपनों, अपने विविध रंगों और सुगंधों के साथ संग्रह में फैले हुए हैं। इस दृष्टि से 'एक पहाड़ी नदी', 'मैं एक छोटा एक बन जाना चाहता हूं,' 'सपनों की नदी सपनों का पहाड़', 'घड़ी का सेकेंड वाला कांटा', 'मुख्य धारा', 'एक चित्रा में', 'बस्तर का हाट', 'हफ्ते की रोशनी', कांकेर के पहाड़', 'मौहा जाड़ा', 'मुझे जंगली कहो' और 'जंगल का सागौन' सरीखी कविताएं दृष्टव्य हैं।
स्थल-स्थल पर एक सामान्य जीवन की पैरवी करते दिखायी देते हैं संजीव बख्शी। मसलन 'नाउ धोबी बंद' कविता में वे कहते हैं-
''महत्वपूर्ण होता है इस कदर सामान्य जीवन जीना
वह नहीं जानता था।'' (पृ. 69)
बेशक कष्टों से ही क्यों न घिरा हो, कवि के लिये सामान्य जीवन ही वांछनीय जीवन है क्योंकि-
''सामान्य होता है सबसे सुन्दर
सामान्य हो जाना सबके साथ हो जाना होता है
उसे अपनाना सचमुच सहज को अपनाना है'' (तय धुन- एक/22)
और कवि स्वेच्छा से सहज को अपनाता है और इच्छा जाहिर करता है-
''बहुत छोटे-छोटे एक के साथ
मैं भी छोटा एक बन जाना चाहता हूं'' (मैं एक छोटा एक बन जाना चाहता हूं/63)
इन कविताओं में छत्तीसगढ़ की स्थानीय खुशबू को तीव्रता से महसूस किया जा सकता है। कई बार संजीव बख्शी पुराने दिनों की यादों में खो जाते हैं जिसमें एक नोस्टाल्जिया भी मिला हुआ है। कुछ बहुत सम्हाल कर रखी गई पुराने अग्रज कवियों की चिट्ठियों को पढ़ते हुए वे लिखते हैं- ''अभ्यास करें सतत/शहर की नहीं तुम गांव की कविता लिखो'/सादतपुर से आती है एक चिट्ठी कहते हैं विष्णुचंद्र शर्मा/साफ साफ'' (सितार के तार/110) और शायद इसलिये वे अपनी कविता का रूख गांव की ओर मोड़ देते हैं। शहर और देश उनकी कविताओं में आता भी है तो तब जब आम के अचार की गंधा ''मल्टीनेशनल कंपनी की अचार की शीशी के/ढक्कन खुलते ही/फैल जाती है पूरे कमरे में'' और तब ''थोड़ी देर में यह कमरा बन जाता है एक शहर/फिर देश।'' (कविता में सरसों/114)
इसी कविता में कवि आगे कहता है- ''बच्चे/पीले पीले सुंदर रैपर्स को सरसों के खेत की तरह जानते हैं।'' थोड़ा रूकता है कवि और फिर जोड़ता है- ''इसमें बच्चों का क्या दोष/यह अचार बाज़ार से मैं ही खरीद कर लाता हूं प्रति माह''
ऐसा प्रतीत होता है जैसे अपनी कविता के फलक पर कवि गांव और उसकी परम्परा को बचाकर रखना चाहता है। बच्चों को तो वह दोषमुक्त कर देता है लेकिन अनजाने ही अपने आपको कटघरे में खड़ा कर देता है किसी भी तरह के परिवर्तन का विरोधी बनकर। इन पंक्तियों में कवि और एक औसत व्यक्ति के भीतर के अन्तर्विरोध को भी देखा-समझा जा सकता है।
पेड़-पौधों और प्रकृति के प्रति व्यक्ति के इनहरेंट या अन्तर्निहित खिंचाव को दर्शाती इस संग्रह की एक बड़ी प्यारी कविता है 'किराए का मकान' जहां मकान और उसके विविध कमरों व किचन आदि की संरचना के बजाय मकान के दायरे में शामिल अमरूदों से लदा पेड़, मोंगरे, रातरानी, रजनीगंधा, मीठा नीम, पुदीना और बारहमासी मुनगा अधिक महत्वपूर्ण हो उठते हैं और तब कवि को महसूस होता है जैसे- ''मुझे लगातार/महसूस हो रहा था/मैं मका नहीं/खुशियां ले रहा हूं किराए पर'' (पृ. 91-94)
शैली की विविधता बरबस पाठक का ध्यान आकर्षित कर लेती है लेकिन शब्दों के प्रयोग में बहुत बार कवि एक्सट्रावेगेंट हो गया है। भाषा की सहजता के बावजूद कई बार एक अस्पष्टता सी कविता पर काबिज हो जाती है। सम्भवत: इसलिये भी संग्रह के ब्लर्ब में कवि केदारनाथ सिंह ने लिखा है- ''वरिष्ट होने के नाते इस कवि से यह अनुरोध करूंगा और अपेक्षा भी कि यह अनूठा रचनाकार कविता को थोड़ा और समय देगा।''

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