हरिपाल त्यागी
चित्राकला के अनेक आयाम हैं। यह सच्चे अर्थों में सार्वभौम भाषा है, जिसे न अनुवाद की जरूरत है, न ही उस का अनुवाद संभव है। यह रंगों और रेखाओं द्वारा अभिव्यक्त होने वाली चाक्षुष भाषा है। साहित्यिक मानदंडों के आधार पर इस भाषा की समझ संभव नहीं है।
यों तो सभी लोग चित्रा देखते हैं, लेकिन सभी का देखना एक जैसा नहीं होता। देखने की भी कला होती है, जो चित्रों के लगातार सानिध्य से धीरे-धीरे विकसित होती है। जुड़ाव और ललक पहली शर्त है। चित्राकला का वातावरण और प्रेक्षक की रुचि मिल कर देखने वाली आंख को संस्कारित करती है। जब कोई दर्शक मुझसे मेरे चित्रों को समझाने के लिए कहता है तो मैं गहरे संकट में पड़ जाता हूं। मैं सोचने लगता हूं कि मेरे द्वारा बोले गए शब्दों से चित्रों में कोई भी अंतर आने वाला नहीं है, इसलिए चित्रा देखते हुए जैसा प्रेक्षक द्वारा महसूस किया जा रहा है, उतना काफी है। अक्सर हम पहले से समझी गई चीजों को ही समझने के आदी रहे हैं। हमारे स्कूल-कालेजों में भी कला के सौंदर्यबोध पर कम ही चर्चा हो पाती है, जबकि व्यक्ति में शुरू से ही कला के प्रति अभिरुचि विकसित की जानी चाहिए। ऐसा न होने पर आगे चलकर परेशानी हो सकती है। यह हमारी शिक्षा प्रणाली का दोष है।
असल में, एक सामान्य प्रेक्षक पेंटिंग में अपने मनोनुकूल सौंदर्यबोध या अपने द्वारा जानी पहचानी वस्तुओं को देखकर ही संतुष्ट हो जाता है- यह आईने में अपनी छवि निहारने और उसी पर मोहित होने के समान है। जबकि जरूरी यह है कि किसी भी रचना को उसके रचयिता की शर्तों पर भी देखने की जिज्ञासा और धैर्य पैदा किया जाए, क्योंकि सभी रचनाओं को तुरत-फुरत पकड़ पाना जरूरी नहीं है।
कभी-कभी कोई सौंदर्य प्रेक्षक को अवाक कर देता है, तब कला के बारे में कहे जाने वाले सभी शब्द इसलिए भी बेकार हो जाते हैं कि रचना ही शब्दातीत है। तब फ़िराक गोरखपुरी की पंक्ति चुपचाप जेहन में चली आती है : 'तुमको देखूं या तुम से बात करूं? यानी, बात करना देखने में बाधक है और सौंदर्य के वशीभूत भावक शब्हीन हो गया है।
प्रश्न उठता है कि चित्राकला से संबंधित इतनी पुस्तकें फिर क्यों लिखी गई? उन समीक्षाओं और टिप्पणियों का मतलब ही क्या है, जो चित्राकला के अलावा और भी कलाओं पर की जाती रही हैं। कला-समीक्षकों और स्वयं कलाकारों को फिर अलग से बोलने-बतियाने या लिखने की जरूरत किसलिए महसूस होती है?
असल में, हम जब किसी कला विशेष की स्वायत्ताता या उसकी शक्ति पर चर्चा करते हैं तो इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होता कि साहित्य तथा अन्य कला-विधाओं से उसका कोई संबंध या निर्भरता नहीं है। चित्राकला पर लिखी पुस्तकें या कला-समीक्षाएं वातावरण बनाने, प्रचार-प्रसार करने और जिज्ञासा तथा अभिरुचि जगाने का काम तो करती ही हैं और इस रूप में ऐसा साहित्य चित्राकला की सहायक भूमिका में आता है, लेकिन यह सारा साहित्य चित्राकला का विकल्प नहीं है। सभी कला-रूपों की स्वायत्ता-शक्ति इसी में है कि वे एक-दूसरे का स्थान ग्रहण नहीं कर सकतीं। जैसी की पाक-शास्त्रा पर लिखी बढ़िया पुस्तक रूखी-सूखी रोटी की भी जगह नहीं ले सकती।
पेंटिंग में विचार के महत्व को कम करके नहीं देखा जाना चाहिए, जबकि कुछ लोग विचार-मुक्ति पर जोर देते हैं। विचार-मुक्ति की अवधारणा भी एक सुनिश्चित परिप्रेक्ष्य का रूप है। लेकिन पेंटिंग किसी विचार का इलेस्ट्रेशन नहीं है। वहां विचार कला-संवेदन और प्रभाव से अलग नहीं है। उसे महसूस तो किया जा सकता है, लेकिन यहां माध्यम रंग और रेखाएं हैं, न कि शब्द।
मनुष्य होने के विकास क्रम में आदमी ने बोलना बाद में सीखा। लिखना और भी बाद में, लेकिन रंगों के संपर्क में शुरू से ही होने के कारण सबसे पहले उसने रंगों की शक्ति को ही जाना। आदिमानव द्वारा निर्मित भित्ति-चित्र हमें आज भी इसी तथ्य की जानकारी देते हैं। निश्चित ही उसने आवाज और नाटय-संकेतों का प्रयोग भी किया होगा, लेकिन इसके प्रमाण भी हमें भित्ति चित्रों से ही मिलते हैं।
रंगों का अपना अलग जादू और सम्मोहन है। वे रंग ही हैं जो भौतिक पदार्थों का एक-दूसरे से अलग करके दिखाते हैं और लिखित शब्द का अस्तित्व भी किसी न किसी रंग पर निर्भर है। माना कुछ चीज़ें रंगहीन भी होती हैं, जिन्हें हम दूसरी चीजों से अलग करके नहीं देख सकते- इसमें सभी प्रकार की गैसें, ध्वनि-तरंगें आदि हैं। लेकिन कलाकार की आंख रंग-रेखाओं द्वारा इन तत्वों को भी देख और दिखा सकती है। जाहिर है, चित्राकला वस्तुगत स्थिति तक पहुंचने का ऐसा शक्तिशाली माध्यम है जो स्वयं में भ्रम होते हुए भी मनुष्य को सत्य के निकट ला खड़ा करती है। एक अक्षर या फिर शब्द रेखाओं के जुड़ने से ही बनता है, जबकि रेखाएं रंग के बिना संभव नहीं। इसलिए हम कह सकते हैं कि रंगों के बिना किसी चीज़ का कोई मतलब नहीं। और उनके बिना आंख के होने, न होने का भी कोई अर्थ नहीं।
एक कलाकार के लिए संपूर्ण दृश्य जगत, जिसका बहुत थोड़ा-सा हिस्सा उसके सामने होता है, कच्चे माल की तरह है। शुरू-शुरू में वह दृष्टव्य वस्तुओं की हू-ब-हू प्रतिकृति करना चाहता है, लेकिन यह संभव नहीं है। प्रकृति में भी एक-दूसरी से समानता का बोध कराने वाली चीज़ें, दरअसल एक-दूसरी से भिन्न ही होती हैं, इसलिए सादृश्यता भी एक भ्रम ही है। यहीं कलाकार को कल्पना की आंख से एक समान्तर दुनिया ईजाद करनी होती है, जो इस दुनिया पर केंद्रित होते हुए भी इससे भिन्न होती है- यहां कल्पनाशीलता और मान-अनुमान भी शामिल हैं। इसी भिन्नता में कलाकार की मौलिकता और शक्ति को देखा-परखा जा सकता है।
मोहम्मद सईद शेख की पेंटिंग
साहित्य और कला-विधाओं में नयेपन की मांग अकसर होती है, लेकिन नयेपन को स्थान बनाने में देर लग सकती है। स्वीकृति की तो बात ही क्या, उसे विरोध का खतरा भी उठाना पड़ सकता है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा में रूढ़ियां आज भी कम नहीं हैं। टीवी चैनलों और प्रिंट मीडिया तक में 'भारतीय परंपरा' के नाम पर अधिकतर रूढ़ियों और पुनरोत्थान ही परोसा जाता है और प्रगतिशील कहलाने वाले व्यक्तियों में भी रूढ़ियों का कुछ कचरा मिल ही जाता है। कारण साफ है, हमारी पुरानी लत और उसके प्रति मोह मुश्किल से ही छूट पाते हैं। जाहिर है, स्थितियां तेजी से बदलने पर भी सोच अकसर पिछड़ जाती है।
मैं इतना और जोड़ना चाहूंगा कि साहित्य और चित्राकला दोनों में प्रयोग होने वाले बहुत-से तत्व और उनसे संबंधित शब्दावलि समान है। बहुत से चित्रों को चाक्षुष काव्य की संज्ञा दी जाती है, अनेक कविताएं शब्दों की शबीहें और लैंडस्केप हो सकते हैं। यूरोप में कवियों और गद्य लेखकों के साथ चित्राकारों की निकटता की जानकारियां हमें हैं, लेकिन हमारे देश में दोनों विधाओं के रचनाकर्मियों की दुनिया अलग-अलग है। जो साहित्यकार पेंटिंग्स में रुचि लेते हैं या जो पेंटर साहित्य से भी रस ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं, उनकी संख्या कम है।
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