आलेख- जॉन स्टुअर्ट-मिल और नारीवाद

प्रभा दीक्षित
वर्तमान भूमण्डलीकरण के दौर में जहां पूंजी के खेल में अपनी नम्बर दो की भूमिका के कारण स्त्री-जाति आज भी पराधीनता का अनुभव करती हुई पुरुष समानाधिकारों का स्वप्न देख रही है, वही साहित्य के केन्द्र में स्त्री-विमर्श का होना समाज में एक सुखद आशावादी प्रवृत्ति को चिन्हित करता है। स्त्री मुक्ति का यह प्रयास तात्कालिक नहीं है। बल्कि इसके पीछे कई सदियों का इतिहास देखा जा सकता है। उन्नीसवीं सदी के दौरान जिस प्रकार भारत में राजा राममोहन राय से लेकर गांधी सरोजिनी नायडू तक लगभग दर्जनों स्त्री-पुरुष विचारकों ने अपने-अपने ढंग से स्त्री-पुरुष समानाधिकारों के लिये आवाज उठाई, उसी तरह योरोपीय जागरण काल में भी मेरी वोल्टसन क्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, माक्र्स व एंगिल्स, लेनिन, सीमोन द बोउवार, सात्र्रा, जर्मेन गेयर आदि का भी स्त्री-मुक्ति के बारे में विशिष्ट योगदान रहा है। इतिहास साक्षी है कि भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में पुरुष पराधीनता, मातृत्व या गृह कार्यों की कुशलता के नाम पर स्त्राी को पौरुषेय अधिकारों से वंचित किया गया और विश्व के सभी धर्मों ने पुरुष वर्चस्व को मान्यता प्रदान की। स्त्रियों की घरेलू गुलामी से लगाकर यौनिक भेदभाव अर्थात् यौन उत्पीड़न यौन-शुचिता की भावना वेश्यावृत्तिा याने लिंग-भेद के आधार पर भी धर्मों के द्वारा पुरुष वरीयता को प्रश्रय दिया गया। विशेष रूप से धर्म प्रधान भारतीय संस्कृति में धर्म स्त्राी पराधीनता का मुख्य कारक रहा है। ज्ञात हो कि सामूहिक रूप से आंदोलनरत होने की प्रेरणा स्त्री-जाति को फ्रांसीसी क्रांति से प्राप्त हुई थी। और फ्रांसीसी क्रांति को वैचारिक प्रेरणा देने वाले ऐतिहासिक महत्व के विचारक जॉ ऑबुआ कोन्दर्स ने (1743-94) ने धार्मिक अंधविश्वासों की आलोचना करते हुये स्त्राी पुरुष समानाधिकारों के बारे में लिखा था। यद्यपि वर्गीय आधारों पर उपजी आर्थिक भेद की जटिलताओं को न समझने के कारण वह व्यक्तिगत सम्पत्तिा को स्वाभाविक मानते थे और शायद इसीलिये स्त्री जाति के प्रति सम्पूर्ण न्याय नहीं कर पाये किन्तु स्त्री-पुरुष समानाधिकारों की पक्षधरता के कारण उनके वैचारिक मूल्यों को अवमूल्यित नहीं किया जा सकता। मिल पर कोन्दर्स का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। मिल ने 19वीं सदी के उत्तारार्ध्द में कोन्दर्स के विचारों को अधिक विकसित एवं तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।
मिल ने मात्रा स्त्री मुक्ति का ही प्रयास नहीं किया बल्कि वह अपने समय के दार्शनिक अर्थशास्त्री एवं पूंजीवादी प्रजातांत्रिक नेता थे। इंग्लैंण्ड से लेकर सम्पूर्ण यूरोप में होने वाले औद्योगीकरण के कारण एक नया वैचारिक परिवर्तन या क्रांति चारों ओर अनुभव की जा रही थी और आम बुध्दिजीवी या विचारक मनुष्यता द्रोही पूंजीवाद को मानवीय बनाने का प्रयास कर रहे थे। और जान स्टुअर्ट मिल भी इनमें से एक थे। वह कुछ वरिष्ठ होने के बावजूद माक्र्स और एंगिल्स के समकालीन थे तथा संसदीय व्यवस्था के विधानों पर आस्था रखते थे। व्यक्तिगत स्वतन्त्राता और समानता को आदर्शवादी अवधारणाओं के कारण माक्र्स व एंगिल्स ने उनकी आलोचना की है, किन्तु अपने पूंजीवादी चिंतन के बाद भी मिल ने जो क्रांतिकारी सुधार या स्त्राी विमर्श को लेकर एक सकारात्मक भूमिका का निर्वाह किया है, उसे कभी अनदेखा नहीं किया जा सकता।
20 मई 1806 में जन्मे जॉन स्टुअर्ट मिल प्रसिध्द इतिहासकार, दार्शनिक  व अर्थशास्त्री जेम्स मिल के पुत्रा थे। उनकी मृत्यु 8 मई 1983 एवीन्यास (फ्रांस) में हुई थी। अपने पिता के मार्गदर्शन में मिल ने बेन्थम ह्यूम, बर्कले, हार्टले आदि के दर्शन का गहन अध्ययन किया था। कोम्त द्वारा प्रतिपादित यथास्थितिवादी अवधारणा कि स्त्रियों को घरेलू कामकाज के तहत् पुरुष के आधीन होना चाहिये, के विरुध्द मिल ने स्त्रियों को पुरुषों के समान राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्रदान करने की पेशकश की थी। वह एक अच्छे विचारक या लेखक होने के साथ-साथ एक आदर्शवादी एकनिष्ठ प्रेमी भी थे उन पर उनकी प्रेमिका श्रीमती हैरियट टेलर, जो विवाहित थीं, और अपने पति की मृत्यु के बाद मिल की पत्नी बनी, के उदात्ता विचारों का मिल पर स्थाई प्रभाव पड़ा था। 1851 में मिल ने हैरियट से विवाह किया था और 1858 में हैरियट की मृत्यु हो गई थी। मात्रा 7 वर्ष का दाम्पत्य जीवन जीने वाले मिल ने दोबारा विवाह नहीं किया। 1861 में लिखी गई स्त्राी-विमर्श की पुस्तक ''दि सब्जेक्शन ऑफ वूमेन एक प्रकार की दिवंगत पत्नी के प्रति श्रध्दांजलि थी, जिसके कारण उन्हें सम्पूर्ण विश्व में नारीवादी चिंतक के रूप में ख्याति प्राप्त हुई। इस पुस्तक में जहां स्त्रिायों के कार्यों, मनोभावों क्षमताओं की श्रमसाध्य व्याख्या की गई है, वहीं परम्परागत रुढ़िवादी पुरुष सोच के विरुध्द तर्कपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं।
एक चिंतक के रूप में मिल को यूरोप में बुर्जुवा जनवाद का संस्थापक माना जाता है। वह वहां की पार्लियामेण्ट के सदस्य भी चुने गये। जहां तक भारतीय स्वतन्त्राता का सम्बन्ध है, उनका विचार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल के अनुरूप था और 1857 को वह चंद रजवाड़ों की बगावत मानते रहे। इस सबके बावजूद भी स्त्री वर्ग के प्रति जो तर्कपूर्ण अवधारणायें उन्होंने प्रस्तुत की हैं, वे सब समाजवादी व्यवस्था के लिये भी महत्वपूर्ण हैं। अपनी पुस्तक द सब्जकेशन ऑफ वूमेन (अनुवाद स्त्री पराधीनता) के प्रारम्भ में ही वे लिखते हैं- ''18वीं सदी में मनुष्य के तर्कपूर्ण तत्वों को दे दिया गया था। हमने तर्क के स्थान पर नैसर्गिक स्वभाव का देवत्वीकरण कर दिया है और हम उस तत्व को नैसर्गिक स्वभाव कह देते हैं, जो हमसे हैं लेकिन हमें उसका तार्किक आधाार नहीं मालूम।'' (स्त्रिायों की पराधीनता पृष्ठ 35)
मिल स्त्राी दासता को दासप्रथा का एक स्वरूप मानते हैं और इसे पाशविक व मनुष्यताद्रोही समझते हैं तब स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार क्यों नहीं दिये जाने चाहिए? क्या इसके पीछे कोई और भी ठोस तर्क है कि ऐसा पहले से होता आया है। क्या इसके पीछे शारीरिक शक्ति की प्रधानता का नियम दृष्टिगत नहीं होता? स्त्री मुक्ति को लेकर वह सत्ताा को कठघरे में खड़ा करते हैं और यह भी कहते हैं कि अरस्तू जैसा महान दार्शनिक भी दासत्व और स्वामित्व के विषय में पराम्परागत सोच का शिकार हो गया है। सीमोन की भांति वह भी कहते हैं कि एक स्त्री को पुरुष के विरोधी गुणों से सम्पन्न किया जाता है। उसे आत्मसम्मान के स्थान पर आत्मसमर्पण की शिक्षा दी जाती है; क्योंकि स्त्री की शारीरिक दासता के साथ-साथ पुरुष उसे मानसिक दास भी बनाना चाहता है, अपना प्रिय गुलाम बनाना चाहता है, जिसके लिये वह एक सीमा तक त्याग तो कर सकता है, मगर मनोनुकूल होने की शर्त पर। वे कथित स्त्री-पुरुष समानता की आलोचना करते हुये न्यायपूर्ण समानता की पैरोकारी में दुनिया की आधी आबादी को समान व्यवसाय या सम्मानजनक कार्य न दिये जाने का विरोध करते हैं और बुध्दि बल विवेक में स्त्री को पुरुष से कमतर नहीं समझते। मिल के अनुसार किसी भी पुरुष को स्त्रियों के बारे में नियम या कानून बनाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि स्त्राी और पुरुष के बीच जो भी फर्क दृष्टिगत होता है, वह प्राकृतिक न होकर परिस्थितिजन्य होता है। मिल के अनुसार जिन स्त्रियों को अपने भाइयों के अनुसार सुविधायें प्राप्त होती हैं, वे कई बार अपने भाइयों से अधिक बुध्दिमान और प्रभावशाली होती हैं।
वे इतिहास के माध्यम से श्रेष्ठ महिलाओं के उदाहरण पेश करते हैं,  जो अपने समय में पुरुषों से अधिक बुध्दिमान प्रमाणित हुई हैं। और   प्राकृतिक रूप से स्त्री को पुरुष से कमतर होने की सामान्य मान्यता को नकार देते हैं। वर्तमान भारत की स्थिति के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि महाश्वेता देवी या अरुन्धती रॉय के बरअस्क अपने त्याग और बुध्दिमता में कोई भी भारतीय पुरुष दृष्टिगत नहीं होता। मिल अपने पाठकों के सामने सवाल उठाते हैं कि अगर स्त्री वर्ग पुरुषों की भांति स्वतन्त्रा होगी तो क्या मानव समाज एक बेहतर स्थिति में न होगा? वे असमानता को समाप्त करने के लिये लिंग भेद को हटाकर समान अवसर व समान सुविधायें देने पर बार-बार जोर देते हैं। अन्त में वे यथार्थपरक संवेदनशीलता का प्रदर्शन करते हुये लिखते हैं कि मानव जाति के लिये यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि वह नैतिक रूप से अपने मनपसंद कार्यों में सफलता प्राप्त करे, किन्तु एक सुखद जीवन का यह अवसर स्त्राी-पुरुष असमानता के कारण बहुत कम लोगों को नसीब होता है।
आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व जन्मे इस चिंतक का स्त्री-विमर्श भले ही यूरोप के लिये इतिहास की वस्तु बन गया हो किन्तु भारत के लिये यह आज भी प्रासंगिक हैं। पुरुष-वर्ग को वर्ग शत्रु के रूप में चिन्हित करने वाली चंद नारीवादी एडवेंचरिस्ट स्त्रियां भले ही मिल के विचारों से सहमत न हों, किन्तु मेरे विचार से सम्पूर्ण स्त्री वर्ग को इस महान लेखक के लेखकीय अवदान का कृतज्ञ होना चाहिये। सम्भवत: यही कारण है कि प्रसिध्द नारीवादी फ्रांसीसी लेखिका सीमाने द बोउवा ने मिल के भाववादी विचारों की हल्की आलोचना के साथ-साथ उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। मेरे विचार से स्त्री पुरुष सम्बन्धों में समता, सहभागिता एवं मधुरता लाने के लिये मिल के विचार मील का पत्थर बन चुके हैं।
128/222 वाई वन ब्लाक, किदवई नगर, कानपुर- 208011

कोई टिप्पणी नहीं: