विकल्पहीनता के इस दौर में
किसी भी देश, समाज में मनुष्य और उसके जीवन की बेहतर स्थितियों को लेकर चलने वाले अर्न्तद्वन्द्व में जो शक्तियां उभर कर आती हैं और उस समाज व देश की व्यवस्था का संचालन करती हैं, वे यदि विकल्पहीन स्थितियां पैदा करती हैं तो वह समाज विकास क्रम में अधिक दूर तक नहीं जा पाता। यह एक ऐसा सत्य है जिसे समझे बिना किसी बदलाव और अच्छे देश-समाज के नवनिर्माण की उम्मीद नहीं की जा सकती।
विश्व के दो तिहाई देशों में लोकतांत्रिक, राजनीतिक व्यवस्था तो है पर इन देशों में जनता अपनी बेहतर समाज व्यवस्था के लिए राजनीतिक विकल्प खड़ा नहीं कर पाती और राजनीति के भूल-भूलैये में ऐसी फंसा दी जाती है कि जैसे उस देश-समाज की अव्यवस्थाओं या कहें समस्याओं के लिए वही जिम्मेदार हो, उनसे निजात पाने के लिए सरकारें चुनने वाली लोकतंत्रा की यह जनता, तंत्रा के इस मकड़जाल से निकलने और बेहतर समाज निर्माण के लिए बेहतर राजनीतिक विकल्प तक खड़ा करने का आधार नहीं बना पाती। आज की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था ने जिस भ्रष्ट राजनीतिक सत्ता को प्रतिष्ठापित कर दिया है उससे समाज को कैसे निज़ात मिले और इसके लिए राष्ट्रीय चरित्रा के अच्छे लोग राजनीति में आएं, इस ओर कुछ होता नहीं दिखता, सिवाय इसके कि राजनीतिक दलों के लुभावने चुनावी वायदों के भूल भूलैया में भटकी मतदाता जनता एक दल को इस बार सत्तासीन करती है तो ठीक पांच साल बाद दूसरे दल को। इन दलों की अंदरूनी सांठ-गांठ यह रहती है कि बाहर से विरोधी दिखने का नाटक करते हुए अपनी-अपनी सत्ताओं में वे एक-दूसरे को मालपुए खिलाते और खाते रहते हैं और बारी-बारी से भ्रष्टाचार की जड़ों को सींचते हुए सत्ता सुख लेते रहते हैं। ऐसे में देश-समाज की समस्याएं और प्राथमिकताएं जाएं भाड़ में। बस सत्तासीनों की सत्ता बनी रहे और बुध्दिजीवी तबका जनता के सवालों के बीच मात्रा विमर्श से आगे न बढ़ पाए कमोवेश कोशिश यही रहती है! तब विकल्पहीनता कैसे दूर हो?
प्रश्न उठता है कि देश-समाज को बेहतर बनाने के लिए क्या पढ़े-लिखे कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार लोगों को समाज का नेतृत्व करने के लिए आगे नहीं आना चाहिए? उन्हें नेतृत्व सौंपने के लिए समाज का हर पढ़ा-लिखा तबका क्यों जागरूक नहीं होता? यह चुनौती आज के समय में समाज के समक्ष है और यहीं से देश-समाज के नवनिर्माण का रास्ता भी खुलता है।
जहां एक आदर्श शिक्षित व संपन्न देश समाज और उसकी पारदर्शी, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था का निर्माण हो। क्या साहित्य, कला, संस्कृति, शिक्षा और ज्ञान के संवाहक इस ओर आज बिना आत्ममुग्ध हुए कुछ सोचते हैं? कि समाज का एक बड़ा तबका आज भी उन सब जरूरतों व अन्य सुख-सुविधाओं से वंचित है जो हम भोगते रहे हैं! और जिन्हें बर्गला कर ही आज सत्ता की राजनीति चलती रही है कि इनके समग्र विकास के बिना देश समाज आगे नहीं बढ़ सकता कि क्यों नहीं सोचते हम कुछ और सोचते हैं तो करते क्यों नहीं देश-समाज के लिए कुछ? इसी प्रश्न में छिपा है भविष्य का हल! आओ सोचें और बेहतर समाज के निर्माण के लिए एकजुट हो आगे आएं! - दिवाकर भट्ट
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