जितेन्द्र शर्मा
वे कालेज के विद्यार्थी थे और पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले शहर के एक लेखक से मिलने के लिए आये हुए थे। लेखक के दो कमरों के मकान के बाहर खड़े वे दोनों उजबक की तरह इधर-उधर निगाहें दौड़ाते काफी देर तक खड़े रहे फिर उनमें से एक ने बहुत साहस जुटा कर काई जमे दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा एक स्त्री ने खोला जो लेखक की पत्नी थी। अपरिचित चेहरों को देखकर उसने प्रश्न भरी निगाह उन पर डाली। जीन्स पहने हुए, ऊंचे कद और भारी गालों वाले युवक ने खंखारते हुए पूछा ''पथिक जी हैं? उनसे मिलना है।''
''आप बैठिए वे अभी नहा रहे हैं।'' दोनों युवक अन्दर कमरे में रखे टूटे हुए सोफा में धंस गये और निगाहें घुमाकर कमरे का जायजा लेने लगे। कमरे में सिर्फ एक चारपाई बिछी हुई थी जिस पर फटी हुई नीले रंग की चादर थी। चारपाई के उपर ही कुछ कागज के पन्ने बिखरे हुए पड़े थे और एक मोटी सी पुस्तक खुली हुई उल्टी रखी थी। एक फाउन्टेन पैन खुला रखा था व कुछ फाईलें व पुस्तकें तहें लगी रखीं थी। पूरे कमरे में केवल एक फोटो टंगी हुई थी। वह थी कवि निराला जी की फोटो। आगंतुकों ने फोटो को नज़दीक से देखा फिर चारपाई पर रखी फाईलों को उलटने-पलटने लगे। तभी पथिक जी ने कमरे में प्रवेश किया। आगन्तुक यकायक चारपाई से सकपका कर उठे। जैसे कोई अपराध करते हुए पकड़े गये हों। वे सकपकाहट में उन्हें नमस्ते करना भी भूल गये। और सोफे पर जाकर बैठ गये। तत्काल ही उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया और वे फिर खड़े हो गये और झुक कर पथिक जी को नमस्ते की। औपचारिकता निभाने के बाद उन्होंने अपना परिचय दिया- मेरा नाम करण है और यह हैं मेरे मित्रा चरण। हम दोनों बी0 काम- द्वितीय वर्ष के विद्यार्थी हैं पर साथ ही हमारी साहित्य में बड़ी रूचि है। ''विभा'' मासिक पत्रिाका में आपकी कहानी पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। पत्रिाका में आपका पता भी छपा हुआ था सो आपसे मिलने चले आये।''
''बड़ा अच्छा किया। आप लोगों से मिल कर खुशी हुई पथिक पालथी मार कर चारपाई पर विराजमान हो गये। अच्छा लग रहा था कि पहली बार उन्हें लेखक की तरह पहचाना जा रहा है, बैंक के कर्मचारी के रूप में नहीं। अब तक तो जो भी उनके पास आता था बैंक के काम की वजह से आता था। आज का यह अपवाद उन्हें खुशी दे रहा है। वे उमर में उन युवकों से काफी बड़े थे शायद इसी लिए उन्होंने आवाज़ में अतिरिक्त वात्सल्य घोलते हुए पूछा ''आप लोगों को भी लिखने का शौक है?, ''जी शोक तो है, कुछ छुटपुट लिखा भी है पर कुछ भी छपा नहीं है। आपका मार्गदर्शन चाहिए।''
मार्गदर्शन जैसे शब्द को सुनकर पथिक चौंक उठे। उन्हें लगा उनके अन्दर कुछ-कुछ हो रहा है जो उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है। अपनी आवाज को संयत करते हुए वे बोले- ''सृजन अन्दर की चीज़ है। विश्व का साहित्य पढ़िये। दुनिया को खुली आंखों से देखिये और यथार्थ को भोगिये। फिर लिखिये। मार्ग दर्शन लेना ही है तो महान लोगों से लीजिए। असली बात तो यह है कि अपना रास्ता स्वयं खोजिए। दोनों युवक यकायक खड़े हो गये और बोले- ''अब चलते हैं कल फिर मिलेंगे। पथिक को ऐसा आभास हुआ कि उनकी बातों को उन्होंने बिल्कुल बकवास समझा है और उन्हें उनकी बातें कतई भी अच्छी नहीं लगी हैं फिर भी उन्होंने कहा- ''नहीं-नहीं आप बिना चाय पिये नहीं जा सकते, बैठिऐ तो।''
करण ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा- ''क्षमा कीजिए साढ़े आठ बजे कालेज में क्लास है और अब केवल दस मिनट बचे हैं। आज्ञा दीजिए फिर आयेंगे। वे दरवाजे के बाहर हो गये फिर पथिक की ओर मुड़ कर कमान की तरह कमर को झुका कर नमस्ते कर मुस्कुराते हुए चले गये। पथिक उनके इस अटपटे व्यवहार के बारे में सोचता ही रह गया। उनकी मुस्कुराहट में छिपा व्यंग्य उसे बेचैन कर रहा था। तभी दोनों युवक फिर कमरे के अन्दर आ गये जैसे अचानक ही उन्हें कोई बात याद गई हो या कोई वस्तु भूल गये हों।
करण ने पूछा- ''ये दीवार पर टंगा चित्रा किसका है? क्या ये आपके पूज्य पिता श्री हैं?''
''अरे क्या कह रहे हैं आप। ये तो महाकवि निराला जी का चित्रा है। पहचाना नहीं आप लोगों ने।''
''ओह! गलती हो गई। मैं तो इससे (चरण की ओर इशारा करके) पहले ही कह रहा था कि किसी साहित्यकार का चित्रा होगा।'' दोनों फिर मुस्कराए और तेजी से बाहर निकल गये। पथिक जी, व्यथित हो, आगंतुकों के बारे में, उनके चेहरे पर खिलती व्यंगात्मक मुस्कुराहट के बारे में और अचानक उठ कर चले जाने, पुन: लौट आने के बारे में देर तक सोचते रहे।
अगले दिन सुबह पथिक जी के मस्तिष्क में कहानी का एक प्लाट जन्म ले रहा था। उनके हाथ में सिगरेट थी और वे कहानी की प्रथम पंक्ति के बारे में सोच रहे थे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। उन्हें बेमन से दरवाजा खोलना पड़ा। सामने वे ही दोनों युवक हाथ जोड़े खड़े हुए थे।
''ओह! आप लोग आईये।'' दोनों युवकों ने कमरे में बेहिचक प्रवेश किया और खी-खी कर के हंसते हुए बोले- आपके दर्शन करने चले आये। दर्शन! तो दर्शन तो आपने कर लिये अब आप लोग जा सकते हैं। पथिक यह बात केवल सोचता रहा कह नहीं पाया। वे दोनों फिर सोफे पर धंस गये और मुस्कराते रहे। ये मुस्कराहट न जाने क्यों पथिक को चुभ रही थी। उन्हें ये युवक बेहुदे लग रहे थे पर व्यवहार वश वे उन्हें सम्मान देने को विवश थे।
आगंतुक काफी देर चुप-चाप बैठे रहे और लेखक की ओर देखते रहे कि उनके मुंह से शब्द निकलें और वे उन्हें पकड़ें- ''चाय पीयेंगे आप लोग?, जी आज तो छुट्टी का दिन है। खूब समय है, पी लेंगे'' करण बोला। दोनों युवक हाथों को टांगों के बीच जोड़े नीचे गर्दन किये बैठे थे। पथिक के मन में आया कि उन्हें कहें- अपराधी की तरह क्यों बैठे हैं। जब आप लोगों ने कोई शर्मनाक काम नहीं किया है तो ऐसे सिर झुकाने की जरूरत क्या है। पर वे बिना कुछ बोले अन्दर चाय बनवाने के लिए पत्नी के पास चले गये। चाय पीने के बाद करण के लिए समय काटना मुश्किल हो गया और उसने दो मिनट में, दसों बार, कलाई खड़ी देखी और बेचैनी में खड़ा हो गया। ''अब चलते हैं। साढ़े दस बज गये हैं'' साढ़े दस बजे का उनके किसी काम से कोई लेना देना नहीं था, बस साढ़े दस बज गये थे और मन की अकुलाहट बढ़ गई थी। अब चलें। वे मुस्कराते हुए चले गये।
उनका पथिक जी के यहां आना जाना नियमित हो गया था और यह पथिक के लिए फिजूल का सिर दर्द हो गया था।
दो चार बार तो घर पर होते हुए भी पथिक ने कहलवा दिया था कि वो घर पर नहीं हैं। एक दो बार तो ऐसा भी हुआ कि वे युवक दो-दो घंटे बाहर उनकी प्रतीक्षा करते रहे और पथिक को अपने जरूरी काम को निपटाने के लिए पिछले रास्ते से बाहर जाना पड़ा। पथिक जी के बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा था कि ये युवक बिना किसी आवश्यक कार्य के दो-दो घंटे तक प्रतीक्षा क्यों करते हैं। पर ऐसा नियमित रूप से होता रहा। और वे चुप-चाप इस कड़वे घूंट को पीते रहे।
अब कुछ बदलाव आ गया था। करण आजकल अकेला ही आ रहा था। चरण शायद कुछ घर के कामों में मशगूल हो गया होगा। करण अपनी कोई कहानी या कविता लेकर आता था और पथिक से उस पर उनकी राय मांगता था।
उसकी रचनाओं में सस्ते रोमांस के किस्से या केवल आत्म विलाप भर होता था। रचनायें इतनी बचकानी थी कि पथिक को उन पर तरस आता। रोज-रोज इन रचनाओं को पढ़ने का संत्राास पथिक को भोगना पड़ता। एक दिन उसने दिल कड़ा कर के कह ही दिया- बेहतर होगा कि लेखक बनने के बजाये तुम कुछ और काम करो। पर आश्चर्य है उनकी इस कड़ी बात का करण पर कोई असर नहीं हुआ और उसके चेहरे पर वही चिरपरिचित मुस्कुराहट खिल गई जिसे देखकर पथिक व्यथित हो जाता था। अगले दो दिन बाद वह फिर रचनाओं का पुलिंदा लेकर आ धमका। वह अपनी नवीनतम तीन कहानियां लेकर आया था। पथिक ने कहा- उसके पास समय नहीं है लेकिन फिर भी वह अपनी एक कहानी सुना सकता है। करण ने अपनी समझ से अपनी सर्वोत्ताम रचना सुनाई। जो पथिक को बिल्कुल पसंद नहीं आई। पथिक ने सीधो पूछा तुम कहना क्या चाहते हो इस कहानी के माध्यम से। करण ने कोई उत्तार नहीं दिया केवल मुस्कुराता रहा। पथिक ने कहा- मुझे तो ये कहानी मार्डन आर्ट की गैलरी में लटके किसी उल्टे चित्रा की भांति लग रही है। करण के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई और वह सदा की तरह एक दम खड़ा हो गया। कलाई घड़ी देखने लगा और मुस्कुराते हुए चला गया। कुछ दिन बाद वह फिर बेवक्त आ टपका और आते ही बोला- आपको एक तकलीफ देनी है।
''तकलीफ? आओ बैठो तो!''
''भारती साप्ताहिक पत्रा में उप संपादक की जगह खाली है। पता चला है कि आपकी उनसे अच्छी जान-पहचान है। आप वहां कह दें तो मेरा काम हो जायेगा।''
''सम्पादक महोदय से मेरा परिचय तो है। तुम स्वयं ही उनसे मिल लो। मेरा नाम ले लेना। शायद तुम्हारा काम हो जाये।
''ठीक है जैसे आप ठीक समझें।''
करण आश्वस्त हो गया, समय की बात थी कि करण का काम बन गया। पथिक भी खुश था कि चलो उससे पीछा छूटा। कम से कम उनका समय तो बर्बाद नहीं करेगा। हुआ भी कुछ ऐसे ही। अब उसका उनके यहां आना- जाना बिल्कुल ही बंद हो गया। कभी बाजार में चलते-फिरते मुलाकात हो जाती या एक-दो बार कॉफी हाउस में भी मिलना हुआ। उसके व्यवहार में एक बेगानापन आ गया था। और उसके चेहरे से चुभने वाली मुस्कुराहट भी गायब हो गई थी।
उसके बाद कई महीनों के अन्तराल के बाद वह घर पर आया। दरवाजे के बाहर ही खड़ा होकर बात करता रहा। बार-बार कहने पर भी अन्दर नहीं आया। बोला- ''मेरा लखनऊ में एक प्रतिष्ठित दैनिक पत्रा के संपादकीय विभाग में अपाइन्टमेन्ट हो गया है और परसों मेरी शादी भी है। शादी के बाद मैं लखनऊ चला जाऊंगा। हो सके तो शादी में आइएगा। वैसे बड़े-बड़े लोग शादी में आयेंगे। उस पत्रा के संपादक की लड़की के साथ विवाह तय हुआ है।'' वह एक सांस में ही कह गया और घड़ी देखता हुआ मुड़ गया- ''अच्छा अब चलता हूं'' और वह सचमुच ही चला गया। आज जाते समय उसके चेहरे पर मुस्काहट नहीं थी। वह अप्रत्याशित रूप से गंभीर था। पथिक उसे जाते हुए दूर तक देखता रहा।
पथिक की उससे अन्तिम मुलाकात शादी के दो साल बाद पिछले वर्ष हुई। वह शहर में आया हुआ था और उसने एक परिचित से पथिक को खबर भिजवाई थी कि वह चाहें तो उससे मिल लें। मिलने में कोई हर्ज भी नहीं था और ये एक अच्छी बात थी कि वह एक ऊंची जगह पहुंच गया था।
मिलने पर करण ने, जोकि अब परदेशी हो गया था, शिकायत की कि उसका अपना शहर उसकी कद्र नहीं करता। शहर में उसके सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन किया जाना चाहिए था। ''पर क्यों? तुमने साहित्य में ऐसा कुछ विशेष किया भी क्या है?''
''आप बहुत आदर्शवादी बनते हैं। अपने को देखिए और मुझे देखिए। आप वहीं हैं। मैंने क्या कुछ किया है- आपको दिखाई नहीं पड़ता?''
स्पष्टवादिता के लिए, क्षमा करें, पर आप व आप जैसे लोग समय से बहुत पीछे रह गए हैं। गिरगिट की तरह करण का यह बदला रूप देखकर पथिक दंग रह गया। उसे लगा वह गलत जगह आ गया है। उसके लिए वहां और अधिक टिकना कठिन हो गया था। मन पर जकड़ती जा रही घुटन की धुंधा को छिटककर पथिक खड़ा हो गया और आवाज को कठोर बनाकर बोला- ''अब चलता हूं।''
करण ने तपाक् से कलाई घड़ी देखी- ''हां मेरे पास भी समय नहीं है। साढ़े दस बजे मुझे कला प्रदर्शनी के उद्धाटन के लिए जाना है।''
रास्ते में पथिक सोचता जा रहा था कि करण अपने को उसके ऊपर इस हद तक क्यों लादना चाहता था कि उससे बर्दाश्त न हो सका। यह सच था कि करण ने समय की नब्ज बहुत पहले ही समझ ली थी और उसी का फल था कि आज वह एक ऊंचे पद पर था। उसने पथिक का उपयोग एक सीढ़ी के रूप में किया था। वह सफल लेखक नहीं बन सका, पर लेखन को उसने कैरियर के रूप में लिया और इस प्रयास में वह सफल रहा। यही वजह थी कि लेखक न बन पाने पर भी लेखक उसके चक्कर काटने लगे थे। पथिक से भी वह यही अपेक्षा करता है। पर उन दोनों के रास्ते तो शायद पहले से ही अलग-अलग थे और अब भी अलग हैं। श्रध्दायन, रायपुर रोड, अघोईवाला, देहरादून
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