रमेश चन्द्र शाह
भोपाल, दि. 20 अप्रैल, 02
सागर शहर तो खूबसूरत है, मगर उत्तार भारत के ज्यादातर अपने बिरादरों की तरह अराजक और अस्त-व्यस्त। सड़कों की हालत बनारस से भी गई गुज़री... ऐसी टूटी-फूटी, कि लगा जबसे बनीं, तब से कभी मरम्मत ही नहीं हुई इनकी। दो एक बस्तियां ज़रूर साफ़-सुथरी और रंगी-चुंगी दिखीं अपेक्षाकृत; मगर वे तो सिविल लाइन्स के नाम से हर शहर में अलग ही पहचानी जाती हैं। वे कोई पैमाना नहीं। ठसाठस मकान, तंग गलियां और नालियां-पानी की कमी के प्रत्यक्ष विज्ञापनों सी। '...मैं चीखते मुहल्लों और बजबजाती गलियों को ठेलता हुआ/ तुम तक पहुंचता हूं/ और तुम अपनी सलाइयों से/ नई नई गलियां बुनती हो'...। मन होता है पूछूं- 'दुबेजी, वो कहां रहती थी, वहीं ले चलिये ना।' फिर, अपने प्रश्न की व्यर्थता भांपते हुए चुप हो जाता हूं। 'कहां रहती थी' में क्या रक्खा है? जहां वह अब भी रहती है और हमेशा रही आएगी, वह घर तो कविता का ही घर न है?... यूं भी रमेशदत्ता दुबे की दिलचस्पी मुझे अपने और हम दोनों के उभयनिष्ठ मित्रा अशोक वाजपेयी का घर दिखाने में है और वह उन्होंने मुझे दिखा भी दिया है।
सागर अपनी ऊंचाई-नीचाई के कारण, तालाब के कारण और उससे भी ज्यादा पथेरिया हिल्ज़ पर अवस्थित विश्वविद्यालय के कारण दर्शनीय है। हमारे देश में कुछ भी उल्लेखनीय घटित होता है तो केवल मात्रा एक आदमी के स्वप्न, एक आदमी की पहल पर घटित होता है। सागर विश्वविद्यालय डॉ. हरी सिंह गौर का सपना था जो फलीभूत हुआ और दो-एक दशक अपने उत्कर्ष को भी चरितार्थ कर सका। किन्तु, जैसा कि- हमारे देश में हर ऐसे उपक्रम की परिणति होनी अनिवार्य है- उसका भी अब अपकर्ष ही अपकर्ष दिखाई दे रहा है। यह राष्ट्रीय शर्म और राष्ट्रीय चिन्ता का विषय होना चाहिए कि ऐसा क्यों है? विवेकानन्द का एक भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि इस अभागे देश में तीन आदमी भी मिल-जुलकर काम नहीं कर सकते। व्यक्ति-प्रतिभा के स्तर पर हम दुनिया में किसी से भी तुलनीय होंगे, किन्तु सामूहिक चरित्रा, सामूहिक कार्य-क्षमता, सामूहिक जिम्मेदारी के स्तर पर हम सर्वाधिक दयनीय, अकुश और कृतघ्न ही ठहरेंगे। टीम-स्पिरिट, राष्ट्रीय भावना, सामुदायिक अनुशासन, सेंस ऑव बिलांगिग और संगठन-क्षमता हमारे चारित्रिाक गुण नहीं ही हैं। वे गुण देश के पैमाने पर नहीं, छोटी-छोटी जात-बिरादरियों के स्तर पर ही जीवंत-सक्रिय दिखते हैं। ऐसा परिवेश अच्छे से अच्छे नेता में भी अहंकार और मनमानेपन को ही उकसाता है और स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता के बदले रचना-द्रोही राग-द्वेष और निर्लज्ज गुटबंदी से ही प्रेरित-संचालित हो रहने को अभिशप्त रहता है। लेखकों के स्मारकों का ही नहीं, कीर्ति का और कभी-कभी तो पांडुलिपियों का भी जतन या तो सरकार करे (जो वह नहीं कर सकती) या फिर उनका कोई वंशधार हो, तो वह करे। यानी, लेखक- जिसके किये-धरे का सबसे ज्यादा असंदिग्धा, सबसे ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक, आंचलिक और राष्ट्रीय महत्व है,- वह भी समाज की जिम्मेदारी नहीं। लगता है, हमने अंग्रेजों से उनके ऐब तो सारे ग्रहण कर लिए, मगर गुण एक भी नहीं। मुझे लन्दन का वह टैक्सीवाला याद आता है मेरे मुंह से 'अरे क्या यह वही फ्लीट स्ट्रीट है, हां डॉ. जॉनसन रहते थे'- यह उद्गार सुनकर दो किलोमीटर अतिरिक्त और मुफ्त गाड़ी चलाकर उस जगह को दिखाकर ही माना था जहां डॉ. जॉनसन के पिता की किताबों की दुकान थी। अब यहां अगर बड़े से बड़े लेखक को भी खुद उसी के शहर के लोग नहीं पहचानते, या फिर 'हेमिंग्वे, हेमिंग्वे- चिल्लाते हुए उसे पिछुवाते हैं तो हम यह तर्क देकर अपना बचाव नहीं कर सकते कि 'इहै बनारसी रंग आय'... याकि... 'जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी/ उस खेत के हर गोशए-गन्दुम को जला दो।' न यही कहके छूट सकते हैं कि आखिर वे पब्लिक स्कूल के छोकरे थे। अज्ञेय को कैसे पहचानते- वह भी शिमला में?
जगदीश किंजल्क ('दिव्य' जी के सुपुत्रा) यहां आकाशवाणी में हैं। बड़ी निष्ठा से अपने पिता की स्मृति में यह आयोजन प्रतिवर्ष करते हैं। इसी निमित्व से डा. कान्तिकुमार जैन से मिलना हुआ। कार्यक्रम सात की बजाय आठ बजे शुरू हुआ। रात कोई साढ़े दस बजे मेरे व्याख्यान की बारी आई- तब तक श्रोतागण थककर चूर हो चुके होंगे। तो भी, कुछ तो मुख्य अतिथि का रोल निभाना ही था। कोई ताज्जुब नहीं कि कार्यक्रम की जो विस्तृत रपट आज अखबार में छपी है, उसमें मेरे व्याख्यान का सार-संक्षेप तो दूर, मुख्य अतिथि के रूप में नामोल्लेख तक नदारद है। ज़ाहिर है, जिसने यह रपट लिखी, वह मेरी बारी आने तक रुकने का धैर्य नहीं जुटा सका। सागर का कोई दोष नहीं: भोपाल भी कोई पीछे नहीं इस मामले में। वहां नामोल्लेख तो हो जाता है, किन्तु वक्ता के रूप में नहीं। वक्ता वही, जो अपनी बिरादरी का हो। वैसे भी अपने यहां पत्राकार-- यहां तक, कि लेखक तक- कहलाने के लिए किसी तरह की कोई क्वालीफिकेशन नहीं लगती। जैसी डाक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रोफेसर, बाबू आदि बनने के लिए अनिवार्य है। आखिर पत्राकारिता या लेखन कोई ऐसा-वैसा पेशा तो है नहीं, वह तो जनता की सेवा है, सरस्वती की पूजा है। उसका तथाकथित योग्यता से क्या लेना!
समारोह के बाद और दूसरे दिन भी रमेशदत्ता दुबे का ही सत्संग रहा। दोपहर का भोजन उन्हीं के घर किया। शाम को यूनिवर्सिटी की भरपूर सैर करके अशोक के अनुज, भौतिकशास्त्रा के प्राध्यापक, रज्जन के यहां अत्यन्त सुस्वादु भोजन किया। रज्जन के यहां से नीचे नगर का नज़ारा ऐसा था जैसे उदयपुर में हों या नैनीताल में! सुना,यहां, कुछ दूर पर ही नदी भी है और प्रपात भी। इस बार तो संभव नहीं, पर अगली बार सिर्फ उसी के लिए आऊंगा।
ननन
भोपाल, 8 मई, 02
सोमराज गुप्त की ग्रंथावली- the word speaks to the faustian man-के चारों ग्रंथ पढ़ डाले। इस क़दर मुझे बांधे रहा पूरे महीने भर यह विलक्षण कृतित्व, कि इस बीच जहां भी जाता जो भी मुझसे पूछता 'क्या कर रहे हैं', मैं पूछने वाले की रूचि या पात्रता का ज़रा भी ख्याल किये बिना इस लेखक का गुणगान करने लगता। जाने कितनों से मैंने कहा होगा कि यह भारत के विद्वत्जगत् की एक अपूर्व घटना है। अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में अपनी रीझ-बूझ भी व्यक्त कर चुका। तब फिर क्यों अपने-आप से मन इस क़दर खिजलाया रहता है? क्या इसलिए, कि मेरे बौध्दिक पक्ष को या कहूं एक पक्ष को शंकर की 'प्रस्थान-त्रयी' (अभी तक सिर्फ उपनिषद्) का यह अधुनातन-आधुनिकोत्तर पुनर्भाष्य- 'साहित्यिक संदर्भों से संवलित पुनर्भाष्य- चाहे जितना प्रभावित और चमत्कृत करे मेरा दूसरा पक्ष, कहूं, स्नायविक-भाविक- कल्पनाप्रवण पक्ष तो उससे अछूता-अतृप्त ही छूट जाता है।
इधर महीनों से कुछ ऐसा लिखना भी नहीं हो पा रहा है जिसे आत्माभिव्यक्ति कहा जा सके। पर... क्या यह जो मैंने इतनी तन्मयता और एकाग्रता के साथ लिखा, वह क्या मेरी आत्माभिव्यक्ति नहीं? पता नहीं क्यों, मुझे इस तरह के कार्यों से- वैसी तृप्ति, वैसा उन्मोचन नहीं मिल पाता। जो सोमराज जी को पढ़कर मुग्ध और तृप्त होता है, वह मेरा एक अंश है, मैं खुद समूचा पूरा नहीं। जब तक मैं इस समूचे को- अपनी चेतना के इस तुमुल कोलाहल कलह को-पूर्णत: अपने से बाहर नहीं निकालता- एक भरपूर रचनात्मक साक्षात्कार द्वारा अभिनीत और चरितार्थ नहीं करता, उसमें पूरी तरह डूबकर उससे पूरी तरह उबरने का उपक्रम नहीं करता, तब तक कोई भी, कैसा भी विचारक या रचनाकार मुझे कैसे मुझी से छुटकारा दिला सकता है? नहीं दिला सकता- यह तथ्य मेरे सिर पर चढ़के बोल रहा है। तब फिर मैं क्यों इसे टालता रहता हूं- क्यों कतराता रहता हूं उससे जो मेरे अन्तरतम की मांग है? तो क्या कर्म के बन्धन को काटने के लिए भी रचना कर्म ही चाहिए? लगता तो ऐसा ही है।
भोपाल, 15, मई, 02
खुशवन्तसिंह कभी-कभी चाहे जितना खिझाते हों, स्तम्भ उनका मज़ेदार होता है। पढ़ने लायक़। इस तरह के लेखन की भी एक जगह तो है ही समाज में। अभी आज के अखबार में 'चाय' पर उनकी टिप्पणी पढ़कर मज़ा आ गया। ऐसी जानकारी बड़ी रोचक होती है। डी.के. टैक्लैट नामक व्यक्ति ने एक पूरी किताब ही लिख मारी है जिसका नाम ही 'द हेरिटेज ऑव इण्डियन टी' है। उस किताब के हवाले से खुशवंत सिंह बताते हैं कि किस तरह और कब रॉबर्ट ब्रूस नामक अंग्रेज ने चीन से पौधे लाकर आसाम में चाय की खेती शुरू की और किस तरह इसका चलन बढ़ा। ब्रूस ने एक कविता भी लिखी है चाय पर- जिसका उध्दरण खुशवन्त सिंह ने अपनी टिप्पणी में टांका है-
लैट अदर्ज़ सिंग द प्रेज़ ऑव वाइन
लैट अदर्ज़ डीम इट् ज्वॉय डिवाइन
इट्ज़ फ्लीटिंग ब्लिस विल नैवर बी माइन
गिव मी अ कप ऑव टी
स्मृति की लीला भी विचित्रा होती है। इतने सारे बरसों में मुझे कभी याद नहीं आई थी जिस चीज़ की, वह मुझे इस टिप्पणी को पढ़ते हुए अचानक याद आई। क्या सम्बन्ध है, क्या तुक है दोनों के बीच? कुछ भी तो नहीं। मगर... कमाल है। आज अभी ही क्यों मुझे इसकी याद आई?
यह सन् 61 या बासठ की बात होनी चाहिए- नहीं? जब मैंने नया-नया 'भर्तृहरि शतक' पढ़ा था तो ऐसी मस्ती चढ़ी थी मुझ पर, कि मैंने उसमें से कोई सवा सौ श्लोकों का अंग्रेजी में पद्यानुवाद कर मारा था। तब तक हिन्दी में मेरा कुछ खास छपा होगा- मुझे नहीं लगता। हां तो... उन पद्यानुवादों में से कुछ छांटकर मैंने जिस अंग्रेजी साप्ताहिक 'योजना' को भेजे थे, उसके संपादक यह खुशवन्त सिंह ही थे। किस क़दर खुशी और उत्साह की लहर दौड़ गई होगी मुझमें, जब लौटती डाक से उसकी सराहनात्मक स्वीकृति का पत्रा मिला। और, उसके साथ कुछ और पद्य भी भिजवाने का आग्रह। 'दस स्पेक ज़रथ्रुस्त' के वज़न पर 'उस स्पेक भर्तृहरि' का नाम भी शायद उन्हीं ने दिया था। इसी सामान्य शीर्षक के अन्तर्गत तीन-चार अंकों तक लगातार मेरे पद्यानुवाद उन्होंने छापे थे। पता नहीं वह पांडुलिपि मेरे पास अब भी कहीं सुरक्षित होगी कि नहीं। मदाम सोफिया वाडिया ने भी तो छापे थे उनमें से कुछ अनुवाद अपने 'दि आर्यन पाथ में'। इस टिप्पणी के साथ, कि 'मैं इन्हें 'ट्रास्लेशन' कहने की बजाय 'क्रियेटिव एडाप्टेशंस' कहना पसंद करूंगी।'... याद आता है जैका पब्लिशिंग हाउस ने मेरी उस करतूत को पुस्तकाकार छापने का प्रस्ताव भी किया था। पर फिर मुकर गया था। तबसे फिर उस ओर झांकने की भी नौबत नहीं आई।
ननन
दमोह, 2, अक्टूबर, 02
सुबह तीन बजे रीवांचल एक्सप्रेस दमोह स्टेशन पर आ लगी। होटल 'प्रतीक' (जो इसी मण्डली के अंसारीजी का है) पहुंचे। नींद तो क्या आनी थी, पड़ा रहा सात बजे तक। आठ बजे पंकज हर्ष (इस व्याख्यानमाला के सूत्राधाार) के घर पर नाश्ता हुआ (इडली-सांभर, जलेबी, आलू-बोंडा)। फिर अक्षय जैन, अंसारीजी और श्याम सुंदर दुबे के साथ जैन तीर्थ कुंडलपुर की यात्राा के लिए प्रस्थान किया। श्यामसुंदर दुबे (निबंधकार) सुनार नदी के किनारे हटा नामक क़स्बे के महाविद्यालय में प्राचार्य हैं। बहुत अच्छा साथ दिया उन्होंने। नहीं तो, यह यात्रा थका देती। रास्ते में हिंडोरमा, फिर पटेरा नामक गांव पड़ा। व्यारमा नदी की भी बड़ी सुंदर झलक ऊपर चढ़ाई से पाई। इधार के गांवों की दुर्दशा पर ही बातें होती रही। सोयाबीन की 'कैश क्रॉप' से किसानों को जो अतिरिक्त और अप्रत्याशित कमाई हुई है, उसने इन सबको शराब की लत लगा दी है। डा. शिवहरे के यहां शाम को इस परिस्थिति की ही नहीं, और भी कई दर्दनाक बातों की जानकारी मिली। जैसे यही, कि किस तरह शिक्षा के प्रसार के साथ नई बहुएं गांव की जिन्दगी से ताल-मेल नहीं बिठा पातीं और तिल का ताड़ बनाकर मायके चली जाती हैं और फिर मायके वाले ससुराल वालों को धमकी देते हैं कि पुलिस में रपट कर देंगे, बरबाद हो जाओगे, चुपचाप एक लाख रूपया दे दो, नहीं तो...। शिवहरे डॉक्टर हैं प्रतिष्ठित यहां के। उनकी पत्नी भी डॉक्टर हैं। क्लिनिक चलता है अच्छा-खासा।
कुण्डलपुर एक कुण्डलाकार पहाड़ी पर बसा है। कोई बासठ मन्दिरों की श्रृंखला है नीचे से ऊपर तक। पहाड़ी के शिखर पर पद्मासनस्थ आदिनाथ की विशाल प्रतिमा चट्टान पर उत्कीर्ण है। अतिभव्य। वहीं दांए-बांए अन्य तीर्थंकरों की भी मूर्तियां हैं। अक्षय जैन के कथनानुसार वास्तु के दृष्टिकोण से यह दिशा ठीक नहीं है। इसलिए पूरी चट्टान उखाड़कर नई जगह लगाई जा रही है ताकि सही दिशा-यानी उत्तार की ओर प्रतिमा का मुख हो। नया मन्दिर बनना भी शुरू हो गया है-- सामने की एक पूरी पहाड़ी को काटकर। अपार धनराशि व्यय होगी इस पर। इस तरह की बात पहली बार सुनी, इसलिए बड़ा आश्चर्य हुआ। स्थान बहुत ही रमणीक है, इसमें सन्देह नहीं। इतने बड़े पैमाने पर यह काम हो रहा है कि बुध्दि चकरा जाती है। बता रहे थे अक्षय जैन, कि पिछले वर्ष 2001 में महामस्तकाभिषेक हुआ बड़े बाबा (आदिनाथ) का, तो देश के कोने-कोने से लगभग बीस लाख जैन धर्मावलम्बी यहां एकत्रा हुए थे।
वहां से बांदकपुर के रास्ते लौटना हुआ। बांदकपुर में शिव और पार्वती के मन्दिर आमने-सामने बने हैं। जैसे मैंने और कहीं नहीं देखे थे अभी तक। श्रावण मास में कांवरिये दूर-दूर से आते हैं यहां जल चढ़ाने। शिव-पार्वती का विवाह होता है। कहते हैं, तब पर्याप्त जल चढ़ चुका होता है, तब मन्दिरों की पताकाएं आपस में मिल जाती हैं। यह भी, कि मन्नतें मांगी जाती हैं। सीधो हाथ का छापा दीवाल पर लगाके। जब मनोकामना पूरी हो जाती है, तब उसी छापे के नीचे मन्नत मांगने वाला अपने उल्टे हाथ का छापा लगा देता है। जब हम पहुंचे, तब तक मंदिर के पट बंद हो चुके थे। बहुत पुराने नहीं हैं ये मंदिर। पन्ना के आसपास जैसे मंदिर देखे हैं, कुछ उसी तरह का स्थापत्य लगा इनका। यानी, छत्रासाल के समय के आसपास ही बने लगते हैं ये मंदिर।
कोई सवा दो बजे सर्किट हाउस पहुंचे। उसके पीछे जो जंगल है- मुझे बताया गया- प्रख्यात चित्राकार सैयद हैदर रज़ा के पिता यहीं कहीं रहते थे। रज़ा की चित्राकला पर इस बाल्यकालीन परिवेश की बहुत तगड़ी छाप है।
कोई साढ़े तीन बजे ज्ञानचंद श्रीवास्तव डिग्री कॉलेज के सभागार में कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। अनेक छात्रा-छात्रााओं को पुरस्कृत किया जाना था मुख्य अतिथि द्वारा। खासी लम्बी प्रक्रिया थी। कुछ शिक्षकों को भी सेवा-निवृत्ति के उपलक्ष्य में सम्मानित किया जाना था। कोई तीन बजे मेरे व्याख्यान की बारी आई।
अब पूर्व योजनानुसार तो नोहरा का मंदिर देखने जाना था। किंतु अंधेरा घिर आया था। मन मारकर वह इरादा त्यागना पड़ा। गाड़ी थोड़ी लेट थी। अच्छा ही हुआ, नहीं तो भोपाल मुंह अंधेरे पहुंचते। 6 बजे पहुंचे।
भोपाल, 30 मई, 02
सेक्युलरिज्म की यह तोतारटंत- क्या राजनीति कर्मियों की, और क्या हमारे मीडिया तथा बुध्दिजीवी कहलाने वाले वर्गों की- किसी भी विचारवान् आदमी के मन पर कैसी छाप छोड़ती है? मात्राा-ज्ञान और सहजविवेक की भी ऐसी-तैसी कर डालने वाला यह शब्द क्या खुद भी किसी धर्मोन्माद से कम है? अभी गोवा में प्रधानमंत्री वाजपेयी के भाषण की प्रतिक्रिया ही देख लें : एक कांग्रेसी नेता ने तो उन्हें 'पोटा' के तहत गिरफ्तार करने की ही मांग कर डाली। ऐसा क्या था उस भाषण में? इस्लाम को मूलत: शांति और सहिष्णुता का धार्म बताते हुए वाजपेयी जी ने उस जेहादी चेहरे का जिक्र ही तो किया था जो अब अकेले भारत के लिए नहीं, सारी दुनिया के लिए खतरा बन गया है। और क्या कहा गया था उस भाषण में? यही ना, कि हम हिंदुस्तानी तबसे 'सेक्युलर' हैं जब कोई मुस्लिम या ईसाई यहां नहीं पधारे थे। यह भी, कि हमारा धार्म अन्य मतावलम्बियों के आड़े नहीं आया कभी। इसमें ऐसा आपत्तिाजनक क्या था?
ऐसे ही, उस दिन दूरदर्शन पर मैंने खुद देखा और सुना था- यही तो कहा था वाजपेयी ने कि गुजरात में गोधरा के बाद जो कुछ भी हुआ, अत्यन्त निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। किंतु सभा में यह भी, कि गोधरा काण्ड की भी लोकसभा में निन्दा-प्रस्ताव पारित करते हुए भर्त्सना की जानी चाहिए थी, जो नहीं की गई। आशय उनका शायद यही रहा होगा कि तब शायद प्रतिक्रिया का चक्र इतना भीषण न चला होता। बहुत संभव है, अखबारों में या बुध्दिजीवी हलकों में इसका भी वैसा ही अनर्थ किया गया हो- मुझे याद नहीं।
अब..., ऐसे सेक्युलरिस्ट नपने से नापने पर तो क्या स्वयं पंडित नेहरू तक का सेक्युलरिज्म संकट में नहीं पड़ जाएगा?
आज के अख़बार में पं. नेहरू द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में सन् 1948 में दिया गया व्याख्यान छपा है जिसका एक अंश यों है:
I have said that I am proud of our inheritance and our ancestors who gave an intellectual and cultural pre-eminence to India.. How do you feel about this past? do you feel that you are also sharers in it and inheritors of it and, therefore, proud of something that belongs to you as much as to me? Or do you feel alien to it?*
(* मैं कह चुका हूं कि मुझे अपनी परम्परा और अपने पूर्वजों पर गर्व है जिन्होंने बौध्दिक और सांस्कृतिक क्षेत्रा में भारत को विश्व में अग्रणी बनाया। मैं आपसे पूछता हूं- भारत के इस अतीत के बारे में आप कैसा-क्या महसूस करते हैं, क्या आप खुद को उसका सहभागी-उत्ताराधिाकारी महसूस करते हैं? और इसलिए, क्या आप उस सम्पदा पर सचमुच गर्व करते हैं जो आपकी भी इतनी ही है, जितनी मेरी? याकि, आप उसे परायी वस्तु मानते हैं- और अपने को उसके सामने परदेसी-अजनबी महसूस करते हैं?)
क्या जरूरत पड़ी थी पं. नेहरू को उस घड़ी और उस जगह यह सवाल पूछने की? अगर वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में नहीं, कहीं और यह दीक्षान्त भाषण दे रहे होते तो क्या तरह की बात करने की उन्हें सूझती? ऐसा भी नहीं कि अब यह सवाल एकदम अप्रासंगिक हो गया हो। पर आज किसी भी सेम्युलरिस्ट से- नेहरूई सेक्युलरिज्म के राजनीतिक या अकादमिक किसी भी उत्ताराधिकारी से आप इस तरह की चिंता या स्पष्टवादिता की अपेक्षा नहीं कर सकते। यह काम तो तथाकथित 'हिन्दुत्ववादियों' या 'साम्प्रदायिक' शक्तियों को सौंपा जा चुका है कब का।
1 जून, 2002
It is my good fortune that after a whole milennia of error and confusion, I have rediscovered the way that lead to a Yes and a No.
I teach the No to all that makes weak and exhausts. I teach the YES to all that strengthens, that shores up strength, that justifies the feeling of strength.
-नीत्शे
सचमुच के विचारकों को सीधे ही पढ़ना चाहिये- किन्हीं, कैसे भी भाष्यकारों के जरिये कभी नहीं। यह बात नीत्शे की कृतियों से सीधे टकराने के बाद ही समझ में आई है। कई फालतू पूर्वग्रह इससे टूटे।
जहां आज के विखंडनवादी नकार से ही शुरू करके नकार में ही पर्यवसित हो जाते हैं, नीत्शे सकारात्मकता से ही आरंभ करता और उसी में अंत करता है। विखण्डन वह करता है अवश्य- वह और हाइडेगर ही आज के विखंडनाचार्यों के पूर्वज लगते हैं साफ़। परन्तु नीत्शे विखण्डन करने को इसलिए प्रेरित होता है कि पुनर्रचना का और कोई जायज़ ढंग उसे नहीं दिखता। नीत्शे कभी भी जीवन-दर्शन या 'ऑन्टोलॉजी' को इतिहास के साथ गडमड नहीं करता। कभी भी जीवन की समग्रता को जीवन के किसी एक अलग-थलग किये गए पहलू से समीकृत नहीं करता। कहता है- 'आधुनिक निराशावाद आधुनिक जगत् की व्यर्थता की अभिव्यक्ति है; न कि अस्तित्व (= सत्ता, बींग) के विश्व की।' वह शोपेनहॉर से गहरे प्रभावित हुआ अवश्य, परन्तु उसके निराशावाद में ही नहीं अटक गया। उसने यूनानी त्रासदी पर आंखें गड़ाई- 'अपोलोनियन' की बजाय 'डायोनीसियन' दृष्टि पर। ऐसा उसने जीवन का औचित्य स्थापित करने के लिए किया- भले ही यह जीवन अपना कितना ही त्रासद और अनंत उलझावों से भरा चेहरा ही क्यों न उद्धाटित करे। यह औचित्य नीत्शे कला में, सर्जनात्मकता में, मानवी पुरूषार्थ के उच्चतर प्रारूपों में पाता है।
फिर उसकी भाषा उसके कथ्य का अभिन्न अंग जान पड़ती है जिसमें कई बार उलझ जाने और अर्थ का अनर्थ हो जाने की संभावना बनी रहती है। इसलिए भी, कि वह 'पैरेडॉक्स' की भाषा है- संध्या-भाषा एक तरह की। आखिर जिसे वह खुद यूरोपीय सभ्यता की सान्ध्य-बेला कहता है, उसका दार्शनिक बनने में यह तो होना ही था।
8 जून, 02
फर्नान्दो पेसोआ। ऐसी इतनी निर्भ्रान्तिकारी, इस क़दर आदमी की अन्तरात्मा का आईना बन जाने वाली डायरी मैंने आज तक नहीं पढ़ी। कितना विचित्रा लग रहा है यह संयोग, कि सारा राय ने मुझे इसे पढ़ने को प्रेरित किया। हालांकि इसे पढ़ते हुए मैं विस्मय में हूं कि सारा को यह लेखक इतना प्रिय है। संयोग यह भी, कि प्प्ब् की लाइब्रेरी में पैठते ही इसी पर निगाह पड़ी- कुछ ऐसे, जैसे मेरे ही द्वारा पढ़े जाने की प्रतीक्षा कर रही हो।
Art frees us in an illusory fashion, from that sordid thing which is life. As long as we feel the woes and affronts of Hamlet, we do not feel our own.
Love, dreams, drugs and opiates are elemental types of art, or, rather of producing a similar effect. But love, dreams and drugs have their own proper
disillusionments
illusionments. Love either bores or disillusions.. Drugs price is the ruin of the self-same organism they helped to stimulate. but there is no disillusionment in art as illusion is permitted form the outset. No awakening in art as we do not sleep it, although we dream it. The enjoyment it provides, we do not have to pay for or to feel remorse about it. By art we should understand all that is a source of pleasure without it belonging to us, the smile proffered to someone else, the sunset, the poem, the objective universe.(1)
(1 कला हमें एक मायावी ढंग से मुक्त करती है- उस कीचड़ से, जो जीवन कहलाता है। 'हैमलेट' नाटक देखते हुए हम हैमलेट की यंत्राणाओं को अनुभव करते हैं, अपनी नहीं। प्रेम, ख्वाबों में रहना, या मादक द्रव्यों का सेवन अंतत: हमें मोहभंग में ला पटकते हैं। प्रेम उबाने लगता है या बुरी तरह हमारा मोहभंग कर देता है; मादक पदार्थ जिस शरीर को सुखोत्तोजना प्रदान करते हैं, उसी को नष्ट कर देते हैं। कला में मोहभंग इसलिए नहीं होता कि उसमें भ्रम रचने की पहले से ही छूट है : आप जानते हैं कि यह कल्पना-रचित संसार है। वह हमें नींद नहीं सुलाता- अपनी सरीखा अहसास भले कराये। कला से मिलने वाले सुख की वैसी कीमत नहीं चुकानी पड़ती; न पश्चाताप से गुज़रना पड़ता है। कला आनंद का वह स्रोत है, जो हममें स्वामित्व की भावना नहीं जगाता।)
To possess is to lose, to feel without possessing is to keep, since it is to extract the essence from something.(2)
(2 किसी चीज़ को अपनी सम्पत्ति समझना और बनाना ही उसे खो देना है। इस मोहाशक्ति से मुक्त होना ही दरअसल उस आनंद को पाना और सहेजना है क्योंकि किसी चीज़ को उसके मोह से मुक्त होकर प्यार करना उसका सारतत्तव पा लेना है।)
और यह साहित्य के बारे में (मैं नहीं समझता इससे ज्यादा चौंकाने वाली, मगर सचमुच ही परमार्थ की बात किसी ने कही है इस तरह) देखूं यह बात 'फर्न्दान्दो हिंदी में कहता तो कैसे कहता?
''समूचा साहित्य एक प्रयत्न है : जीवन को वास्तविक बनाने का। जैसा कि हर कोई जानता है, जीवन अपने प्रत्यक्ष रूपों में पूरी तरह अवास्तविक है: जो कुछ हम देखते-महसूसते हैं, उसका यथावत् संप्रेषण नामुमकिन है जब तक हम उस सबको साहित्य में परिणत नहीं कर देते। इस तरह देखा जाय तो बच्चे महान् लेखक होते हैं क्योंकि वे वैसा ही बोलते हैं जैसा महसूस करते हैं' न कि वैसा, जैसा अपने बड़ों के मुताबिक उन्हें बोलना चाहिए।
बोलना? क्या हम जानते हैं बोलना? कैसे लिखित आवाज़ और बौध्दिक बिम्बों का इस्तेमाल करते हुए होना-सचमुच होना! यह हम कर सकें तो सचमुच धन्य हो जाएं क्योंकि जीवन का मूल्य इससे ज्यादा कुछ नहीं है। बाकी तो नर-नारी, ... उनके मनगढ़न्त प्रेम, और झूठी आत्म-छलनाएं हैं। जैसे एक बार पत्थर के हटते ही उसके नीचे कुलबुलाते कीड़े भागते नज़र आते हैं, वैसे ही हैं हम मानव-जीव इस नीले आकाश तले....''
कितना पवित्रा, निर्धूम अग्नि में तपा हुआ नकार है इस आदमी का। आशाहीन नकार- जिसे जीवन-बोध कहें या जीवन-दर्शन ही कहें; पर ऐसा अतलान्त निर्मोह-निर्भ्रान्ति.... जिसे कोई नहीं छू सकता.......
When one suffers as I, as a cloud veils the sun, how could one not suffer from this obscurity from the perpetually overcast day of one's existence?
My isolation is not a search for happiness, which I have no courage to look for, nor for tranquility which no man can obtain except at the moment he can no longer lose it-- but for sleep, effacement, reasonable
renunciation. I am happiest when I think and know nothing, want nothing, dream about nothing, lost in a vegetable torpor... I savour without bitterness the absured consciouness of being nothing, a pre-taste of death and vanishing.
I've never been able to call anybody master. No Christ came down to die for me; no Buddha has shown me the way. No Apollo, no Athene ever appeared to light up my soul.
I prefer reality to truth: yes I prefer life even to god who created it. That is how he has given to to me, that is how I shal live it.3
(3 सत्य की अपेक्षा में वास्तविकता को पसंद करता हूं; हां, जीवन और ईश्वर के बीच चुनना हो तो मैं जीवन को ही चुनूंगा, ईश्वर को नहीं। जिसने जीवन रचा है आखिर, इसी तरह तो उसने भी मुझे यह मेरा जीवन दिया। तो उसी तरह मैं भी उसे जिऊंगा।)
कितना मर्मभेदी आत्म-साक्षात्कार है यह, जो आध्यात्मिक नहीं है, निरा मानवीय है। पर आत्म-स्वीकार के ही धरातल पर किस क़दर बेधक और सच्चा! फलसफे के स्तर पर अद्वैत की बात करना आसान है; पर रोज़मर्रा के इस दुर्दान्त तथ्य को क़बूलना इस तरह?.....
Nobody admits of the real existence of someone else. I consider more mine than most so called real people certain characters described in books. I've no shame in feeling like that since I realized that everybody feels like that. What might appear like to be a man's contempt for mankind is a result of the fact that nobody pays sufficient attention to the reality-- that others too are souls as well. On specific days I suddenly feel the grocer is a spiritual being. But.....
No. Others do not exist.4
(4 कोई भी किसी दूसरे के अस्तित्व को वास्तव में स्वीकारता नहीं है। तथाकथित वास्तविक चलते-फिरते लोगों की तुलना में उन चरित्रों को मैं ज्यादा अपना मानता-पाता हूं जो सिर्फ किताबों में मौजूद हैं। वैसा महसूस करने में मुझे कोई शर्म नहीं क्योंकि मैं कब का इस सत्य को जान चुका हूं कि सभी इसी तरह महसूस करते हैं। कोई इसे मानव-द्वेष, मानव-द्रोह, परपीड़न कुछ भी कह सकता है। परंतु जो भी हो, है वह इस तथ्य के परिणाम स्वरूप ही, कि कोई भी आदमी इस यथार्थ की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देता कि दूसरे भी उसी की तरह जीवात्माएं हैं। ठीक है, कभी-कभी मैं भी अपने बनिये को आध्यात्मिक प्राणी के रूप में महसूस करता हूं अचानक। परंतु.... नहीं; दरअसल 'दूसरों' का अस्तित्व ही नहीं है। )
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