आधारशिला जुलाई 2009 अंक

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खुला पृष्‍ठ : विकल्‍पहीनता के दौर में : दिवाकर भट्ट ( संपादकीय )

मंथन : पाठकों के पत्र

कहानी : अर्द्धांगिनी ( शैलेष मटियानी) 

देशान्‍तर : काफ्का की जीवनी ( एक चीनी यूनानी अन्‍तराल)

डायरी के पन्‍ने : वह घर तो कविता का ही घर ( रमेश चन्‍द्र शाह )

कहानी : महुवा घटवारिन ( पंकज सुबीर)

कला दीर्घा : चित्रकला के आयाम ( हरिपाल त्‍यागी )

सिनेमा : प्रकाश मेहरा ने इंडस्‍ट्री को दिया एंग्री यंग मेन ( दीप भट्ट)

लघु कथाएं : आलोक कुमार सातपुते, सुरेन्‍द्र मंथन

आलेख : जान स्‍टूअर्ट मिल और नारीवाद ( प्रभा दीक्षित )

उपन्‍यास : जलाक ( सुदर्शन प्रियदर्शिनी)

आलेख : बाज़ार में भटकता हुआ शब्‍द ( आलोक पाण्‍डेय)

कहानी : गिरगिट ( जितेन्‍द्र शर्मा )

आलेख : बोलना भी मना सच बोलना तो दरकिनार ( योगेंद्र कुमार )

आलेख : वे आफ एप्रोच टू रीडर्ज ( हरदर्शन सहगल )

कसौटी : पुस्‍तक समीक्षा (ऋषि कुमार चतुर्वेदी, किरण अग्रवाल )

ग़ज़लें : ( कुंवर बेचैन, आर.के. शर्मा )

कविताएं : ( कुसुम बुढलाकोटी, यतेन्‍द्रनाथ राही, सुरेश सेन निशान्‍त, नन्‍द किशोर )

तरंग : ( युगेश शर्मा, प्रत्‍यूष यादव )

खुला पृष्ठ ( सम्‍पादकीय)

विकल्पहीनता के इस दौर में

किसी भी देश, समाज में मनुष्य और उसके जीवन की बेहतर स्थितियों को लेकर चलने वाले अर्न्तद्वन्द्व में जो शक्तियां उभर कर आती हैं और उस समाज व देश की व्यवस्था का संचालन करती हैं, वे यदि विकल्पहीन स्थितियां पैदा करती हैं तो वह समाज विकास क्रम में अधिक दूर तक नहीं जा पाता। यह एक ऐसा सत्य है जिसे समझे बिना किसी बदलाव और अच्छे देश-समाज के नवनिर्माण की उम्मीद नहीं की जा सकती।
विश्व के दो तिहाई देशों में लोकतांत्रिक, राजनीतिक व्यवस्था तो है पर इन देशों में जनता अपनी बेहतर समाज व्यवस्था के लिए राजनीतिक विकल्प खड़ा नहीं कर पाती और राजनीति के भूल-भूलैये में ऐसी फंसा दी जाती है कि जैसे उस देश-समाज की अव्यवस्थाओं या कहें समस्याओं के लिए वही जिम्मेदार हो, उनसे निजात पाने के लिए सरकारें चुनने वाली लोकतंत्रा की यह जनता, तंत्रा के इस मकड़जाल से निकलने और बेहतर समाज निर्माण के लिए बेहतर राजनीतिक विकल्प तक खड़ा करने का आधार नहीं बना पाती। आज की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था ने जिस भ्रष्ट राजनीतिक सत्ता को प्रतिष्ठापित कर दिया है उससे समाज को कैसे निज़ात मिले और इसके लिए राष्ट्रीय चरित्रा के अच्छे लोग राजनीति में आएं, इस ओर कुछ होता नहीं दिखता, सिवाय इसके कि राजनीतिक दलों के लुभावने चुनावी वायदों के भूल भूलैया में भटकी मतदाता जनता एक दल को इस बार सत्तासीन करती है तो ठीक पांच साल बाद दूसरे दल को। इन दलों की अंदरूनी सांठ-गांठ यह रहती है कि बाहर से विरोधी दिखने का नाटक करते हुए अपनी-अपनी सत्ताओं में वे एक-दूसरे को मालपुए खिलाते और खाते रहते हैं और बारी-बारी से भ्रष्टाचार की जड़ों को सींचते हुए सत्ता सुख लेते रहते हैं। ऐसे में देश-समाज की समस्याएं और प्राथमिकताएं जाएं भाड़ में। बस सत्तासीनों की सत्ता बनी रहे और बुध्दिजीवी तबका जनता के सवालों के बीच मात्रा विमर्श से आगे न बढ़ पाए कमोवेश कोशिश यही रहती है! तब विकल्पहीनता कैसे दूर हो?
प्रश्न उठता है कि देश-समाज को बेहतर बनाने के लिए क्या पढ़े-लिखे कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार लोगों को समाज का नेतृत्व करने के लिए आगे नहीं आना चाहिए? उन्हें नेतृत्व सौंपने के लिए समाज का हर पढ़ा-लिखा तबका क्यों  जागरूक नहीं होता? यह चुनौती आज के समय में समाज के समक्ष है और यहीं से देश-समाज के नवनिर्माण का रास्ता भी खुलता है।
जहां एक आदर्श शिक्षित व संपन्न देश समाज और उसकी पारदर्शी, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था का निर्माण हो। क्या साहित्य, कला, संस्कृति, शिक्षा और ज्ञान के संवाहक इस ओर आज बिना आत्ममुग्ध हुए कुछ सोचते हैं? कि समाज का एक बड़ा तबका आज भी उन सब जरूरतों व अन्य सुख-सुविधाओं से वंचित है जो हम भोगते रहे हैं! और जिन्हें बर्गला कर ही आज सत्ता की राजनीति चलती रही है कि इनके समग्र विकास के बिना देश समाज आगे नहीं बढ़ सकता कि क्यों नहीं सोचते हम कुछ और सोचते हैं तो करते क्यों नहीं देश-समाज के लिए कुछ? इसी प्रश्न में छिपा है भविष्य का हल! आओ सोचें और बेहतर समाज के निर्माण के लिए एकजुट हो आगे आएं!  - दिवाकर भट्ट

मंथन : पाठकों के पत्र


'आधरशिला' की लंबी विकास यात्रा की साक्षी
'आधारशिला' के रजत जयंती वर्ष का पहला अंक। एक विरल आंतरिक तृप्ति से गुजरी। प्राय: सभी रचनाएं एवं स्तंभ विशेषकर 'देशांतर' के अन्तर्गत चेखव पर लिखा संस्मरण अभिभूत कर गया। इस सार्थक संचयन का संपूर्ण श्रेय आपको। यूं भी 'आधारशिला' की लंबी विकास यात्रा की साक्षी भी हूं, कायल भी। 'पुनर्पाठ' जैसे स्तंभ अत्यन्त उपयोगी हैं। आपके संपादकीय की साफगोई और विनम्रता प्रभावित करती है।
डॉ. सूर्यबाला, बी-504, रूनवाल सेंटर, देवनार (चेंबूर) मुंबई- 88

कवि नरेश सक्सेना का साक्षात्कार महत्वपूर्ण
'आधारशिला' काफी समृध्द पत्रिका है। सभी विषयों को आप इसमें समाहित कर रहे हैं। विशेषकर आपके संपादकीय काफी विचारोत्तोजक होते हैं। पढ़कर कई बार उन मुद्दों से सहमत होने का मन करता है। वरिष्ठ कवि रमेश चन्द्र शाह की डायरी तो इस पत्रिका का आकर्षण ही है। अनेक नई और भूली बिसरी बातें इसमें मिलती रही हैं। काफ्क़ा की जीवन भी बहुत महत्वपूर्ण है। आप कला पर भी प्रत्येक अंक में महत्वपूर्ण दे रहे हैं। खासकर नए, युवा और उभरते हुए चित्राकारों पर जो वास्तव में स्तुत्य है। जन.-फरवरी अंक में मेरे मित्र और वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना का साक्षात्कार अच्छा है। वे ईमानदार कवि हैं।
मनमोहन सरल, 4-402, जगत-विद्या, बान्द्रा- कुर्ला संकुल बान्द्रा पूर्व, मुंबई-51

पच्चीस वर्षों का जीवंत संघर्ष
पत्रिका 25 वर्षों से देश ही नहीं विश्व के कई देशों तक हिन्दी और हिन्दी साहित्य की अनुगूंज पहुंचा रही है। यह हमारे व देश के लिए आत्मगौरव की बात है कि हिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने की मुहिम में आप और पत्रिका दोनों लगे हैं। पिछले अंकों की तरह ही मई अंक भी अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति लिए पाठकों तक पहुंचा। इस अंक में पुनर्पाठ में विष्णु प्रभाकर की कहानी 'मेरा वतन' आज के संदर्भों में देश व इसके राजनीतिक नियंताओं को समझने-जानने के लिए महत्वपूर्ण दृष्टान्त है। इसी क्रम में कथाकार बल्लभ डोभल की कहानी भी इस व्यवस्था की पोल खोलती है। पंकज बिष्ट अपने इंटरव्यू में महत्वपूर्ण बातें रखते हैं। प्रवासी कलम में सुधा ओम धींगड़ा (अमेरिका) की कहानी मंदी के इस दौर की मानसिकता और सत्य को उजागर करती है। इस विषय पर उन्होंने अच्छी कहानी लिखी है। जो सामयिक होने के कारण ध्यान खींचती है। रमेश चन्द्र शाह की डायरी, हरिपाल त्यागी, सुषमा प्रियदर्शिनी व सिने कलाकार ललित तिवारी की कविताएं अच्छी हैं। कला दीर्घा व सिनेमा कालम में भी आप अच्छी सामग्री दे रहे हैं, जो दूसरी पत्रिकाओं में नहीं होती है।
अभिषेक रंजन, साल्ट लेक स्ट्रीट कोलकाता (पं.बंगाल)

'अन्ना' मर्मस्पर्शी कहानी
पत्रिका का पहला रजत जयंती अंक। अब तक इस अंक को जितना पढ़ पाया, मुझे सामग्री पठनीय और उपयोगी लगी। विशेषकर पुर्नपाठ के अन्तर्गत पानू खोलिया की कहानी 'अन्ना' बेहद मर्मस्पर्शी है। नरेश सक्सेना की कविता प्रभावी है। सिनेमा में शर्मिला टैगोर के वक्तव्य सामयिक और विचारणीय हैं।
सी. भास्कर राव, जमशेदपुर (झारखंड)

उत्ताराखण्ड से प्रकाशित साहित्य की एकमात्र महत्वपूर्ण पत्रिका
'आधारशिला' का मई अंक पढ़ा। पत्रिका ने साहित्य जगत में जो अपनी विशिष्ट पहचान कायम की है, वह आपके 25 साल के कठोर श्रम और निष्ठा का ही परिणाम है। उत्ताराखण्ड से प्रकाशित यह एकमात्रा पत्रिाका है जो साहित्यिक सरोकारों से इतने गहरे जुड़ी है। विज्ञान व्रत के चित्रा, हरिपाल त्यागी की कविताएं और शक्ति सामंत के संस्मरण मई अंक की खासियत हैं। आपने 'आधारशिला' के रूप में साहित्यिक बिरादरी को मुखर होने के लिए जो मंच प्रदान किया है, वह सचमुच पत्रिाका से बढ़कर एक रचनात्मक अभियान ही है, जिसकी सफलता का सम्पूर्ण श्रेय आपकी अंतरंगता, संपर्कों व श्रम को जाता है।
मोहन सिंह रावत, शोध अधिकारी स्टोनले कंपाउण्ड, तल्लीताल, नैनीताल- 2

संपादकीय उद्वेलित करता है
पत्रिका विविधता और गुणवत्ता से परिपूर्ण है। आपकी 'बात की बात' अंदर तक उद्वेलित करती है। आकंठ तक आनन्द आता है। रमेश चन्द्र शाह के डायरी के पन्ने, काफ्क़ा की जीवनी और सिनेमा के स्तंभ काफी प्रेरणादायक होते हैं। कहानी, कविता और साक्षात्कार महत्वपूर्ण हैं।
शिवानन्द सहयोगी, मवाना रोड, मेरठ

अच्छी सामग्री दे रही है पत्रिका
'आधारशिला' का मई अंक पढ़ा। निश्चय ही पत्रिका निरन्तर बहुत अच्छी सामग्री दे रही है। अशोक की काफ्क़ा को लेकर अनूदित की गई लेखमाला काफ्क़ा को समझने की नई दृष्टि तो देती ही है, अशोक ने जिस आत्मीयता और अंतरंग भाषा में अनुवाद किया है वह अभूतपूर्व है। इस सहजता से हिन्दी में अशोक ही अनुवाद कर सकता है।
इस अंक में दूसरी तमाम रचनाएं भी अविस्मरणीय हैं। शाह जी की डायरी की दुनिया में प्रवेश और उसे जीना भी अपने आप में बड़ा अनुभव है। पंकज बिष्ट की बातचीत को और विस्तृत होना चाहिए। मुझे लगता है कि हमारे समय को लेकर पंकज अपनी रचनाओं और 'समयांतर' के माध्यम से जो दृष्टि दे रहे हैं, उसे हिन्दी की कौन सी दूसरी पत्रिका प्रस्तुत कर पा रही है? भारतीय विचारकों की मुख्यधारा के चिंतन को शायद यह पत्रिका पहली बार इस विस्तार से प्रस्तुत कर रही है। समीक्षाएं और साहित्य क्षेत्रा की हलचलें भी उल्लेखनीय हैं। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें। अब त्रिालोचन अंक की प्रतीक्षा है। आप हर अगले अंक में आगे बढ़ रहे हैं।
बटरोही, निदेशक महादेवी वर्मा सृजनपीठ, कुमाऊं वि.वि. रामगढ़ (नैनीताल) 

अपनी तरह की विशिष्ठ पत्रिका
पत्रिका के ताजा अंक में चर्चित लेखक विष्णु प्रभाकर और बल्लभ डोभाल की कहानियां आज की व्यवस्था पर करारी चोट करती हैं। वहीं प्रवासी भारतीय लेखिका सुधा धींगड़ा की कहानी 'एक्जिट' मौजूदा बाजार और प्रवासी भारतीयों की 'पैसा कमाऊ' संस्कृति को बेनकाब करती है। मौजूदा दौर में विश्व मंदी पर लिखी गई यह अपनी तरह की पहली कहानी है। पत्रिका में देशान्तर में छपने वाला अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य पत्रिका को व्यापक स्वरूप देता है। 'आधारशिला' हिन्दी साहित्य, संस्कृति की अपनी तरह की एकमात्रा पत्रिका है जो पाठकों को लोक जीवन व कला से लेकर विश्व साहित्य-कला की  क्षितिज तक जोड़ती है। आपके इस साहित्यिक मिशन में हम सब साथ हैं। रजत जयन्ती वर्ष से नए तेवरों के साथ पत्रिाका हमारे बीच है।
अनामिका सिंह, टोंक रोड, जयपुर (राजस्थान) 

आज की दु:स्थितियों पर पुनर्विचार
'आधारशिला' मई 2009 का अंक मिला, आभार। आपका संपादकीय आज की दु:स्थितियों पर एक पुनर्विचार है। कहानियों में मेरा वतन (विष्णु प्रभाकर), कोढ़ खाज (बल्लभ डोभाल), एग्जिट (सुधा ओम धींगड़ा) काफी अच्छी हैं। विष्णु प्रभाकर की कहानी काफी प्रभावित करती है। पंकज बिष्ट का साक्षात्कार अच्छा है। वही प्रभा दीक्षित का स्त्री विमर्श पर आलेख खोजपूर्ण और संग्रहणीय है। हरिपाल त्यागी की कविताएं, ललित मोहन की कविताएं और बिष्ट की ग़ज़लें प्रभावित करती हैं। 'द ट्रायल' काफ्क़ा को समझने में मदद करता है। कुल मिलाकर अंक अच्छा बन पड़ा है।
कलाधर, नया टोला, पूर्णियां (बिहार)

पाठकों की बौद्धिक खुराक
'आधारशिला' निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर है। रजत जयन्ती पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार हो। आप देशी-विदेशी साहित्य को बिना भेदभाव के एक मंच प्रदान कर अच्छा कार्य रहे हैं। पाठकों की बौध्दिक खुराक की प्रतिपूर्ति एक ही पत्रिका से पूर्ण हो रही है। यह अंक भी पिछले अंकों की तरह अपनी श्रेष्ठता को बयान कर रहा है। पहली बार जाना कि श्री विज्ञान व्रत कवि ग़ज़लकार के अलावा एक चित्राकार भी हैं।
उषा यादव 'उषा', मंदाकिनी विहार, सहारनपुर (उ.प्र.) 

साहित्य को पाठकों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य
पत्रिका में रमेश चन्द्र शाह की डायरी जहां साहित्य, कला जगत का कई परतें खोलता है तो वहीं काफ्का की जीवनी साहित्य से दर्शन तक ले जाकर पाठक को उद्वेलित करती है। कहानियों में विष्णु प्रभाकर, बल्लभ डोभाल, सुधा ओंम धींगड़ा (अमेरिका) ने विशेष प्रभावित किया। आज की समाज व्यवस्था को लेकर आपका संपादकीय हर बार महत्वपूर्ण होता है। पत्रिका ने अपने पच्चीस साल की यात्रा में हिन्दी व विश्व साहित्य को पाठकों तक पहुंचाने के लिए महत्वपूर्ण काम किया है। हिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने की मुहिम में भी पत्रिका शामिल है। यह महत्वपूर्ण बात है। पत्रिका के लिए हमारा हर तरह का सहयो आपके साथ है ताकि हिन्दी व साहित्य की यह मुहिम पूरे विश्व में फैले।
सुधीर रंजन, चर्च रोड पणजी, गोवा 

समृद्ध करती रचनाएं
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रमुख तथा रचनारत साहित्य सर्जकों की रचनाएं पत्रिका को और पढ़ने वालों को समृध्द करती है। इसके लिए आपको तथ आपकी टीम को बधाई। पिछले अंक में पानू खोलिया की महत्वपूर्ण कहानी 'अन्ना' छपी है खूब!
सनत कुमार, 95 बृजेश्वरी एनेक्स इंदौर (म.प्र.) 

पत्रिका का इंतजार रहता है
अन्य पत्रिकाओं से इतर 'आधारशिला' में कई ऐसी महत्वपूर्ण सामग्री रहती है कि इसके हर अंक का इंतजार रहता है। बाजारवाद व उपभोक्तावादी इस दौर में आज जिस मिशन व संघर्ष से पत्रिाका को जन-जन तक पहुंचा रहे हैं, वह अनुकरणीय है। पत्रिका के स्थाई स्तंभों में भी काफ्का से लेकर शाह जी की डायरी, विष्णु प्रभाकर, बल्लभ डोभाल, सुधा ओम धींगड़ा की कहानियां, चित्राकार हरिपाल त्यागी की कविताएं, वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट से बातचीत महत्वपूर्ण है। पत्रिका के हर अंक का इंतजार रहता है।
शंभुनाथ शुक्ल, बोरिंग रोड, पटना (बिहार) 

लोकतंत्र की विडंबना ठीक उजागर की
अपने संपादकीय 'बात की बात' में 'लोकतंत्रा की विडंबना' आपने ठीक उजागर की है। आपकी चिंता सर्वथा उचित है तथापि प्रबुध्दों पर जूं नहीं रेंगेगी। वे तट पर खड़े तमाशा ही देखेंगे। इसका प्रमाण अपेक्षा से कम हुआ वोटिंग प्रतिशत है। 'कोढ़-खाज' भी इसी व्यवस्था पर बल्लभ जी की तिलमिलाहट है। पर्याप्त समीक्षाएं और साहित्यिक समाचार पढ़कर भी अच्छा लगा।
चन्द्रसेन 'विराट', 121, वैकुण्ठधाम कालोनी, आनन्द बाजार के पीछे, इंदौर (म.प्र.)

(पुनर्पाठ ) कहानी- अर्द्धांगिनी - शैलेश मटियानी

शैलेष मटियानी
(प्रसिध्द लेखक शैलेश मटियानी ने अपनी लंबी साहित्यिक यात्राा में हिन्दी साहित्य की श्रीवृध्दि में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी कई कहानियां हिन्दी की महत्वपूर्ण कहानियों में शामिल हैं। उन्हीं में से एक अर्द्धांगिनी महत्वपूर्ण कहानी है, जिसे उनकी प्रतिस्मृति में पाठकों के लिए पुनर्पाठ कालम में यहां दिया जा रहा है।,)
टिकटघर से आखिरी बस के जा चुकने की सूचना दो बार दी जा चुकने के बावजूद नैनसिंह के पांव अपनी ही जगह पर जमे रह गये। सामान आंखों की पहुंच में, सामने अहाते की दीवार पर रखा हुआ था। नजर पड़ते ही, सामान भी जैसे यही पूछता मालूम देता था, कितनी देर है चल पड़ने में? नैनसिंह की उतावली और खीझ को दीवार पर रखा पड़ा सामान भी जैसे ठीक नैनसिंह की ही तरह अनुभव कर रहा था। उसमें एक हल्का-सा कम्पन हुए होने का भ्रम बार-बार होता था, जबकि लोहे के ट्रंक, वी.आई.पी. बैग और बिस्तर-झोले में कुछ भी ऐसा न था कि हवा से प्रभावित होता।
सारा बंटाढार ट्रेन ने किया था, नहीं तो दीया जलने के वक्त तक गांव के ग्वैठे में पांव होते। ट्रेन में ही अनुमान लगा लिया था कि हो सकता है, गोधूलि में ही घर लौटती गाय-बकरियों के          साथ-साथ ही खेत जंगल से वापस होते घर के लोग भी दूर से ही देखते कि ये अपने नैनसिंह सूबेदार- जैसे कौन चले आ रहे हैं? खास तौर पर भिमुवा की मां तो सिर्फ धुंधली-सी आभा मात्रा पकड़ लेतीं कि कहीं रमुवा के बाबू तो नहीं? 'सरप्राइज भिजिट' मारने के चक्कर में ठीक-ठीक तारीख भले ही नहीं लिखी, मगर महीना तो यही दिसम्बर का लिख दिया था? तारीख न लिखने का मतलब तो हुआ कि यह कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष- सब देखे।
कैसी माया है कि छुट्टियों पर जाने की कल्पना करने के समय से ही चित्ता के भटकने का एक सिलसिला-सा प्रारम्भ हो जाता है। कैण्ट की दिनचर्या जैसे एक बवाल टालने की वस्तु हो जाती है। स्मृति में, मुंह-सामने के वर्तमान की जगह, पिछली छुट्टियों में का व्यतीत छा जाता है। पहाड़ की घाटियों में कोहरे के छा जाने की तरह, जो खुद तो धुंध के सिवा और कुछ नहीं, मगर जंगलों और पहाड़ों तक को अंतर्धान कर देता है। आखिर यही मोहग्रस्तता घर के आंगन में पहुंचने-पहुंचने तक, कहीं भीतर-भीतर उड़ते पक्षियों की तरह साथ-साथ चलती है।
दिखाई कुछ भी सिर्फ सपनों में पड़ता है, लेकिन आवाज़ तो जैसे हर वक्त व्याप्त रहती है। क्या गजब कि टनकपुर के समीप पहुंचते-पहुंचते आंख लग गई थी, जबकि आंख खुलने के बाद, फिर रात से पहले सोने की आदत नहीं। जाने कौन साथ में यात्राा करती महिला बाथरूम की तरफ निकली होगी, बिल्कुल भिभुवा की मां के पांवों की-सी आवाज हुई थी। छुट्टियों में घर पर रहते हैं, तब ध्यान नहीं जाता। लौट आते हैं, तब याद आता है कि भैंसियाछाने में इंतजार करते, सिगरेट पीते, कोई फिल्मी गाना गा रहे होते। आसमान में या चंद्रमा होता था, या सिर्फ तारे। रात के सन्नाटे में एक तरफ सौंलगाड़ का बहना कानों तक आ रहा था- दूसरी तरफ, घर का काम निबटाकर आ रही सूबेदारनी के झांवरों की आवाज।
आवाज ही क्यों, धीरे-धीरे आकृति भी उपस्थित होने लगती है। धीरे-धाीरे तो बाबू-बच्चों- सभी की, मगर मुख्य रूप से उसी की, जो कि दो-तीन वर्षों के अन्तराल में छुट्टियों की तैयारी शुरू होते ही, प्रकृति की तरह प्रगट होती है। जिसके साथ पिछली छुट्टियों में बिताया गया समय कबूतरों की तरह कंधों पर बैठता, पंख फड़फड़ाता अनुभव होता है। मन में होता है कि यह ट्रेन ससुरी, तो बार-बार ऐसे अड़ियल घोड़ी की तरह रुक जाती है- यह क्या ले चलेगी, हम  इसे उड़ा ले चलें। रेलगाड़ी-बस से यात्राा करते रास्ता पैदल ही नाप रहे होने की-सी भ्रांति घेरे रहती है। गाड़ी रुकते ही, देर तक गाड़ी के डिब्बे में पड़े रहने की जगह, आगे पैदल चल पड़ने को मन होता है। एक गाड़ी से नीचे, तो अगला कदम सीधे घर  के आंगन में रखने का मन होता है। घर पहुंच चुकने के बाद तो उतना ध्यान नहीं रहता, लेकिन पहले यही सुबह के उजाले में   क्या आलम रहता है कि शाम के धुंधलके या रात के अंधोरे में क्या उस स्थान की, जहां कि सूबेदारिनी हुआ करती हैं। स्मृति के संसार में विचरण करते  में जैसे और ज्यादा रूप पकड़ती जाती हैं। स्वभाव भी क्या पाया है। अकेले ही सारी सृष्टि चलाती जान पड़ती हैं। सृष्टि है भी कितनी। जितनी हमसे जुड़ी रहे।
पींग-पींग की लम्बी आवाज सुनाई पड़ी, तो भ्रम हुआ कि कहीं कोई स्पेशल बस तो नहीं लग रही पिथौरागढ़ को, लेकिन यह तो ट्रक था। निराश हो, नैनसिंह ने मुंह फेरा ही था कि फिर पींग-पींग! - अब ध्यान आया कि ठीक ड्राइवर वाली सीट की बगल में बाहर निकला कोई हाथ, ''इधर आओ, इधर आओ' पुकार रहा है।
नैनसिंह ने नहीं पहचाना। बनखरी वाली दीदी का हवाला दिया, तो नाता जुड़ा कि अच्छा, क्या नाम कि जसौंती प्रधान का मंझला खीमा है। हां, सुना तो था कि इन लोगों की गाड़िया चलती हैं। खीम सिंह का बोलना, देवताओं के आकाशवाणी करने का-सा प्रतीत होता गया और साथ चलने का 'सिग्नल' पाते ही, नैनसिंह सूबेदार सामान ट्रक में रखवाने की युध्दस्तर की तत्परता में हो गये। जैसे कि यह ट्रक ही एकमात्रा और आखिरी साधन रह गया हो गांव पहुंचने का। अच्छा होता, अम्बाला से ही एक चिट्ठी बनखरी वाली दीदी को भी लिख दी होती कि फलां तारीख के आस-पास घर पहुंचने की उम्मीद है। घर वालों ने जागर भी बोल रखा है और हाट की कालिका में पूजा भी देनी हुई। तुम भी एक-दो दिनों को जरूरी चली आना। बहनोई तो पाकिस्तान के साथ की दूसरी लड़ाई के दिनों में मारे गये, पेंशनयाफ्ता औरत है। भाई-बहन के साथ-साथ, कुछ एक ही कर्मक्षेत्रा का रिश्ता भी बनता है। पिथौरागढ़ के ज्यादातर गांवों की विधवाओं में तो फौज में भर्ती हुए लोगों की ही होंगी, नहीं तो पहाड़ के स्वच्छ हवा-पानी में बड़ी लम्बी उम्र तक जीते हैं लोग।
ट्रक के स्टार्ट होते ही, नैनसिंह को जैसे पंख लग गये हों। ट्रक का रूप कुछ ऐसा हो गया था, जैसे कि नैनसिंह सूबेदार बैठे हैं, तो वह भी चला चल रहा है पिथौरागढ़ को, नहीं तो कहां इस सांझ के वक्त टनकपुर से चम्पावत तक की चढ़ाई चढ़ता फिरता।

खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि रात को आज चम्पावत में ही पड़ाव करना होगा, लेकिन सुबह दस बजे तक पिथौरागढ़ सामने। यहां, टनकपुर में ही ठहर जाने का मतलब होता, कल संध्या तक पहुंचना। हालांकि घर तो जो आनन्द ठीक गोधूलि की वेला में पहुंचने का है, दोपहर को कहां। शाम का धुंधलका आपको तो अपने में आवृत्ता रखता हुआ-सा पहुंचाता है, लेकिन जहां घर पहुंचना हुआ कि उसे कौन याद रखता है।
देखिये तो काल भी अजब वस्तु है। सब जगह-और सब समय-काल भी एक-सा नहीं। संझा का समय जो मतलब पहाड़ में रखता है, खासतौर पर किसी गांव में वह मैदानी शहरों में कहां? पिछले वर्ष ठीक संध्या झूलते में पहुंचना हुआ था और संयोग से घर के सारे लोगों से पहले रुक्मा सूबेदारनी उर्फ भिमुवा की अम्मा का हाल और क्या खुद सूबेदार साहब का? क्या गजब कि पन्द्रह साल पहले, चैत के महीने में शादी हुई थी और बन की हिरनी का-सा चौंकना अभी तक नहीं गया।
भीड़भाड़ वाला क्षेत्रा पार करते, खीमसिंह के साथ आशल-कुशल और नाना दीगर संवाद करते तथा कैप्सटन सिगरेट की फूंक उड़ाते भी, नैनसिंह सूबेदार व्यतीत के धुंधलकों में डूबते ही चले गये। खीमसिंह ट्रक के साथ-साथ, खुद को भी ड्राइव करता जान पड़ता था। उसकी सारी इद्रियां जैसे पूरी तरह ट्रक के हवाले हो गई थीं। और देखिये तो यह टनकपुर से पिथौरागढ़ की तरफ को जाते, या उस तरफ से आते, हुए रास्ते पर गाड़ी चलाना भी किसी करिश्मे से कम कहां है। पलक झपकते में ऐसे-ऐसे मोड़ हैं कि ड्राइवर का ध्यान चूकते ही, बसेरा नीचे घाटी में ही मिलना है।
ट्रक, रफ्तार से ज्यादा, शोर कर रहा था। आखिर दो-तीन किलोमीटर पार करते-करते में ही, पहले ट्रेन में रात-भर ठीक से न सो पाने की भूमिका बांधाी और फिर आंखें बन्द कर लीं, नैना सूबेदार ने, मगर नींद कहां। आंख बन्द रखने में सड़क ट्रक के साथ मुड़ती ही जान पड़ती थी, ट्रक सड़क के साथ जाता हुआ। नीचे अब अतल लगती-सी मीलों गहरी घाटियां हैं और खीमसिंह का या खुद ट्रक का ध्यान जरा-सा भी चूका नहीं कि...
सूबेदार नैनसिंह ने, हड़बड़ाकर, आंखों को खोल दिया, तो सामने का एक-एक परिदृश्य 'आंखें क्यों बन्द कर ले रहे हो' पूछता-सा दिखाई पड़ा। सचमुच में नींद हो, तो बात और है, नहीं तो टनकपुर-पिथौरागढ़ की अधर में टांगती-सी सड़क पर कहां इतनी निंश्चिंतता कि आंखें बन्द किये, रुक्मा सूबेदारनी की एक-एक छवि को याद करे रहो। पिछली छुट्टियों में रामी, यानी रमुआ सिर्फ डेढ़ साल का था और स्साल उल्लू का बच्चा बिल्कुल बन्दर के डीगरे की तरह, मां की छाती से चिपका रहता था। इस बार की छुट्टियों के लिये तो सूबेदार ने तब एक ही कोशिश रखी कि दो लड़के 'मोर दैन सफिशियेंट' माने जाने चाहिये, जरूरत अब सिर्फ एक कन्याराशि की है। कुछ कहिये, साहब, जो आनन्द कन्या के लालन-पालन में है, जैसे वह आईने की तरह आपको अपने में झलकाती-सी बोलती-बतियाती है- वह बात ससुरे लड़कों में कहां। इसीलिये पिछली बार प्राण-प्रण से लड़की की कोशिश थी और उसी कोशिश में थी यह प्रार्थना कि- ''हे मइया, हाट की कालिका। आगे क्या कहूं, तू खूद अन्तर्यामिनी है।''
चलते-चलते, यह भी याद आ गया नैनसिंह सूबेदार को कि अबकी बार घर से इस प्रकार की कोई खबर चिट्टी में नहीं आई। लगता है, मइया पूजा पाने के बाद ही प्रसाद देगी। वह भी तो आदमी के सहारे है। जैसी जिसकी मानता हो, वैसी समरूप वो भी ठहरी।

निराशा के सागर में आशा के जहाज की तरह ट्रक उदित होने वाले खीमसिंह के प्रति अहसान की भावना स्वाभाविक ही नहीं, जरूरी भी थी, क्योंकि मिलिट्री की नौकरी से घर लौटते आदमी की छवि ही कुछ और होती है, लोगों में। फिर खीमसिंह से तो दीदी के निमित्ता से भी रिश्ता हुआ। लगभग हर दस-पन्द्रह किलोमीटर के फासले पर ट्रक को विश्राम देते हुए खीमसिंह को चाय-पानी, गुटुक-रायते को पूछना खुद की जिम्मेदारी ही लगती रही सूबेदार को। बीच-बीच में सीटी बजाने और गाने की कोशिश भी इसी सावधानी में रही कि खीमसिंह को पता चले, ये सब तो बहुत मामूली बातें हैं। बस का किराया बच भी गया है, तो घर में बच्चों के हाथ में रखने को तो कुछ रुपये जबर्दस्ती भी देने ही होंगे। टिकट के पैसों से दूने ही बैठेंगे, क्योंकि अभी तो चम्पावत में पड़ाव होना है और वहां रात का डिनर भी तो सूबेदार के ही जिम्मे पड़ेगा। मगर खुशी इस बात की है कि टनकपुर अगरचे कहीं होटल में रहना पड़ गया होता, तो जेब जो कटती, सो कटती, यह आधा पहाड़ कहां पार हुआ होता। अब तो जहां आती जाती, खेतों में काम करती औरतें दिख जा रही हैं, सभी में रुक्मा सूबेदारनी की छाया गोचर होती है।
अभी-अभी भूमियाधार की चढ़ाई पार करते में, वो ऊपर धुरफाट में न्यौली गाती कुछ औरतें अपने को ही हृदय का हाल सुनाती जान पड़ रही थीं। जैसे कहती हों कि पलटन से लौट रहे हो, हमारे लिये क्या लाये हो। मन तो हुआ कि कुछ देर ट्रक रुकवा कर, या तो उन औरतों के पास तक खुद चल दिया जाए और या उन्हें ही संकेत किया जाए कि यहां तक आकर न्यौली 'टेप' करा जाएं। फिलिप्स का ट्रांजिस्टर-कम-टेपरिकार्डर यानी 'टू इन वन' इसी मक्सद से तो लाये हैं।- लेकिन सर्वप्रथम बाबू से कुछ जागर गवाना है- तब खुद सूबेदारनी की न्यौली 'टेप' करनी है। मां तो परमधाम में हुई। कुछ ही साल पहले तक दोनों सास-बहू मिलके न्यौली गाती थीं और ज्यादा रंग में हुईं, तो एक दूसरे-की कौली भर लेती थीं।
स्त्राीत्व भी क्या चीज हुआ। सारे ब्राहाण्ड में व्याप्त ठहरा। कोई ओर-छोर थोड़े हुआ इनकी ममता का। अपरम्पार रचना हुई। नाना रूप, नाना खेल। देखिये तो क्या कर सकता है, हजार बंदिशों का मारा बंदा। इच्छा कर लेता है, सब्र कर लेता है। सूबेदारनी से मिलती-जुलती, और खुद के हृदय का हाल सुनाती-सी औरतों का ओझल होना देखते चल रहे हैं, नैनसिंह सूबेदार भी। सवारी का साधन भी एक निमित्ता-मात्रा हुआ, चलने वाला तो हर हाल में आदमी ही ठहरा। आदमी चलता रहे, तो गाड़ी-मोटर, सड़क, खेत-खलिहान, पेड़-जंगल और पशु-पक्षी भी साथ चलते रहे। आदमी रुका, तहां सभी रुक गये। आदमी के देखते तक में अपरम्पार सृष्टि का सभी-कुछ प्राण्ावान और विद्यमान हुआ। आदमी से ओझल होते ही, सब-कुछ शून्य हो जाने वाला ठहरा।
क्या है कि ध्यान धरता है आदमी। ध्यान करता है, आदमी। ध्यान से ही सूबेदारनी भी ठहरी। औरतें सब लगभग समान हुई और लगभग सभी माता-बहन-बेटी इत्यादि, लेकिन किसी की कोई बात ध्यान में रह गई, किसी को कोई। मां का स्वयं के परमधाम सिधारते समय का, 'नैनुवा रे' कहते हुए पूरी आकृति पर हाथ फिराना ध्यान में रह गया है, तो रुक्मा सूबेदारनी का देखते ही हिरनी का-सा चौंकना। फोटू कैमरा-मैन हो जाने वाली ठहरी यह औरत और आपके एक-एक नैन-नक्श को पकड़ती, प्रकट करती ऐसा ध्यान खींच ले कि पन्द्रह सालों की गृहस्थी में भी आंखें की आब ज्यों-की-त्यों हुई। और बाकी तो शरीर में जो है, सो है, मगर आंखें क्या चीज हुई कि प्राणत्व तो यहीं झलमल करता हुआ ठहरा। फिर रुक्मा सूबेदारनी का तो हाल क्या हुआ कि खीमसिंह 'स्टीयरिंग ह्वील' को हाथों से घुमा रहा है, तैसे आपको सूबेदारनी सिर्फ आंखों से घुमा सकने वाली ठहरी। यह बात दूसरी हुई कि अनेक मामलों में वो 'रिजर्व फॉरेस्ट' ही ठहरीं।

नैनसिंह सूबेदार का अनायास और अचानक का ही हंस पड़ना, जैसे  जंगल की वनस्पतियों और पक्षियों तक में व्याप्त हो गया। खीमसिंह का धयान भी चला गया इस अचानक के हंस पड़ने पर, तो उसने भी यही कहा कि  'फौज का आदमी तो, सब इन्हीं चार दिनों की छुट्टियों में जी भर हंस- बोल और मौज-मजाकर लेता है, दाज्यू! कुछ जानदार वस्तु तो आप जरूर साथ लाये होंगे? यहां तो पहाड़ में ससुरी आजकल डाबर की गऊमाता का दूध-मूत चल रहा है। मृतसंजीवनी सुरा! थ्री एक्सरम, ब्लैकनाइट-पीटरइस्कौट ह्विस्की और ईगल ब्राण्डी-जैसी वस्तुएं तो औकात से बिल्कुल बाहर पहुंचा दी हैं सरकार ने।''

चम्पावत आते ही, खीमसिंह ने ट्रक को पहचान के ढाबे के किनारे खड़ा कर दिया। कुछ ऐसे ही मनोभाव में, जैसे गाय-भैंस थान पर बांध रहा हो। उंगलियों की कैंची फंसाकर, लम्बी जमुहाई लेते हुए, 'जै हो, कालिका मइया की, आधा सफर तो सकुशल कट गया।' कहा उसने और दृष्टि सूबेदार की तरफ स्थिर कर दी।
अर्थ तो रास्ता चलते ही समझ लिया था, और मन भी बना लिया कि जाता ही देखो, तो दिल दरिया बना लो। हंसते हुए ही इंगित कर दिया कि मामला ठीक-ठाक है। खीमसिंह का तो रोज का बासा हुआ। जितनी देर में खीमसिंह ढाबे की तरफ निकला, सूबेदार ने अपनी वी.आई.पी. अटैची खोलकर, उसमें हैण्डलूम  की कोरी धोती में लपेटी हुई कोटे की 'थ्री-एक्स' बोतलों में एक बाहर निकाली। कुछ द्विविधा में जरूर हुए कि कोई खाली अध्दा पड़ा होता, तो 'फिफ्टी-फिफ्टी' कर लेते। ड्राइवरों-क्लीनरों की नजरों से तो बाकी छुड़ाना कठिन हो जाता है। जब तक किसी तरह की व्यवस्था करते, खीमसिंह सिर्फ कटी प्याज, बल्कि कलेजी-गुर्दा-दिल-फेफड़े के साथ ही आलू भी मिलाये हुए भुटुवे की, भाप उठती प्लेट लेकर उपस्थित। कहो कि पानी का जग लाना रह गया, तो इतने में आधी बोतल थर्मस में कर लेने का अवसर मिल गया। चलो, अब कहने को हो गया कि कुछ रास्ते में ले चुके, बोतल में बाकी जो बच रही, सो ही आज की रात के नाम है।
गनीमत कि क्लीनर हरीराम कुछ ही दूरी के अपने गांव चला गया और खीमसिंह ने भी मरभुक्खापन नहीं दिखाया। सच कहिये, तो आदमी के बारे में अपना हिसाब, या अपनी तरफ, से आखिरी बात भूलकर तय न करे कोई। बहुत रंगारंग प्राणी हुआ करता है। इसकी आंखें में पढ़ रहे हैं आप कुछ और ही, मगर दिल में उसके जाने क्या है। एक-एक पैसे को सांसों की तरह इकट्ठा करके चलना होता है छुट्टियों पर, क्योंकि बंधन हजार हैं। ऐसे में पैसा शरीर में से बोटी की तरह निकलता जान पड़ता है, क्योंकि गांव-घर, अड़ौस-पड़ौस में ही अगर न हुआ कि  नैनसिंह सूबेदार का छुट्टियों पर घर आना क्या होता है, तो नाक कहां रही। और अब इसे भी तो नाक रखना ही कहेंगे कि भुटुवा और पराठे-शिकार-भात, डिनर का सारा खर्चा खीमसिंह ने अपने जिम्मे लगा लिया कि- ''दाज्यू, चम्पावत से अपना होमलैण्ड शुरू हो जाता है। आज तो आप हमारे 'गेस्ट' हो। खाने की बंदोबस्त हमारी तरफ से, पीने का आपकी! मरना हमारा, जीना आपका। सीना हमारा, चाकू आपका! कोई चीज किसी वक्त में हो जाती है और उसे 'गॉड-गिफ्ट' मान लेना, मनुवा! आप हमको सड़क फौजी ड्रेस में बस-अड्डे पर खड़े दिख गये, यह भी भगवान की मर्जी का खेल ठहरा! ठहरा कि नहीं ठहरा? अगर नहीं तो कौन जानता है, भेंट भी होती या नहीं। आप 'भरती होजा फौज में, जिन्दगी है मौज में' गाते-बजाते छुट्टी काटकर, चल भी देते।''...
प्रेम है कि नफरत, जहां शराब कुछ भीतर तक उतरी, तहां आदमी की असलियत बोलने लगती है कि वह दरअसल है क्या। इस वक्त कम-से-कम खीमा साथ है, तो कुछ घर का-सा वातावरण है। कहीं टनकपुर में ही अटक गये होते, तो फिर वही आधे अंग का खाना-पीना और सोना। कैम्प छोड़ा था, तब से ही लगातार यही हुआ कि सम्पूर्णता नहीं है। प्रत्येक क्षण किसी की स्मृति है और, बस, थोड़े-से फासले पर साथ-साथ चल रही है। इस मायामयी छाया को शरीर धारण करने में अभी भी बहुत समय लगना है। कल जाकर गांव पहुंचेंगे, तब ही यह व्याकुलता थमेगी।
''जब तक सुदर्शनचक्र हाथ में है, तब तक तौबा है! इसको छोटे मुंह बड़ी बात मान लेना, दाज्यू! कौन हसबैण्ड आफ मदर झूठ बोल रहा है! खीमसिंह ड्राइवर का नाम लेकर इन्क्यावरी कर सकता है हर शख्स, जो कि चलता है, टनकपुर-सोर की इस लाइन में, जहां कि जरा-सा बेलाइन हुए आप, श्रीमान जी, तो समझिये कि मुरब्बा तैयार है!'' कहते हुए, खीमसिंह ने भुटुवे की प्लेट को उठाकर, उसमें लगा तेल-मसाला चाटना शुरू कर दिया, तो मध्यम कोटि के सरूर में सूबेदार का ध्यान गया सीधे इस बात पर कि रास्ते में जाने कितनी बार तो सचमुच यही झस्-झस् हुई थी कि कहीं ऐसा न हो....
आइडेण्टिटी-कार्ड साथ में रहता है, शिनाख्त जरूर पहुंच सकती है, लेकिन आदमी की जगह, सिर्फ उसकी शिनाख्त का पहुंचना कितना खतरनाक हो सकता है, इस बात की तमीज तो ससुर इस सृष्टि के सिरजनहार तक को नहीं रही। एक खूबी इस चीज में है। एकदम लाइन के पार नहीं निकल जाय, आदमी, तो पुल पर का चलना है। नीचे आपके मंथर गति की नदी बह रही है और आस-पास के पहाड़ ससुरे ऐसे घूर रहे हैं, जैसे कि घरवाली मायके जाती हो। कल्पना अगर किसी चिड़िया का नाम है, तो ठीक ऐसे ही मौके पर पंख खोलती है। जितनी बार खतरनाक मोड़ पड़ते थे, इतनी ही बार सूबेदारनी जंगल में हिरनी-जैसी व्याकुल होती जान पड़ती थीं, क्योंकि ध्यान में तो बैठी रहती हैं वहीं।- और भीतर-ही-भीतर दोनों हाथ बार-बार इसी प्रार्थना में उठ जा रहे थे कि- मइया, हाट की कालिका!
औरत है कि देवी है- माया-मोह और भय-भीति का ही सहारा है। अटैची में चमचमाता लाल साटन डेढ़ मीटर रखा हुआ है और पौन इंची सुपरफाइन गोट और सितारे। चोला मइया का सूबेदारनी खुद अपने हाथों तैयार करेंगी। जब तक मइया का ऐसा ध्यान है, तब तक रक्षा जरूर है। नहीं तो, फौज की नौकरी कौन जानता है कि सरकार ने कब दाना-पानी छुड़ा देना है। कैवेलरी की जिंदगानी है। जीन-लगाम ही अंगवस्त्रा हैं। पिछले साल अचानक ही कैसा ब्लूस्टार ऑपरेशन हो गया और कितने वीर जवान राष्ट्र को समर्पित हो गये। अग्नि को भी समर्पण ही चाहिये। राष्ट्र की ज्योति जली रहे।
अब नैना सूबेदार का मन हो रहा था, एक प्लेट भुटुवा और मंगा लें, फिर चाहे थर्मस तक भी नौबत क्यों न आ पहुंचे। जाने को तो यह जिन्दगी ही चली जाने के लिए ही है, लेकिन कुछ वक्त ऐसे जरूर आते हैं, जो चांदी के सिक्कों की तरह बोलते मालूम पड़ते हैं कि हम साथ रहेंगे। अब जैसे कि रुक्मा सूबेदारनी का ही ध्यान है, यह मात्रा एकाध जनम तक ही साथ देने वाली वस्तु तो नहीं है। पहले कैसे धोती के पल्ले में नाक दबा लेती थीं सूबेदारनी साहिबा, पिछली बार की छुट्टियों में निमोनिया की पकड़ में थीं, तो दो चम्मच ब्राण्डी पिलाना मछली का मुंह खोलकर, पानी की घूंट डालना हो गया। बाद में खुद कहने लगीं, कि खेत-जंगल के कामों से टूटता बदन कुछ ठीक हो जाता है।

चूंकि भुगतान करने का जिम्मा खीमसिंह ने लिया, इसीलिए संकोच था कि यह जोर डालना हो जाएगा, मगर अपने भीतर की भाषा खीमसिंह में फूट पड़ी- ''सूबेदार दाज्यू, भुटुवा बहुत जोरदार बना रहा! एक प्लेट और लाता हूं।''
आखिर-आखिर थर्मस खंगालकर, पानी लेना पड़ा, लेकिन न खीमसिंह आपे से बाहर हुआ, न सूबेदार। धीरे-धीरे जाने कहां-कहां की फसक-फराल लगाते में, रिमझिम-रिमझिम जज्ब होती चली गई। कैम्प की कैंटीन से बाहर निकलने की-सी निश्चिंतता में, दोनों अब भोजन प्राप्त करने ढाबे की बेंच तक पहुंचे, तो देखा-ढाबे की मालकिन ही पराठे सेंक रही है और इतना तो खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि यहां के खाने में रस है। औरत भी क्या चीज है, साहब। जो स्वाद सिल पर पिसे मसालों का, सो पुड़िया में कहां है। और पराठे स्साला कोई मर्द सेंक रहा हो, तो घी चाहे जितना लगा ले, मगर यह भुवनमोहिनी आवाज और हंसी कहां से लायेगा? इधर पराठा बेलती है, सेंकती है और उधर मजाक भी करती जाती है कि सूबेदारनी बहुत याद आ रही होंगी? कहां-कहां तक फैला दिया इसे भी, फैलाने वाले ने, जहां देखो, वैसी ही आभा है। जहां आप जल रहे, जाने कब शक्कर हो गई। बोलती है और अचानक हंस देती है, तो दुकानदारी करती कहां दिखाई देती है। कैसे पलक झपकाते में दांव लगा दिया कि ''आदमी तो दूर देश और बरसों का लौटा ही चीज होता है।''- प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हुई में भी एक आंच है। वातावरण में घर की-सी ऊष्मा मालूम देने लगी।
'हां, हां' कहने के सिवा और क्या कहना हुआ। तीन साल के बाद लौटने में तो अपने इलाके का इस पेड़ के उस पेड़ की तरफ कूदता-फांदता बन्दर भी अपना-सा ही लगता है। यह तो अन्नपूर्णा की-सी मूरत सामने है। होने को तो कुछ सुरूर 'थ्री-एक्स' का भी जरूर है, मगर जब तक भीतर की धाारा से संगम ना हो, नशा चाहे जितना हो ले, यह दिव्यमनसता कहां।
चूल्हे की आंच में वह किसी-वनदेवी की प्रतिमा की-सी छवि में है। सोने का गुलूबन्द झिलमिला रहा है। पराठा पाथते में हाथों की चूड़ियां बज रही हैं। बीच-बीच में माथे पर के बाल हटाने को बायीं कुहनी हवा में उठाती है, तो रुक्मा सूबेदारनी की नकल उतारती-सी जान पड़ती है। कांक्षा हो रही है, दो के सिवा और कोई उपस्थित न हो। कोई-कोई समय जाने कैसी एक उतावली-सी भर देता है भीतर कि कहीं यह बीत न जाय।
नैनसिंह सूबेदार को एक-एक ग्रास पहले पर्वत, फिर राई होता गया। आंखों की दुनिया अलग होती गई, हाथ-मुंह-उदर की अलग। खीमसिंह को तो, शायद, यह भ्रम हुआ हो कि थ्री एक्स ने भूख का मुंह खोल दिया है, लेकिन सूबेदार को जान पड़ा कि यह अकेले का खाना नहीं। बस, यहीं फिर सूबेदारनी का ही सामने बैठा होना-सा प्रतीत हुआ कि नहीं कि डकार भी आ गई। गिलास-भर पानी एक ही लय में गटकते, सूबेदार हाथ धोने नल की तरफ बढ़ गये।

कुछ क्षण होते हैं, विस्तार पकड़ते जाते हैं और कुछ विस्तार, जो धीरे-धाीरे, क्षणिक होते जाते हैं। रास्ते का एक दिन कटना पर्वत, लेकिन घर पर महीने-भर की छुट्टियां कपूर हो जाती हैं। पक्षियों-सा उड़ता समय कान में आवाज देता रहता है, लो, आज का दिन भी बीता तुम्हारा। अब बाकी कितने हैं।
बाबू ने थोड़े आंखर जागर गा तो दिया, अपशकुन क्यों करते हो कहने और सूबेदारनी बहू की गायी न्यौली के कुछ बन्द सुन लेने पर, लेकिन आखिर तक उनका यह अफसोस गया नहीं कि जितनी रकम इस फोटूकैमरे और ट्रांजिस्टर-टेपरिकार्डर में लगा दिए सूबेदार ने, इतने में घर के कितने जरूरी-जरूरी काम निबट जाते। अलबत्ताा जर्सी, बूटों और थ्री एक्स की तीन बोतलों से उनकी आत्मा जरूर प्रसन्न हो गई कि ''यार, पुत्रा, जाड़े की मार से बचाने को आ गया तू।''
चार सेल वाला टार्च भी उन्हें बहुत जमा और दस-पांच दिन बीतते न बीतते तो खुद ही इस मजेदार मूड में आ गये कि- ''यार, पुत्रा, पैसा तो स्साला हाथ का मैल ठहरा! पुरुष की शोभा ठहरी जिन्दादिली और रंगीनी! ले आज, तू भी क्या याद करेगा, चार आंखर भगवती-जागरण पूरी श्रध्दा से कर देता हूं। क्या करता हूं कहता है तू, रिकौर्ड ऑन करता हूं?- तो कर फिर औन-हरी भगवान जी, प्रथम ध्यान मैं किसका धरता हूं? तो ध्यान धरता हूं, उस चौमुखी विरंचि विधाता का, मइया महाकाली, जिसने कि यह अपूर्व सृष्टी रची और आकाश की जगह पर आकाश, धरती की जगह धरती और पहाड़ की जगह पहाड़, नदी की जगह नदी, अग्नि की जगह अग्नि और क्या नाम, माता गौरी शंकरी खप्परधारिणी, कि पानी की जगह पानी को उत्पन्न किया। और कि फूल को पत्ताों, दूध को कटोरे के आधार पर रखा। हाड़-मांस के पुतले में रखी प्राणों की संजीवनी। अहा री मइया सिंहवाहिनी- कैसी अपरम्पार हुई सृष्टि कि सारे ब्रहाण्ड में एक महाशबद व्यापक हो गया। मनुष्य, तो मनुष्य हुआ, पाताल में का पक्षी भी 'मैं यहां, तू कहां' गाता दिखाई दिया! कहीं ऊंचा हिमालय रखा, कहीं गैला समुन्दर। कहीं धूप रखी, कहीं छाया। कहीं मोहिनी रखी, कहीं माया। विरंचि के बाने सृष्टी रची, बिष्णु के रूप पोषण किया और शिव के रूप          किया संहार।- दूसरा स्मरण तेरा है, माता भगवती, कि तूने भी जब गौरी पार्वती से माया का रूप महाभद्रा-महाकाली रखा, तभी संहार किया महिषासुरन का और तभी स्थापना हुई तेरी भी हाट की कालिका, घाट की जोगिनी के रूप में। घर को घरिणी तू हुई, बन को हिरणी। पूत को माता हुई पिता को कन्या कुंवारी-''
बाबू देवी जागरण गाये जा रहे थे। जाने कब गिलास में बाकी बची रम को एक ही घूंट में चढ़ाकर, खूंटी पर से हुड़का भी उतार लिया उन्होंने और 'दड्.- तुक्-दिड्दुड्.' का लहरा लीगाते, पूरी तरह लय में हो गये। उनके माथे पर की चुटिया तक रंग में आ गई। पूरी पट्टी में कौन है उनके मुकाबले में भगवती महाकाली का जागरण रचाने वाला? लेकिन नैना सूबेदार का ध्यान तो 'कन्या-कन्या' सुनते ही इस तरफ चला गया, तो फिर लौटना मुश्किल हो गया कि आज तो उन्नीसवां दिवस, उन्होंने तो घर पहुंचने के पहले ही दिन मजाक-मजाक में सूबेदारनी के पांव ही पकड़ लिये थे कि- ''भगवती, कन्या ही देना!'' हां, तरंग तो कुछ तब भी जरूर रही होगी।... लेकिन दृश्य भी उत्पन्न तभी होता है, जबकि भीतर कोलाहल हो। जागर में भी तो यही बताया बाबू ने कि प्रथम तो उदित हुआ शब्द, तब कहीं जाके सूरज?
इस बात पर तो, खीम के साथ ट्रक में की जात्राा की तरह, फिर अचानक हंसी फूट पड़ी और बाबू ने समझा कि कुछ ज्यादा चढ़ गई होगी। एक-दो बंद गाकर, हुड़के की पाग को गले से उतारकर, हुड़के में ही लपेट दिया- ''कल का दिन बीच में है, नैन! परसों शनिवार- तीन दिन का जागर मइया हाट की कालिका के दरबार में लगना ही है। जा, सो जा, बहू रास्ता देखती होगी। मइया के दरबार में देखना कैसा जागर लगाता हूं। आंखिरी जागर होगा यह...''
बुढ़वा भी बदमाश हैं। 'बच्चे रास्ता देखते होंगे' नहीं कहते। क्या कह रहे थे उस दिन कि जीवन की चक्की का एक पाट जाता रहा, एक रह गया। मां को परमधाम गये ठीक-ठीक कितने साल बीते होंगे?

ज्यों-ज्यों छुट्टियां पीछे रहती जाती हैं, बीता और विस्तार पाता चल रहा है। चम्पावत में रात कैसी बीती थी? भीतर-भीतर कोई यहां तक जोर बांधने लगा था कि राइफिल की नोक पर सामने बिठाये रखो इस औरत को और बताओ इसे कि रोम-रोम में जो व्याकुलता जगाये चली गई हो, इसका देनदार कौन? हवा की जगह आंधी का रूप रखती खुद गायब हुई जा रही हो, और नैनसिंह सूबेदार पेड़ की डालों से लेकर पहाड़ की चोटियों तक कांपता पड़ रह गया है, रात के इस अनन्त लगते हुए-से सन्नाटे में? रूप भी शरीर से है, इसे तुम क्या नैना सूबेदार से कुछ कम जानती होगी, भगवती? आंखों से लाचार खींचता है, बलवान तो हाथों से काम लेता है।
बस, इसी बलवान वाली बात पर सूबेदार को खीमसिंह के साथ चुपचाप उठ जाना पड़ा कि कहीं 'जम्बू बोले यह गत भई, तू क्या बोले कागा? वाली बात न हो जाय। बद अच्छा, बदनामी बुरी।'
तब का व्यतीत, अब तक साथ है।
अड्डे तक सचमुच दस बजे से भी कुछ पहले ही पहुंचा दिया था खीमसिंह ने। सुबह-सुबह चम्पावत से लोहाघाट तक कितनी गहरी और गझिन धुंध थी। ट्रक-समेत कहीं अदृश्य लोक में प्रवेश करते होने की-सी अनुभूति होती थी और भय। सारा ध्यान इसी बात पर टंगा रहता कि क्या सचमुच इसी जनम में फिर रुक्मा सूबेदारनी होंगी और उनके साथ का तालाब में की मछली का-इस कोने से उस कोने तक का उड़ना? घर पहुंचने के बाद, थोड़ा एकांत पाते ही सूबेदारनी एकाएक दोनों पांव पकड़ लेंगी और सोते-से फूट पड़ेंगे धारती में। जन्म-जन्मांतरों की-सी व्याकुलता में, उनकी पीठ तक हिलती होगी। तब, दोनों हाथ कांखों में डाले, ऊपर उठायेंगे सूबेदार और सांत्वना देते में, एकाकार हो जायेंगे। तब ट्रक की यात्राा में ही जाने कितनी बार हुआ कि परमात्मा तो अंतर्यामी है, उससे क्या छिपा है, मगर बगल में ड्राइवर की सीट पर बैठा खीमसिंह भी न देख रहा हो। जब कोई जागता है और हर क्षण आदमी की स्मृतियों में, पशु-पक्षी भी भीतर तक झांकते गोचर होते हैं।
सूबेदारनी साहिबा से क्या कहा था उस पहली रात ही कि 'एक आंख से हम देख रहे हैं, एक से तुम। वह भगवती पराठा सेंकती जाती है और मंजीरा-सा बजाती है कि 'एक पराठा तो और लो, सूबेदार साहब!'- और हमें आप ही सेंकती-खिलाती नजर आती हो। ये तो आपने अब बताया कि कल रात का व्रत रखा था। देखिये कि हम बिना खबर हुए ही दो जनों का भोजन कर गये।
क्या रखा है स्साले किसी आदमी की जिन्दगी में, अगर कहीं पांवों से लेकर, सिर से ऊपर तक का, गहरे तालाब-जैसा प्रेम नहीं रखा है। कहां तो एक मूकता का-सा आलम था प्रारम्भ में। फिर शब्द फूटा एकाएक, तो सचमुच एक सृष्टि होती चली गई। जीभ में लपेटा तागे का गुच्छा हट गया और वाणी झरना होती गई। जाने कब, कहां रात बीती। सूबेदारनी साहिबा ने नहीं टोका एक बार भी, सिर्फ इतना कहती, उठ खड़ी हुई कि विहानतारा निकल आया है। सूबेदार को भी यही हुआ कि माता भगवती, तू नहीं, तो और कौन है। कौन जागता है, दिन-रात हमारे लिये। कौन देता है इतना ध्यान। किसे पड़ी है हमारी इतना चिंता।
वह गांव पहुंचने की पहली रात थी। किंतु डोंगरे बालामृत वाले कलेण्डर में मां हाट की कालिका के पांवों के नीचे आ पड़े शिवशंकर की-सी जो दशा अनुभव हुई थी, वह अब तक साथ है। फर्क इतना है कि शंकर अनजाने आ गये, पांवों के नीचे, नैना सूबेदार अंत:प्रेरणा से। सूबेदारनी 'विहानतारा निकल आया' कहती खड़ी हुई ही थीं कि बिस्तर से पांव बाहर रखते तक में, नैना सूबेदार ने उन पर अपना मत्था टेक दिया था। मुह से कुछ नहीं बोले, मगर सूबेदारनी ने सब सुन लिया।
छुट्टियों के लिये अर्जी लगाने के दिन से लेकर, यहां पहुंचने के दिन की सारी व्याकुलता पर कैसे अपने ही रक्त में से बार-बार अवतरित होती, रोम-रोम में छा जाती रहीं सूबेदारनी। बाजार निकलते, तो कैसे  साक्षात् उपस्थित होती-सी खुद ही ध्यान दिलाती रहतीं पग-पग पर कि  उनके लिये क्या-क्या वस्तुएं लेनी हैं, और क्या बच्चों और बाबू के लिये। इनका जाने कब, कहां से अचानक छाया की तरह का प्रकट होना और सारा ध्यान अपनी ओर खींच लेना, बस, गांव पहुंचकर ही थमा है। पांव  छूते ही मिट्टी के घड़े की तरह का फूट पड़ना और सारा जल सूबेदार पर उड़ेल देना किया था सूबेदारनी ने, तब कहीं खुद के पूर्णांग हुए होने की-सी तृप्ति हुई थी।

कल भी और क्या हुआ था। उधर बाबू देवी-जागरण में हैं और इधर सूबेदारनी के साथ का एक-एक दिन बाइस्कोप के चित्रों की तरह आंखों के सामने हुआ जा रहा है कि कौन-सा सूबेदारनी के साथ कितना बीता और कितना खेतों, कितना जंगल और नदी-बावड़ी में। कितना एक बगल सूबेदारनी हैं, दूसरी बगल भिमुवा या रमुवा! सूबेदार कह रहे हैं- 'भिमुवा की अम्मा!''- सूबेदारनी- ''रमुवा के बाबू!''-और यह कि ''इजा की जगह, अम्मा क्यों कहने लगे हो?''
सूबेदार एकाएक अपनी फौजी अंग्रेजी ठोक दे रहे हैं- ''एभ्री डे एण्ड एभ्री नाइट- माईडियर सूबेदारनी, यू वाज ऑन माई ड्रीम!''- और सूबेदारनी पालिएस्टर की नयी साड़ी का छोर मुंह में दबा ले रही है- ''आग लगे तुम्हारी इस लालपोकिया बानरों की जैसी बोली को!''
अंग्रेजी का अ-आ नहीं जानती हैं, लेकिन अंग्रेजी का रंग गुलाबी होता है, इतना उन्हें पता है। सूबेदार समझा देते हैं कि ''इजा तो, माई डियर, बिलकुल करेक्ट पकड़ लिया आपने कि यह लालपोकिया अंग्रेजों की लैंग्वेज है।''
रातों को काफी ठण्ड है और छोटे रमुवा ने सोये-सोये ही लघुशंका निबटा दी है, तो सूबेदारनी मजाक कर रही हैं- ''वहां फौज में भी ऐसा ही कर देते हो क्या?'' -सूबेदार बदले में कुछ और गहरा मजाक करने की सोच रहे हैं कि सूबेदारनी की आंखें एकाएक अद्र्रा नक्षत्रा में हो आती हैं- ''मेरे लिये रमुवा में तुममें क्या अंतर हुआ!''
इसीलिये कहने और मानने को मन करता है कि देवी मइया, तू नहीं, तो कौन है। दो-तीन साल बलि के बकरे की तरह का टंगा होना होता है वहां और कौन है वहां, जिससे बातें करते खुद के ऊंचे-ऊंचे पर्वतशिखरों पर आसीन होने और साथ में किसी के सपने में से ही झरने की तरह फूट, या नीचे नदी की तरह बह रहे होने की प्रतीति हो। जहां सिर के ऊपर जाने ससुरे कितने कप्तान-कर्नल-जर्नल लदे रहते हैं, वहां सूबेदार की औकात क्या होती है। लेकिन यहां-और स्मृति की मानो, तो वहां भी- एक तेरा स्पर्श होता है कि शरीर में वनस्पतियां-सी फूट पड़ती हैं।
हाट की कालिका मइया के दरबार में जाने का दिन सिर पर आ रहा  है और तत्पश्चात् ही सामने होगी- विदा होने की घड़ी। सूबेदारनी के साथ बीते एक-एक दिन को घुप्प अंधेरे में बिखेर देने को मन करता है और टार्च हाथ में लेकर ढूंढ़ने को। आज भी सूबेदारनी अभी-अभी, रोज की तरह, विहानतारे को गोद मे लेकर दूध पिलाने को उतावली, छाती पर पांव रखती-सी निकल गयी हैं, लेकिन झांवरों की आवाज अब भी मधुमक्खियों का-सा छत्ता डाले हुए हैं।
''चहा तैयार है बाबू!'' कहता भिमुवा देली पर खड़ा दिखाई दिया, तब हुआ कि सुबह हो गई होगी। आज का दिन बीच में है, कल ही हाट की जात्राा पर जाना है। सूबेदारनी कल कह रही थीं कि ''हंहो, रमुवा के बाबू, तुम कह रहे थे इस बार बांज की पाल्यों कैसी हो रही है?''
जंगल गांव के उत्तारी छोर में है। एक सिलसिला-सा है, जो सात-आठ गांवों के सिरहाने सघन हरीतिमा की तरह, आर-से-पार तक चला गया है। नीचे-नीचे तक कई बार हो आये हैं सूबेदार, लेकिन चूंकि शिकार खेलने को मना कर देती रही हैं सूबेदारनी कि ''हंहो, यह अपनी भड़ाम्म-भड़ाम्म वहां अपनी मिलेटरी में किया करो। हमको नहीं लगती अच्छी हत्या-'' इसलिए सूबेदार        भी, बस, राइफल को कंधे पर सैर भर करवा के लौट आते रहे हैं।- लेकिन दो-दो तनतनाते बकरे हाट की कालिका के मन्दिर में काटे जाने हैं, एक भिमुवा की बधाई का भाखा हुआ है, दूसरा रमुवा की- देवी मइया नहीं कहती होगी कि हमें नहीं अच्छी लगती हत्या?- खैर, वो क्या है कि बाबू देवी-जागरण में कैसे बताते हैं कि एक हाथ में खड्ग लिया, दूसरे में कृपाण, एक में              शंख लिया, दूसरे में चक्र, एक में त्रिशूल लिया और दूसरे में गदा, एक हाथ में- सोलह हाथों में मइया कालिका ने आयधु धारण किये और दो हाथों में खप्पर...
इससे ज्यादा दूर तक मस्तिष्क जा नहीं पाता है। क्योंकि वह तो जब तक दो हाथों वाली है, तब तक हमारी पहुंच में है। आगे का रूप ऋषि-मुनियों के ज्ञान की वस्तु हुई।
चाय पीने के बाहर आंगन में निकल आये सूबेदार, तो अब तक का सारा मायालोक जैसे कमरे में ही छूट गया। भीतर चित्ता का विस्तार था, बाहर प्रकृति उपस्थित है। गांव की बाखिलयों (घरों की श्रृंखला) से नीचे घाटी में, नदी के किनारे तक खेतों का सिलसिला चला गया है। लगता है; सुबह-सुबह- विशेष तौर पर सर्दियों की ऋतु में- नदी में स्नान करके, कोई सीढ़ियों पर पांव रखती-सी, वो ऊपर जंगल में निकल गई। दो-चार दिन घट (पनचक्की) की ओर निकल गये थे, तो सूबेदारनी कपड़े धोती रही थीं और वो देखते रहे, तालाब की मछलियों का खेल। जीवन का खेल- जल-थल, सब जगह एक है।
आजकल गेहूं खेतों में अन्नप्राशनी के बाद के बच्चों-जितना सयाना हो आया है। घुटनों के बल खड़ा होने की कोशिश करता हुआ-सा। -लेकिन अभी कोहरे में धोती के पल्ले से नीचे दुबका पड़ा-सा अंतर्धान है। कहीं आठ-नौ बजे तक कुहासा ठीक से छंट पायेगा। अभी तो भूमिया देवता के कमर से नीचे के परिधान की तरह व्याप्त है। गांव भी तो कितना छोटा है यह। पहाडा का बच्चा मालूम देता है।
दस बजे तक में सबको खिला-पिलाकर, सूबेदारनी ने सीढ़ी के पत्थर पर दराती को धार लगाना शुरू किया, तो सूबेदार भी वर्दी में हो लिये। खूंटी पर से उतारकर राइफल कंधे पर रखी। हवाई बैग में टेपरिकार्डर, कैमरा और सिगरेट का डिब्बा रखा और चल पड़े।
आंगन से लेकर, जंगल की तरफ वाली पगडण्डी में परिचितों-बिरादरों से 'राम-राम, पायलागों-जीते रहो' निबटाते हुए पूर्ण एकांत होते में ही सिगरेट का एक जोरों का कश लिया। फिर थोड़ा रुक कर, पीछे-पीछे आती सूबेदारनी को बराबरी पर रोकते हुए, कंधे पर हाथ रख दिया- ''आज आपको बहुत जी-जान से गाकर सुना देनी है, न्यौली, माई डियर! घर में और खेतों में 'भौइस' दबवा दी थी अपने। अब तो चलाचला की वक्त है। कल पूजा हो जानी है। बस, दो-चार दिन और बासा मानिये। फिर वही, आफ्टर मिनीमम टू और थ्री एयर्स वाली बात गई। आप उस न्यौली को जरूर गाना आज अपने फुल भौल्यूम में- ''काटते-काटते फिर पाल्योंता जाता है बांज का जंगल- दि फारेस्ट ऑफ मिरीकिल्स!''
सूबेदारनी कुछ नहीं बोली, प्रकृति बनी रहीं। लगभग एक मील के बाद अरण्य का सम्पूर्ण वृत्ता, वनस्पतियों से भरी झील हो गया। दूर-दूर गाय-बकरियां चरती दिखायी दे रही थीं और कुछ औरतें। बांज-फ्ल्यांट के पल्लव बटोरतीं। सूबेदारनी को इतना संकोच तो था कि पहले साथ-साथ जाने वाली औरतें जहां और जब आमना-सामना होगा, मजाक जरूर उड़ाऐंगी, लेकिन इनका संग तो सदैव का है, सूबेदार का कहां। यह तो फूल की तरह खिले और वो भी दो-तीन बरसों में एक बार। एकाध महीना अपने संग-संग हमें भी खिलाये रहे और फिर अचानक एक दिन, आंख-ओझल।
अब जंगल तो रेशा-रेशा जाना हुआ है। एकांत ढूंढ़ते में ज्यादा समय नहीं लगा। सूबेदार बच्चा हो गये कि पाल्यों कटे न कटे, न्यौली पहले निबटानी है। चौरस जगह टोहकर, सूबेदारनी अपने नये, रंगीन घाघरे को ठीक से फैलाती बैठ गई। हरी क्रेप के घाघरे में लाल रंग की गोट है। कमर में धोती का पीताम्बरी फेंटा है। पिठां-अक्षत माथे पर ऐसी हैं, जैसे गर्भ से ही साथ हों। नाक में चंदकों वाली, तीन तोले की बायें कान के पास तक का स्थान घेरती नथ है।- कानों में सोने की मुद्रिकायें! गले में मोतीमाला, काला चरेवा और गुलूबन्द हैं। हाथों में पहुंचियां और पांवों में झांवर। पूरे आभूषण धारण किये हैं आज नैना सूबेदार के आग्रह पर। एक हाथ में दराती है। दूसरे में अभी तक बांज-फल्यांट के पल्लव रखने का जाल था, अब उसमें रंग-बिरंगे फुन्नोवाला धमेला है। क्या रूप है। क्या रंग है।
सूबेदार एकाएक उठे अपनी जगह से सूबेदारनी साहिबा के सिर पर हाथ
फेरते हुए 'ओक्के' कहा और जंगली मृग होते, कुलांच मारते-से, कुछ फासले पर हो गये। कभी उन्हें 'माई डियर, जरा-सा दायें।' कभी बायें। कभी मुस्कुराओ, कभी खिलखिलाओ और कभी न्यौली गाने की, फिर कभी जंगल में किसी खोये हुए को ढूंढने की-सी मुद्रा में हो जाओ- सूबेदारनी साहिबा को भी जाने क्या हुआ कि जैसा कहा, तैसी होती गई। बीच में सिर्फ इतना ही बोलीं- ''देखो, जैसे तुम्हारा मन अघाता है, तैसा कर लो।- मगर इस वक्त के फोटू मिलेटरी में चाहे अपने दोस्तों-दोस्तानियों को दिखाते फिरना, यहां रमुआ के बूबे (दादा) और दूसरे लोगों की नजर में नहीं पड़ने चाहिये- बहुत मजाक उड़ायेंगे लोग! कहेंगे, घर में जगह नहीं मिली-''
सूबेदारनी साहिबा का खिलखिलाना हिलांस पक्षी के चन्द्राकार झुण्ड-सा उड़ता हुआ, जाने हिमालय के शिखरों तक कहां-कहां चला गया। सारा अरण्य डूब गया। नैना सूबेदार के मुंह से इतना ही निकला- ''हमको तो आप ही देवी लगती हैं-''
सूबेदारनी में सारा संकोच पतझर के समय के पत्तों-सा झरता, और ऋतु वसंत के पल्लवों-सा उगता चला गया। कहां फोटो में गाता दिखाई पड़ने-भर को न्यौली शुरू की थी, कहां एक लड़ी-सी बंधती चली गई-
काटते काटते फिर पल्लवित हो आता है
बांज का वन...
समुद्र भर जाता है, मेरे प्राण,
नहीं भरता मन!
आश्विन मास की नदी में चमकती है
असेला मछली...
अब जाते हो
कौन जानता है, फिर कब होगी भेंट!
वो देखो, उधर हिमालय की द्रोणियों में
कैसी चादर-सी बिछ गई है बर्फ...
पक्षी होती मैं, मेरे प्राण,
उड़ती, बस उड़ती ही चली जाती
तुम्हारी दिशा में!
'टेप' की गई न्यौलियों को खुद सूबेदारनी ने सुना, तो पहले मुग्ध हुई         और फिर फूट-फूटकर रो पड़ीं। कल रात से अब तक में एकत्रा सारा             सुख, जैसे अपने सारे आवरण पृथक करता हुआ-सा, एक साथ प्रकट हो गया।
लौटते, लौटते, शरद ऋतु का दिन और छोटा पड़ता गया। सूबेदारनी के पांव भारी हो गये हैं। एक गठ्टर सिर पर लदा है बांज और फल्यांट के पल्लवों का। एक भीतर इकट्ठा है। पाल्यों उतारने और जाल भरने के बाद के विश्राम में, सिर सूबेदारनी साहिबा की गोद में था और जूं ढूंढने की प्रक्रिया में उनके अंगूठों के नाखून आपस में जुड़ते थे, तो लगता था आवाज मीलों दूर तक जा रही होगी। तब याद आया था, अचानक, फिर वही खीमा के साथ की ट्रक-यात्राा में एकाएक उपस्थित होकर, सफर समाप्त होने तक लगातार विद्यमान रहा मृत्यु भय! सुख अकेले कहां आता है।
रात के सन्नाटे में, नीचे घाटी की दिशा से, सियारों का समवेत आता है और याद आता है, सूबेदारनी का आंचल ओठों में दबाकर, यह बताना कि इसी वर्ष जुलाई में गांव के तीन घरों में तार आये। सुना, उधर अमृतसर में कोई लड़ाई हो गई.... एक साया फौजियों के घर मंडराता फिरता रहा है महीने-भर।
किसी भी दिन हो सकता है, अघटित का घटित होना। फौजी गुजरता है, तो सिर्फ तार ही देखने को मिलता है। रूप, आकार-उसी में सब कुछ देख लो। अच्छा ही है कि जीवन का अन्त जब भी हो, सूबेदारनी साहिबा से कहीं बहुत दूर हो। हाट की कालिका के मन्दिर में देवदार के जुड़वां पेड़ हैं। सैकड़ों वर्ष पुराने। जाना कल है, पेड़ आज ही क्यों याद आ पड़े? दोनों को देखो, तो एक में से ही दो किये हुए-से दिखाई पड़ते हैं। लगभग बराबर ऊंचे, बादलों को छूने को बढ़ते हुए-से। बराबर सघन। धूप छतरी पर ही अटक जाती है। नीचे कितनी गहरा छाया। इनमें से एक को काट दीजिये, तो दूसरा सिर धुनता दिखाई पड़ेगा।
माता तू ही रक्षा करना!

सूबेदारनी देवी का चोला सिल चुकी हैं। चढ़ावे की अन्य सामग्रियों के साथ, दोनों घंटे भी एक कोने में रख दिये गए हैं। भीमू और रामू, लाख मना करते भी, कभी-कभी बजा देते हैं, तो घंटे के वृत्ता में खुदे अक्षर उसका नाम पुकारते मालूम देते हैं- श्री भीमसिंह, आत्मज ठाकुर श्री नैनसिंह, आत्मज श्रीमान् ठाकुर इंद्रसिंह, झुपुलीगैर निवासी- श्री रामसिंह, आत्म ठाकुर श्री नैनसिंह, आत्मज श्रीमान्...
हर बार इन छुट्टियों-भर का उत्सव है। दोनों छोरों पर। इस बार मइया हाट की कालिका के दरबार में बधाइयां जानी हैं, तो यही रंग सबसे ऊपर है। बच्चे अपने दादा की नकल में देवी-जागरण लगाते हैं। भिमवा ने क्या कहा था कि अगर कोई बहन होती, तो उसमें देवी का अवतार कराते?
सूबेदारनी साहिबा की प्रतिच्छवि और उतर भी किसमें पाएगी? आधी सृष्टि उसी पक्ष में है। आधी उससे बाहर।
घर तो, घर है। ऊपर दोमंजिले पर व्यतीत होते जीवन में नीचे गोठ के पशुओं तक का साझा जान पड़ता है। कुछ ही दिनों को आये हैं, तो भी भैंस दुहरने, नहलाने, उधर धाार में के पेड़ों पर स्तूप की तरह चिनी गई घास की पुल्लियों को उतरवाने तथा लकड़ी फाड़ने, नाना प्रकार के छोटे-छोटे घरेलू काम हैं। यहां आकर समझ में आता है कि एक सूबेदारनी के सिर पर कितने काम। भाई कोई संग आया नहीं। बहनें थीं, एक आसाम में कहीं है अपने परिवार के साथ, दूसरी चार दिनों को आई, बनखरी वाली दीदी, हवा के साथ-साथ लौट गई। सबके अपने-अपने कारोबार हैं।
कहो कि बुड्डे जी अभी भी छोटे-मोटे कई काम निबटा लेते हैं। इस बार यही तो समझा रहे थे कि आधी पेन्शन पर ही चले आओ। सूबेदारनी भी यही चाहती हैं, मगर अभी और चार-पांच साल खींच लेना ही ठीक है। फौज के रहे को फिर यहां कौन-सी नौकरी-दुकानदारी करनी। पूरी पेन्शन लेकर घर बैठना है। यही खेती-बाड़ी संभालनी है और बच्चों को आगे           बढ़ाना है।
सोचते जाओ, तो जीवन के तर्क पीठ पर सवार होते जाते हैं सूबेदारनी से कुछ छिपा नहीं रहता। कभी अड़ौस-पड़ौस घूमने में लगा देती हैं। कभी नमकीन और प्याज सामने लगा देती हैं। खाने-पीने की चीजों में कुछ छूट न जाये। दो-चार दिन घरेलू व्यंजनों की हौंस। कभी भट-मदिरा का जौला और लहसुन, हरी धनिया का नमक है। कभी चौमास से रखी करड़ी ककड़ी का रायता, गडेरी का भंग पड़ा रसादार साग और पूरियां। कभी मुट्ठी-भर लहसुन पड़ी और घी में जम्बे से छोंकी मसूर की दाल है, हरी पालक-लाही की टपकिया और ताजे-ताजे ऊखलकुटे घर के चावलों का भात।
कभी घर में ही बकरा कट गया। सान-सून, भुटुवे से लेकर सिरीगणुओं का शोरबा!- घर में न हुआ, कभी पास-पड़ोस से आ गया शिकार। कभी शहर से खाने-पीने, फसक-फराल-हर चीज की बहार। यही सब धूप-छांव ठहरी आदमी के जीवन में, बाकी क्या रखा ठहरा। कैलाश का देवता भी आदमी के आंगन में उतरा, तो उसे भी आखिर-आखिर नाच-कूद के चल ही देना हुआ। बाबू बड़े गिदार हुए। कितनी कहावतें हुई उनके पास। कभी तरंग में हुए, तो नातियों के साथ-साथ बहू को भी बिठा लिया। बाप-बेटे, दोनों के सामने रम के पेग हुए। बाबू कभी 'और मेरे रंगीले, झूमाझूमी नाच।' की मस्ती में, तो कभी 'सदा न फूले तोरई, सदा न सावन होय' के वैराग में।
बाद के दिन तो भारी होते गये। हाट के देवी-मन्दिर से लाया गया लालवस्त्रा आंगन-किनारे के खुबानी के पेड़ की टहनी में बंधा हुआ है, लेकिन नैना सूबेदार देखते हैं, तो रेलगाड़ी के गार्ड के हाथ में थमी हरी झण्डी मालूम देता है। हवा में हिलता है, तो 'चलो, चल पड़ो' कहता सुनाई पड़ता रहा है। और इस वक्त हाल यह है कि सारा सामान बंधा पड़ा है, लेकिन कुली अभी तक कहीं नहीं दिखाई पड़ा। कल शहर स्कूल जाने वाले बच्चों से कहलवा भेजा था कि किसी मेट को भिजवा दे हिमालया होटल का बची सिंह, मगर कहीं कोई चिन्ह ही नहीं है।
गांव का हाल है यह कि कुली का काम पी.डब्लू.डी. या जंगलात के ठेकों पर करने वाले अनेक हैं, लेकिन बिरादरों का बोझ उठाना गुनाह है। माया-माह में रह भी गये अंतिम गुंजाइश तक। अब अगर कल सुबह तक टनकपुर ही नहीं पहुंच पाये, तो अम्बाला छावनी कहां समय पर पहुंच पाना हो पायेगा। कई बार जी में आता है कि खुद ही लादें और चल पड़ें। वापसी का सामान है, बहुत भारी नहीं, मगर जो देखेगा, सो ही हंसेगा। सारी सूबेदार साहबी मिट्टी में मिल जाएगी।
सूबेदार बार-बार सिगरेट सुलगा रहे थे और बार-बार घड़ी पर आंखें जाती थीं। बाबू बूढ़े और कमजोर हैं। बच्चे कच्चे। डेढ़-दो घण्टे से कम का रास्ता नहीं बस-अड्डे तक का और दोपहर बाद तो आखिरी बस क्या, ट्रक मिलना भी कठिन हो जायेगा। नैना सूबेदार अभी हताशा और बेचैनी में ही डूबे थे कि देखा, सूबेदारनी बाबू से कुछ कहती, नजदीक पहुंचती हैं और जब तक में वो कुछ ठीक से समझें, सूटकेस उठाकर सिर पर रख लिया और क्या कह रही हैं कि- ''बिस्तर बन्द इसके ऊपर रख दो।''
सूबेदारनी के कहने में कुछ ऐसी दृढ़ता थी, और परिस्थिति का दबाव कि सूबेदार को पांवों से सिर तक एक झुरझुरी-सी तो जरूर हुई, मगर इस तर्क का कोई जवाब सूझा नहीं कि ''मुंह ताकते तो दिन निकल जायेगा। थोड़ी दूर तक तो चले चलते हैं, रास्ते में कुली जहां भी मिल जायेगा-''
नयी बात इसमें कुछ नहीं। छुट्टी पर आते में शहर से कुली साथ          आता है, वापसी में घर के लोग पहुंचा देते हैं। सिपाही-लांसनायक तक तो अपना सामान खुद नहीं उठाते, हवलदार-सूबेदार की तो नाक ही कटी समझिये।
गांव की सरहद के समाप्त होते-होते, चित्ता काफी-कुछ व्यवस्थित हो गया। बाबू और बच्चों की आकृतियां धुंधली पड़ती गई। गाय-भैंस बकरियों तक की स्मृति कुछ दूर तक साथ चलती आती है। सरहद तक तो खेत तक साथ चलते मालूम पड़ते हैं। दरवाजे के ऊपर चिपकाया गया दशहरे का छापा भी। दशहरे के हरेले के दिन सावन के रक्षाबन्धन की सहेजकर रखी रक्षा बांधते और हरेला सिर पर रखते हुए क्या कहा था, ठीक मां की तरह- जीते रहना, जागते रहना। यों ही बार-बार भेंटते रहना। सियार की जैसी बुध्दि हो, सिंह का-सा बल! बालकों का-सा हठ हो- योगियों का-सा ज्ञान!
रक्षा का मंत्रा तो खुद सूबेदार को भी याद ठहरा- 'येन बध्दो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबल:....'
ये तागे ऐसे ही हुए। दानवेन्द्रों से भी नहीं तोड़े जा सके, हजम नर-बानर किस गिनती में। मां जब हुई, ठीक यहीं, इस गधेरे तक आती रहीं छोड़ने। यहीं रोककर, स्फटिक स्वच्छ गंगाजल अंजुलि में भर लाती थीं और सूबेदार के माथे पर छिड़कती, बांहों में बांध लेती थीं। तागों का एक पूरा जाल हुआ। घर पहुंचो, तो अदृश्य हो जाने वाला ठहरा। किसने पार पाया, कौन पा  सकेगा। मुखसार की ऋतु में बैल खुले हैं, जुताई के वक्त कहां। एक के बाद, दूसरा सिगरेट जलाते हुए, यही गाने को मन हो रहा कि-चल, उड़ जा रे पंछी-ई-ई-ई...
टेपरिकार्डर, कैमरा हवाई बैग में है। राइफिल कंधे के सहारे टंगी है। इसके अलावा टिफिन भी सूबेदार के हाथ में। रूल कभी-कभी उन्हीं से टकरा           कर बज उठता है। सूटकेस और सफारी होल्डाल सूबेदारनी साहिबा के सर पर हैं। यों तो अनेक का यही सिलसिला है। हवलदार साहब ट्रांजिस्टर लटकाये, रूल हिलाते, घड़ी बार-बार देखते और सिगरेट पीते आगे-आगे चल रहे हैं और पीछे-पीछे घरवाली-सामान सिर पर लादे हुए। -मगर नैना सूबेदार के साथ यह पहला अवसर है। कभी कभी, अपने से दो अंगुल कम करके तो देखा ही नहीं।
एकाएक बोले- ''सूबेदारनी, आप जरा रुकिये। ये बैग और टिफिन आप पकड़ लीजिये अब। थोड़ी देर तक अटैची-होल्डाल मैं ले चलता हूं...''
सूबेदारनी पीछे को मुड़ी, होले से मुस्कुराई, तेजी से आगे बढ़ गई। जैसे गंध प्रकट करती जाती हों अपनी। बोलती गईं- ''मेरा तो यह रोज का अभ्यास हुआ, रमुवा के बाबू! बेकार के संकोच में पड़ रहे हो। खेतों में पर्सा नहीं ढोती कि घास-अनाज के गट्ठर नहीं। उस दिन भी तुम्हारे पीछे-पीछे पाल्यों का जाल लिये चल रही थी-''
''वो घर का, रोजंदारी काम हुआ- मगर ये तो-''
''एक प्रकार की कुलीगिरी हुई,'' को सूबेदार ने अपने भीतर ही अंर्तध्‍यान कर लिया।
''आज बात करने में तुम 'माई डियर, माई डियर!'' नहीं कर रहे हो- इतना उदास पड़ जाना भी क्या ठहरा-''
अब सूबेदार कैसे बतायें कि अग्निपर्व बीत गया, राख रह गई। यहां से वहां तक, एक बुझा-बुझापन-सा व्याप्त हुआ पड़ा है।
''इज्जत तो भीतर की भावना हुई। हम निगोड़ी तुम-तुम ही तुमड़ाती रहीं जिन्दगी भर। तुमसे 'आप-आप' से नीचे नहीं उतरा गया। दुर्गा सासू कह रही थीं, घरवाली को परतिष्ठा देना कोई इसके सूबेदार से सीखे। तुम जहां वहां रात-दिन हम लोगों की चिंता में घुलते रहने वाले हुए, तब कुछ नहीं- एक दिन को तुम्हारा बोझ हमारे सिर पर आ गया, तो क्या पर्वत आ गया ठहरा? सिर के ताज तो आखिर तुम ही हुए-''
सूबेदार को लगा कि सूबेदारनी के आंसू पीठ तक आ गये हैं। कुछ ही पल बीतते, सूबेदारनी का बोलना फिर कानों तक आता चला गया और नैना सूबेदार को लगा, जैसे कलम से शरीर पर लिखे दे रही हैं कि अगली छुट्टियों में क्या-क्या लेते आना है।
फिर स्मृति में स्पर्श उभरते ही गये कि गांव पहुंचने के दिन एक-एक वस्तु को कैसे हजार आंखों से देखती-सी मुग्ध होती जाती थीं सूबेदारनी। सिंथाल की बट्टी को जब इन्होेंने सूंघा, तब उससे सुगन्ध फूटनी शुरू हुई थी। लोभी नहीं है, लाये हुए को सार्थक कर देना है। इस वक्त भी 'यह मत भूलना, वह जरूर लेते आना' की सारी रट, सिर्फ सूबेदार का उत्साह और गरिमा बढ़ा देने के लिये हैं।
गांव से शहर तक की इस सड़क पर, यह कोई पहली बार का चलना तो नहीं। इन्हीं छुट्टियों में दो बार आ चुके हैं। एक बार शहर घूमा, कुछ खरीददारी की- मैटिनी शो देखा, वापस लौट गए। दूसरी बार, मेला घूमे, नाइट-शो देखा और हिमालया होटल में ही ठहर गए।- हां, प्रसंग बदल गया है, तो सड़क भी पांव थामे ले रही है।
पिथौरागढ़-झूलाघाट वाली मुख्य सड़क अब थोड़े ही फासले पर है। इस गांव वाली सड़क के दोनों ओर पत्थरों की चिनाई हुई है। समतल नहीं, ऊबड़-खाबड़ है। बूटों की आवाज कानों को स्पर्श करती मालूम पड़ती है। नजर नीचे चली जाय, तो खेतों में घास बीनती औरतें या इनारे-किनारे की भूमि पर चरते पशु दिखाई पड़ जाते हैं। ऊपर आसमान की तरफ देखो, ये सब पक्षी बनकर उड़ते-से जान पड़ते हैं। जहां तक यह गांव वाली कच्ची सड़क जाती है, सब एक है। पक्की डामर वाली सड़क आते ही, पृथक् हो गए होने का आभास होता है।
दूर खड़ा भराड़ी का जंगल 'याद रखना, भूलना मत' पुकारता-सा आगे         को आ रहा है और प्रकृति सूबेदारनी साहिबा की ही भांति घाघरा फैलाये         बैठी मालूम पड़ती है। मुसन्यौले ज्यादा लम्बे नहीं उड़ते, सिर्फ एक से दूसरी झाड़ी तक फुदकते हैं और चीं-चीं-चीं मचाये रहते हैं। याद आता है कि            इस बार कन्या की कामना इतनी क्यों रही होगी, तो वहां अम्बाला छावनी में साथ के एक फौजी अधिकारी के यहां आंखों में छा गई छोटी-सी बच्ची की आकृति स्मृति में उभरती आती है। याद आता है उसका 'अंकल-अंकल' कहना और कंधे पर चढ़ने की जिद करना। और यह कि बाबू की वृध्दावस्था और घर के वीरान पड़ जाने के कारण परिवार को साथ रखने का अवसर नहीं।
मुख्य सड़क तक पहुंचने से पहले ही, कुछ कुली कंधे पर रस्से डाले शहर की तरफ जाते दिख गये, तो सूबेदार ने जोरों से पुकार लिया। वो ठिठके, तो आने का संकेत दिया। तब तक में सूबेदारनी ने, सिर पर से सामान उतारकर, दीवाल पर रख दिया।
एक-एक रुपये के नोटों की एक नयी गड्डी जर्सी की जेब से निकालकर, सूबेदारनी के हाथों में थमाई नैना सूबेदार ने। कहा कुछ नहीं। हाथों को कुछ क्षण यों ही थामे रहे। सूबेदारनी ही हंस पड़ी- ''इतनी ज्यादा रकम दे रहे हो मजदूरी में- अगली बार भी हम ही लायेंगी साहब का सामान...''
इस हिमशिखर के पार का झरना साफ दिखाई देता है। झांको, तो खुद के प्रतिबिम्ब झलकते हैं।
कुली ने सामान लाद लिया, तो सूबेदारनी ने पांवों को स्पर्श किया और सिर तक समा गई। सूबेदार को हुआ, पंख हुए होते, तो एक ही उड़ान में ओझल हो जाते।
ऊपर तक पहुंचते में, नैना सूबेदार मुड़े नहीं। गांव की कच्ची सड़क का मुहाना मुख्य सड़क में समा गया, तब पलट कर देखा।
सूबेदारनी इसी ओर टकटकी लगाये खड़ी थीं। ओझल होने तक उन्हें ही देखना है।

कहानी- महुआ घटवारिन - पंकज सुबीर

पंकज सुबीर
''सर रेणु जी ने महुआ घटवारिन की पूरी कहानी नहीं लिखी, उसका अंत क्या हुआ ये पता नहीं चलता'' कुसुम ने प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा की ओर देखते हुए पूछा।
''पूरी तो है, मेरे विचार में तो कहानी पूरी है, हां ज्यादा विस्तृत इसलिए नहीं लिखा है, क्योंकि मूल कथा तो हीरामन और उसकी तीन क़समों की है, महुआ घटवारिन की कहानी तो लोक कथा के रूप में उसमें प्रवेश करती है।'' प्रोफेसर आनंद ने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा।
''नहीं सर मेरे विचार में महुआ घटवारिन की कहानी में और भी कुछ हुआ होगा, इतनी छोटी सी कहानी भला लोक गाथा कैसे बन सकती है।'' कुसुम ने दृढ़ता पूर्वक कहा। कुसुम प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा के मार्गदर्शन में फणीश्वर नाथ रेणु पर शोध कार्य कर रही है। उसने हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तार उपाधिा प्राप्त की है, तथा संयोगवश प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा ने ही कालेज में भी उसे हिन्दी साहित्य पढ़ाया है, इसलिए वह काफी खुलकर अपने प्रश्न कर लेती है, उनके सामने विचार रख लेती है। शोध विद्यार्थी तथा गाइड के बीच जो औपचारिकताओं का कुहासा रहता है, वह उनके बीच नहीं है।
प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा उम्र के पचपन वर्ष पूरे कर चुके हैं, वे न केवल हिन्दी विषय के प्रोफेसर हैं, बल्कि हिन्दी साहित्य में भी उनका नाम काफी श्रध्दा के साथ लिया जाता है, एक अच्छे कवि के रूप में भी और एक अच्छे कहानीकार के रूप में भी। पूरा व्यक्तित्व अत्यंत गरिमामय एवं प्रभावशाली है, खादी का कुर्ता पायजामा, जैकेट, चेहरे पर किंचित मोटे ऐनक का चश्मा, घनी रोबदार मूंछें, और करीने से जमे आधो सफेद आधे काले बाल, और इन सबके साथ बोलने का एक अत्यंत प्रभावशाली अंदाज़ जिसके चलते उनसे मिलने वाला उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। एक हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर की, एक हिन्दी की वरिष्ठ साहित्यकार की जैसी छवि होनी चाहिए, उसका हुबहू प्रतिमान हैं, प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा।
''तुम्हें रेणु पर पी.एच.डी करनी है, या महुआ घटवारिन पर? महुआ घटवारिन की कथा ''मारे गए गुलफाम'' की एक अंतर्कथा है, और अंतर्कथाएं ऐसी ही होती हैं, ये भी हो सकता है, महुआ घटवारिन की कोई लोक कथा हो ही नहीं।'' प्रोफेसर आनंद ने कुछ झिड़की लगाने वाले अंदाज में कहा।
''नहीं सर, ये तो हो नहीं सकता, महुआ घटवारिन की तो पूरी की पूरी कथा होगी, बल्कि मैं तो जहां पर रेणु जी ने उसकी कहानी को अधूरा सा छोड़ा है, उसके बाद की पूरी कथा को कल्पित कर सकती हूं'' हाथ में पकड़ी पुस्तक बंद करते हुए कुछ और दृढ़ स्वर में कहा कुसुम ने।
''अच्छा...?'' उत्सुकता पूर्वक तथा प्रश्नात्मक लहजे में कुसुम की ओर गहरी दृष्टि से देखते हुए कहा प्रोफेसर आनंद ने ''तो बताओ फिर क्या हुआ होगा, तुम्हारे हिसाब से महुआ घटवारिन के साथ, उसके बाद...?''
''देखिए सर, महुआ घटवारिन की कथा जिस प्रकार चली है उसको पढ़ने के बाद तथा यह जानने के बाद कि आज भी महुआ घटवारिन के गीत गाए जाते हैं, मैं कम से कम यह तो कह ही सकती हूं, कि महुआ घटवारिन की कथा का अंत कोई सुखद नहीं हुआ होगा'' कुसुम ने कुछ उदासी भरे स्वर में अपनी बात समाप्त की।
''तो तुम्हारे विचार में किस प्रकार अंत हुआ होगा उस कहानी का?'' प्रोफेसर आनंद ने धीरे मुस्कुराते हुए प्रश्न किया।
कुसुम कुछ देर मौन रही, शून्य में ताकती रही फिर बोली ''सर महुआ घटवारिन की जो कथा है उसमें महुआ जो नदी किनारे की घटवारिन है, वह अपनी सौतेली मां के द्वारा दी जा रही यातनाऐं भोगती भोगती जवान होती है, और जब वह जवान होती है, तो सौतेली मां उसे किसी सौदागर के हाथों बेच देती है। सौदागर उसे जिस नाव में बैठाकर ले जा रही है, महुआ उससे कूदकर नदी में तैरती हुई सौदागर के चंगुल से भागने का प्रयास करती है, जिसमें उसे कोई मुश्किल भी नहीं होती है, क्योंकि वह एक घटवारिन है, तथा घाट के पत्थरों और नदी की लहरों पर ही रह कर बड़ी हुई है, महुआ के पीछे ही सौदागर का वह सेवक भी कूद पड़ता है जो इस बीच  महुआ से प्रेम करने लग गया है, दोनों तैरते जा रहे हैं और हीरामन वहीं  कहानी को समाप्त कर देता है'' लंबी बात कह कर सांस लेने के लिए रुकी कुसुम।
प्रोफेसर आनंद की मुस्कुराहट कुछ गहरी हो गई, बोले ''हूं ठीक है इसके बाद क्या हुआ।''
''उसके बाद'' कुसुम ने बात फिर शुरू की ''उसके बाद यह हुआ होगा कि महुआ तो चूंकि घटवारिन है, अत: वह तो नदी में धार के विपरीत भी तैरती रही लेकिन वह सौदागर का नौकर लड़का डूबने लगा, उसे डूबता देख महुआ उसे भी बचाकर किनारे पर ले आई जहां वे दोनों महुआ की  सौतेली मां और सौदागर से छिप कर साथ रहने लगे।'' कुसुम कुछ देर के लिए रुकी।
''और फिर वे दोनों सुखमय जीवन व्यतीत करते रहे'' हंसते हुए कहा प्रोफेसर आनंद ने ''लेकिन ये तो फिल्मी सुखांत है, तुम तो दुखांत कह रहीं थीं।''
''कहानी यहां समाप्त नहीं होती है सर'' कुसुम ने विरोध के स्वर में कहा ''बल्कि कहानी तो यहां शुरू होती है। दोनों साथ-साथ जीवन व्यतीत करते हैं कि एक दिन वह लड़का महुआ को काफी पैसा कमा कर लाने का वादा करके किसी नौटंकी कंपनी के साथ चला जाता है, और फिर कभी नहीं लौटता महुआ उसकी प्रतीक्षा में परमार नदी के घाटों पर बावरी होकर दिन-दिन भर बैठी रहती है। पागलों की तरह दौड़-दौड़ कर हर आने वाले से उस लड़के के बारे में पूछती है, लेकिन कोई कुछ नहीं बताता ऐसे ही घाटों पर प्रतीक्षा में दौड़-दौड़ कर घाटों की पुत्राी महुआ घटवारिन एक दिन उन्हीं घाटों पर गिर जाती है। थककर, टूटकर और मरकर। हवा में गूंजते रह जाते हैं केवल उसके गीत जो आज भी रात को लोगों को घाट पर सुनाई दे जाते हैं। रात बे रात...!'' कुसुम की आवाज में पीड़ा के कारण कंपन आ गई, उसने देखा कि प्रोफेसर आनंद कांत के चेहरे के भाव कुछ बिगड़ गये हैं, तथा उनके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई हैं। कुसुम को अपनी ओर ग़ौर से देखता पाकर प्रोफेसर आनंद बोले ''ऐसा तुम कैसे कह सकती हो? यह भी तो हो सकता है, कि वह लड़का लौट आया हो, या यह भी हो सकता है कि नौटंकी कंपनी के साथ वह लड़का अकेला न गया हो, वो दोनों ही गए हों'', कुछ अटकते-अटकते कहा प्रोफेसर आनंद ने।
''नहीं सर'' प्रोफेसर आनंद की बात का विरोध करते हुए कुसुम ने कहा ''ऐसा नहीं हो सकता, महुआ तो घाटों की पुत्राी है, अत: वो तो घाट छोड़ कर जा ही नहीं सकती और जहां तक उस लड़के का प्रश्न है, वह इसलिए नहीं लौटेगा क्योंकि वह पुरुष है, छल देना तो पुरुषों के स्वभाव में ही होता है। इस छल को वह एक सुंदर नाम देता है, 'प्रेम' लेकिन वस्तुत: तो वह स्त्राी को छलता ही है और यह भी सत्य है, कि एक बार पुरुष को उड़ने के लिए विस्तृत आकाश मिल जाए तो वह फिर भूल जाता है, कि कहीं कोई है, जो उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है,'' कुसुम ने अपनी बात ख़त्म करके देखा कि प्रोफेसर आनंद के चेहरे के भाव काफी बिगड़ गये हैं, वे रुमाल निकाल कर माथे पर छलक आया पसीना पोंछने लगे।
''क्या बात है, सर आपकी तबीयत तो ठीक है'' कुसुम ने चिंतित स्वर में पूछा।
''हां कुछ असहज लग रहा है, अब मैं आराम करूंगा'' प्रोफेसर आनंद ने कहा।
''ठीक है सर अब मैं चलती हूं, आप आराम कीजिए'' कुसुम ने अपनी किताबें और कागज़ात समेटते हुए कहा। किताबें वगैरह समेटने के बाद कुसुम चली गई। प्रोफेसर आनंद अकेले रह गये। रीडिंग टेबल से उठ कर वे खिड़की के पास रखी आराम कुर्सी पर आकर बैठ गए, उनके कानों में कुसुम द्वारा कहे गऐ शब्द गूंज रहे थे ''वह फिर भूल जाता है कि कहीं कोई है, जो उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।'' सुधियों के दृश्य पटल पर उभरने लगा नर्मदा नदी के किनारे बसा वह छोटा सा क़स्बा जिसे लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व वे इस तरह छोड़कर आ गये कि फिर लौट कर देखा भी नहीं कि वह क़स्बा किस हालत में है।
प्रोफेसर आनंद के सामने पूरा जीवन वृत्ता स्मृति कोष से निकल कर आ गया, वह जीवन वृत्ता जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा, नर्मदा के किनारे बसे उस छोटे से क़स्बे शाहगंज के विद्यालय में उनके पिता हिन्दी  के अध्यापक थे, उसी छोटे क़स्बे से इस महानगर इन्दौर तक की यात्रा  वास्तव में एक ठहरे हुए झील के पानी की गाथा है। इस गाथा का सबसे विचारणीय पहलू यह है, कि यह उस जीवन के झील हो जाने की कथा है, जो पला बढ़ा उस चिर कुंवारी नर्मदा नदी के किनारे जिसे कोई नहीं बांध  पाया, जिसके पानी ने कभी थमना नहीं सीखा, वह वेगवती नदी जिसने कहा कि जो मुझे एक रात में बांधा देगा तो मैं उसी की हो जाऊंगी अन्यथा चिरकुवांरी ही रहूंगी। ऐसी सलिला के पट पर पला बढ़ा जीवन स्वयं तीस वर्षों से झील के पानी की तरह ठहर कर एक ही स्थान पर खड़ा है, विश्वास करना जरा मुश्किल है।
''वह फिर भूल जाता है, कि कहीं कोई है, जो उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है'' एक ही वाक्य रह रह कर सदियों से सूने और वीरान घर के दरवाज़े पर दस्तक की तरह गूंज रहा है। प्रोफेसर आनंद ने आराम कुर्सी की पुश्त से सर टिकाया और अपना पूरा शरीर ढीला छोड़ दिया, मानो युगों की थकान के बारे में अभी-अभी पता चला है, कि ''अरे कब से थका हुआ हूं मैं।''
शाहगंज के जिस विद्यालय में उनके पिता राम स्वरूप शर्मा हिन्दी पढ़ाते थे, उसी विद्यालय में संस्कृत पढ़ाते थे पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे, दोनों परिवारों में आपसी प्रगाढ़ता के काफी सारे सुखद कारण थे, दोनों का मालवा क्षेत्रा से संबंध, दोनों ब्राह्मण कुल और उस पर दोनों अध्यापन में, और अध्यापन में भी दोनों ही भाषा के शिक्षक एक संस्कृत का तो दूसरा हिन्दी का।
पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे की ही बेटी थी शारदा, आनंद की सहपाठिनी, मित्रा और हम दर्द। हमदर्द इसलिए कि पढ़ाई लिखाई में लगभग औसत दर्जे का होने के कारण आनंद की हमेशा शामत रहती थी, इधर राम स्वरूप शर्मा थे, तो उधर पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे, लेकिन आनंद के मन को, उसमें भरी हुई यायावरता को अगर कोई समझता था, तो वो थी शारदा। दोनों शिक्षकों के मन में आनंद के प्रति जो भावना थी उसको बदलने का कार्य शारदा का ही था, जिसे वो बखूबी करती रहती थी।
समय गुज़रता रहा, नर्मदा में पानी बहता रहा, आनंद के मन की नाव हवा के झौंके के साथ असीम की ओर निकल जाने को मचलती रही और शारदा उसे खींच कर वापस तट से बांधती रही। अगर रिश्ते की व्याख्या करना हो तो शायद अच्छे-अच्छे मीमांसकों को भी पसीना आ जाए कि शारदा और आनंद के बीच के इस रिश्ते को किस प्रकार परिभाषित किया जाए। एक तरफ आनंद था, घर, परिवार, शारदा यहां तक कि स्वयं से भी अजनबी, और दूसरी तरफ शारदा थी, जिसके लिए आनंद को सही दिशा में बढ़ जाने की प्रेरणा देना ही सब कुछ था। एक तरफ आनंद था शारदा के हर प्रयास को जानकर भी बेख़बर था, और दूसरी तरफ शारदा थी उस बेख़बरी को नगण्य मानते हुए अपने प्रयास में जुटी रही। दोनों ने स्वयं ही कभी अपने बीच के रिश्ते को कोई भी नाम देने का प्रयास नहीं किया। शायद इसलिए वो रिश्ता नर्मदा के जल की तरह प्रवाहमान था दोनों के बीच।
आनंद को आज तक याद है शारदा का वो उत्तार जो उसने आनंद को उसके प्रश्न के जबाव में दिया था। शाम का समय था, नर्मदा के किनारे दोनों बैठे थे, आनंद ने कहा ''शारदा अगर मैं स्वयं को नर्मदा में समर्पित कर दूं, तो ये मुझे डुबाएगी या पार लगा देगी?'' डूबते सूरज की लालिमा में आनंद ने देखा कि शारदा के चेहरे पर दृढ़ता आ गई है। बोली ''यकीनन डुबो देगी क्योंकि नर्मदा ने कभी भी कायरता को स्वीकार नहीं किया उसका तो कहना है, कि अगर कायरता को स्वीकार कर लिया होता, तो आज मैं चिर कुंवारी नहीं होती, समर्पण चाहे जिस भी रूप में हो लेकिन समर्पण हमेशा कायरता ही कहलाता है। ईश्वर ने हमें जूझने के लिए भेजा है पलायन के लिए नहीं, ज़िम्मेदारियों से मुंह फेर कर किया गया त्याग, वैराग्य नहीं पलायन कहलाता है'' अपनी बात ख़त्म करते-करते शारदा के चेहरे पर एक विचित्रा सी आभा आ गई थी। उस दिन के पश्चात फिर आनंद ने इस तरह की कोई बात पूछने का साहस नहीं किया था शारदा से, शारदा का बिल्कुल अलग ही रूप था वह।
यूं तो पंडित रामस्वरूप शर्मा काफी समय से अपने गृह नगर महू स्थानान्तरण चाह रहे थे लेकिन आनंद के वीतरागपन के चलते और नर्मदा तट की इस उक्ति के चलते कि चिर कुंवारी नर्मदा का सानिध्य मानव मन में वैराग्य भाव को पुष्ट करता है, वे अब स्थानान्तरण के लिए पूरी शक्ति से प्रयासरत हो गए थे। मैट्रिक की परीक्षा में आनंद के परिणाम ने उनके माथे की लकीरें गहरी कर दी थीं। पुश्तैनी घर और जमीन भी महू में रख-रखाव के अभाव में ख़राब हो रही थीं। इन्हीं सब कारणों के चलते अंतत: एक दिन पंडित रामस्वरूप शर्मा ने अपने महू स्थानातंरण का आदेश लाकर पत्नी के हाथ पर रख दिया था। एक तरह इतने वर्षों के साथ के बिछोह का दुख था, तो दूसरी ओर अपने घर लौटने का सुख, जहां सेवा निवृत्ता के बाद वैसे भी लौटना ही था।
विदाई के एक दिन पूर्व अंतिम बार आनंद और शारदा नर्मदा के तट पर बैठे थे वही संध्या का समय था, सूर्य अपनी प्रखरता को त्याग सौम्यता के साथ कल्पित क्षितिज के उस तरफ प्रस्थान कर रहा था, चारों तरफ मौन था, नि:स्तब्धता थी, कोई स्वर था तो नर्मदा की लहरों का स्वर था। दोनों के बीच कोई संवाद नहीं हुआ जब रात गहराने लगी तो शारदा ने मौन तोड़ते हुए कहा ''अब घर चलें?''। आनंद कुछ देर मौन रहा फिर बोला ''मैं तुमसे मिलने आता रहूंगा।'' शारदा ने आनंद की बात सुनी और बोली ''आनंद तुमने आम्रपाली की कथा पढ़ी है? उसमें अब आम्रपाली को वैशाली द्वारा जबरदस्ती नगरवधु बना दिया जाता है, तब एक दिन उसका पूर्व प्रेमी हर्ष सारे बंधन तोड़ते हुए आम्रपाली तक पहुंच जाता है, और उसे अपने साथ  भाग चलने को कहता है, तब आम्रपाली उसे कहती है, कि ऐसे नहीं, सारे वैशाली में आग लगा कर आना मेरे पास, तब मैं चलूंगी तुम्हारे साथ, अभी नहीं।''
आनंद ने कहा ''तो...? इस कथा को सुनाने का अभी क्या प्रयोजन है?''
''है'' शारदा ने कहा था ''प्रयोजन यह है, कि तुम्हारे परिवार की यहां से विदाई के कई सारे कारणों में, मैं स्वयं को भी एक महसूस करती हूं। यह अपराध बोध है मेरे अंदर, जो तुम्हारे बार-बार आने से और गहरा होगा, इसीलिए मैं भी वही कहती हूं, कि इस तरह मत आना मेरे पास, कुछ बन जाओ तब आना मेरे पास, मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर लूंगी, पर इस आधो-अधूरे पलायनवादी अस्तित्व के साथ तुम्हारा बार-बार आना स्वीकार नहीं कर पाऊंगी।''
दोनों के बीच यह अंतिम वार्तालाप था, दूसरे दिन शर्मा परिवार बिछोह और विरह के पानी से भीगी कई सारी आंखों से विदा लेता हुआ शाहगंज से महू की ओर प्रस्थान कर गया, अपनी कई सारी स्मृतियां वहां छोड़कर और वहां की कई सारी स्मृतियां अपने साथ लेकर।
कालेज की पढ़ाई के लिए महू से इन्दौर आना जाना भी किया जा सकता था, लेकिन आनंद ने इन्दौर में ही होस्टल में रहकर आगे की पढ़ाई करने का निर्णय लिया था। समय फिर अपने कार्य में लग गया, और स्मृतियां पर विस्मृतियों की परत बिछाता गया गुज़रता गया, गुज़रता गया, गुज़रता गया।
स्नातक होने के पश्चात् जब हिन्दी में स्नातकोत्तार उपाधि लेने के लिए आनंद ने एम.ए. में प्रवेश लिया, तब वह प्रोफेसर विश्वेश्वर दीक्षित के संपर्क में आया था। वास्तव में प्रोफेसर विश्वेश्वर दीक्षित के रूप में आनंद को शारदा के पश्चात जीवन में दूसरा गुरू मिला था। शारदा के छोड़े हुए अधूरे कार्य को प्रोफेसर दीक्षित ने ही पूरा किया। आनंद को तराशने, मन के वीतरागीपन को साहित्य की समृध्दता की ओर मोड़ने, और आनंद को प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा बनाने में प्रोफेसर दीक्षित के गुरु गंभीर व्यक्तित्व की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही। शारदा ने जिस पत्थर को आधा गढ़ा था उसे पूरा गढ़ कर प्रतिमा बना दी प्रोफेसर दीक्षित ने।
स्नातकोत्तार उपाधि लेने के पश्चात जब आनंद प्रोफेसर दीक्षित के मार्गदर्शन में पीएचडी कर रहा था तभी एक दिन श्री और श्रीमती दीक्षित महू पहुंच गए थे, अपनी पुत्राी सरिता के लिए आनंद का हाथ मांगने। आनंद के लिए यह बात स्तब्ध कर देने वाली थी किन्तु फिर भी वह अस्वीकार करने वाली स्थिति में नहीं था। जब परिवार के लोगों ने आनंद की राय जाननी चाही तो अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए केवल उसने एक ही इच्छा रखी थी, कि शादी अत्यन्त सादगी पूर्वक होगी इसमें केवल दोनों परिवारों के लोग ही सम्मिलित रहेंगे। परिवार वालों के लिए आनंद की स्वीकृति ही बड़ी बात थी इसलिए शर्त के स्वीकृत होने में कोई बाधा नहीं आई। केवल दोनों परिवार की उपस्थिति में विवाह करके आनंद ने शारदा का सामना करने से अपने आप को बचा लिया था।
पीएचडी पूरी होने के बाद प्रोफेसर दीक्षित ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए आनंद को भी प्राध्यापक के पद पर नियुक्त करवा दिया, और उसके बाद घर, परिवार, बच्चे, व्याख्यान, साहित्य सेवा सारा घटना क्रम चलता रहा। समय चक्र में फंसकर दिन, माह, वर्ष, अतीत का हिस्सा बनते रहे और आनंद को भी पता नहीं चला कि कब कल का वीतरागी आनंद, प्रोफेसर कांत शर्मा हो गया, एक सम्मानित प्रोफेसर और हिन्दी साहित्य का एक सशक्त हस्ताक्षर। पैंतीस वर्ष बीत गए, इस बीच आनंद ने साहित्यकार के रूप में देश के कोने-कोने की यात्राा की, नहीं जा पाए तो केवल नर्मदा तट पर बसे उस छोटे से कस्बे शाहगंज, जिसे पैंतीस वर्ष पूर्व छोड़ आए थे। अब तो दोनों बेटे भी सेटल हो गए हैं, और एक बार फिर सरिता और आनंद बड़े से घर में अकेले हैं, जैसे तब थे जब गृहस्थ जीवन की शुरूआत की थी दोनों ने, प्रोफेसर आनंद की निगाहें खिड़की के पार किसी अदृश्य बिन्दु पर स्थिर थीं, शायद स्वयं को भुलावे में रखने के लिए। और मन में गूंज रही थीं दो बातें, पहली पैंतीस वर्ष पूर्व कही गई शारदा की बात ''कुछ बन जाओ तब आना मेरे पास, मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर लूंगी, और दूसरी आज कही गई कुसुम की बात ''वह फिर भूल जाता है कि कहीं कोई है जो उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।'' दोनों बातों के कहे जाने के बीच में पैंतीस वर्ष का कालांतर है, किन्तु लग रहा है जैसे दोनों बातें अभी की हैं आज ही की हैं।
''क्या बात है टहलने नहीं जाना है क्या...? शाम हो गई है'' सरिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा। ''हां...'' प्रोफेसर आनंद पैंतीस वर्ष पूर्व के ठिठके हुए अतीत से वर्तमान में लौट आए ''शाम हो गई क्या? पता ही नहीं चला'' सरिता ने पास रखे हुए स्टूल पर प्रोफेसर आनंद की चाय का कप रख दिया और स्वयं भी पास की कुर्सी पर बैठ गई।
''कुछ परेशान लग रह हो'' सरिता ने पूछा।
''नहीं तो... बस यूं ही सोच रहा था कि जब से शाहगंज छोड़ा तब से एक बार भी नहीं गया अपनी जन्मभूमि और नर्मदा की याद नहीं आई कभी।'' आनंद ने सरिता से नज़रे चुराते हुए कहा।
''वो इसलिए क्योंकि यहां इन्दौर में भी तो तुम नल चला कर नर्मदा के पानी से ही तो नहाते हो'' सरिता ने हंसते हुए कहा। आनंद ने कोई जवाब नहीं दिया, अपनी चाय का कप उठा कर पीने लगा।
कुछ देर बाद सरिता ने कहा ''जाना चाहो तो हो आओ, पुराने दोस्तों से मुलाकात भी हो जाएगी, और तुम्हारा अपराध बोध भी कम हो जाएगा।''
''दोस्त तो अब क्या मिलेंगे? हां जन्मभूमि को फिर से देखना हो जाएगा'' कह कर एक क्षण को आनंद ने रुककर सरिता की तरफ देखा और पूछा ''तुम चलोगी क्या?''।
''ना बाबा ना मैं क्यों जाऊंगी, तुम अकेले ही आओ मुझे साथ ले जाओगे तो खुलकर घूम फिर नहीं पाओगे, सबसे मिल नहीं पाओगे'' सरिता ने कुछ मीठे स्वर में कहा।
''हूं... देखते हैं क्या होता है'' कह कर आनंद ने चुप्पी साध ली।
एक सप्ताह बाद जब प्रोफेसर आनंद शाहगंज पहुंचे तो ऐसा लगा जैसे समय ठहर गया हो, जहां वे पैंतीस वर्ष पहले छोड़ गए थे। हां प्रगति नाम की प्रक्रिया ने अपना पूरा प्रभाव इन पैंतीस वर्षों में दिखाया था, किन्तु इस प्रगति के पीछे कहीं कहीं कुछ ऐसा झांक रहा था, निहार रहा था प्रोफेसर आनंद को पूरे अपनेपन के साथ मानो छूना चाह रहा हो कि, अरे..! इतने बड़े हो गए तुम...? कल जब यहां से गए थे तब तो....। आनंद ने लंबी सांस खींची वही सौंधापन वही सुगंध, इतने सारे बदलाव के बाद भी मानो कुछ भी नहीं बदला हो।
सबसे पहले नर्मदा के तट पर पहुंचे प्रोफेसर आनंद, नर्मदा को प्रणाम किया जल को आंखों से लगाया। कुछ घाट नए बन गए हैं, परंतु पुराने घाट अभी भी जस के तस हैं। अपने उसी पुराने घाट के पत्थर पर बैठ गए प्रोफेसर आनंद। वहीं बैठे-बैठे पूर्ववत नर्मदा की लहरों को निहारने लगे, ऐसा लग ही नहीं रहा था कि कई वर्ष बीच में गुज़र गए हैं, ऐसा लग रहा है मानो कल ही की बात है, जब वे शारदा के साथ यहां बैठे थे। शारदा...! शारदा की स्मृति आते ही प्रोफेसर आनंद उठ कर खड़े हो गए और बस्ती की ओर चल दिये।
चारों तरफ चेहरे ही चेहरे थे, कुछ चेहरे सर्वथा अपरिचित तो कुछ कहीं कहीं से परिचित होने का भाव लिये, लेकिन चूंकि दोनों तरफ समय ने अपनी छाप छोड़ रखी थी इसलिए पहचान के चिन्ह ढूंढना मुश्किल हो रहा था। कोई कोई चेहरा आनंद को देखकर ठिठकता, कुछ संशय में पड़ता फिर चल देता। जानी पहचानी गलियों से होते हुए प्रोफेसर आनंद पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे के घर पहुंचे, देखा कि वे बाहर ही आंगन में बैठे हुए कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं।
काफी वृध्द हो चुके पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे के चहरे पर अभी भी वही तेज था। आनंद ने बढ़कर उनके चरण छू लिये। दुबे जी ने हाथों की पुस्तक बंद कर कुछ अपरिचित नज़रों से आनंद की ओर देखा और कुछ पूछना चाहा किन्तु उनके कुछ कहने के पूर्व ही आनंद ने कहा ''मैं आनंद हूं गुरूजी, राम स्वरूप जी का बेटा।''
आनंद के इतना कहते ही दुबे जी की ठोड़ी में कंपन सा हुआ, फिर आंखों में चमक सी आ गई उठकर उन्होंने आनंद को सीने से लगा लिया और भाव विह्वल होकर बोले ''अरे...! तू है बेटा।''
दो दिन तक दुबे जी के यहां मेहमान रहे आनंद, दिन भर घूमना फिरना, और रात को अतीत की चर्चा करना कि कौन कब क्या था? अब कहां है? और क्या हो गया? उस दौर के एक एक व्यक्ति से मिलाने ले गए आनंद को दुबे जी, एक ही वाक्य कह कर मिलाते ''अपने रामस्वरूप का बेटा है, हिंदी का बड़ा प्रोफेसर और साहित्यकार हो गया है'' प्रोफेसर आनंद ने देखा कि वाक्य का पहला हिस्सा बोलते समय दुबे जी का स्वर अपनेपन से भीगा होता था, किन्तु दूसरा हिस्सा बोलते समय उस स्वर में गर्व छलक आता था।
दुबे जी के बेटे बहुओं ने खूब सेवा की प्रोफेसर आनंद की। रात को भोजन वगैरह करके जब दोनों बातें करने बैठते तो समय का पता ही नहीं चलता, बातों में कुछ भी नहीं केवल अतीत की बातें, अतीत से किसी भी पात्रा को चुनना और उसको लेकर अपने प्रश्नों का समाधान करना। इसी दौरान पता चला कि शारदा की शादी भोपाल में हुई है, शारदा शादी के पहले ही शिक्षक हो गई थी, आजकल भोपाल के किसी विद्यालय में प्राचार्य है। पति भोपाल में ही चिकित्सक हैं। अपनी घर गृहस्थी में पूर्णत: ख़ुश है। शारदा के बारे में सुनकर अच्छा लगा आनंद को, ऐसा लगा कि कोई अपराध बोध उतर गया है मन से। शारदा के घर का पता और स्कूल का पता ले लिया आनंद ने, जाना तो भोपाल होकर ही है, और फिर आने का प्रमुख प्रयोजन तो शारदा से मिलना ही था।
दो दिन बाद प्रोफेसर आनंद रवाना हुए तो दुबे जी का पूरा परिवार बस तक छोड़ने आया था, साथ में वे कई लोग भी आए थे जो आनंद के पुराने परिचित थे सभी की आंखों में नमी थी जैसे कई वर्ष पूर्व विदाई के समय थी।
भोपाल पहुंचते पहुंचते ही दोपहर हो गई, आटो रिक्शा लेकर सीधे शारदा के स्कूल की ओर रवाना हो गए प्रोफेसर आनंद। तीन दिन हो गए इंदौर से निकले, जाने क्यों घर की याद आ रही है। जबकि ऐसा कभी नहीं हुआ। पहले भी साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में अक्सर घर से जाना हुआ था, लेकिन इस बार जाने क्यों सरिता को इतने दिनों के लिए छोड़ना कुछ अच्छा नहीं लग रहा, मन कर रहा है अब जल्दी वापस लौटा जाए। स्कूल पहुंचकर शारदा के बारे में पूछा तो ज्ञात हुआ मैडम अपने ऑफिस कक्ष में बैठी हैं। आनंद जैसे ही प्रिंसिपल कक्ष के बाहर पहुंचे कि परदा हटा कर शारदा बाहर निकली, निकलते ही आनंद को देखा कुछ चौंकी फिर हंसते हुए बोली ''अरे....! आनंद तुम....! आज कैसे याद आ गई?''
प्रोफेसर आनंद बोले ''तुमने मुझे पहचान लिया....!''
''आए दिन तो तुम्हारी कहानियों के साथ तुम्हारा फोटो छपता है पत्रिकाओं में, पहचानती कैसे नहीं'' उसी तरह हंसते हुए कहा शारदा ने ''चलो अंदर चलकर बैठते हैं।'' कहते हुए शारदा ने अपने कक्ष का परदा हटा कर आनंद को अंदर चलने का इशारा किया।
''हां अब बताओ क्या पियोगे चाय या काफी'' कुर्सी पर बैठते हुए शारदा ने पूछा।
''कुछ भी मंगवा लो, तुम्हें तो पता है कि खाने-पीने के मामले में मेरी कोई विशेष पसंद नहीं रही'' आनंद ने कहा, शारदा ने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और दो चाय लाने को कहा।
''कहां से चले आ रहे हो...?'' शारदा ने पूछा।
''शाहगंज से।'' आनंद ने संक्षिप्त सा उत्तार दिया।
''शाहगंज से...!'' शारदा ने कुछ चौंकते हुए कहा ''वहां किस प्रयोजन से गए थे...?''
आनंद ने मुस्कुराते हुए कहा ''तुम से मिलने, तुमने कहा था ना कि कुछ बन जाओ तब आना मुझसे मिलने, लेकिन मैंने आते आते कुछ देर कर दी।''
इसी बीच चपरासी टेबल पर चाय का कप रख गया। चपरासी के जाने के बाद शारदा ने चाय का कप उठाते हुए कहा, ''नहीं आनंद तुमने देर कहां की, मैंने तुमसे कहा था कि कुछ बन जाओ तब आना मुझसे मिलने तब तक प्रतीक्षा करूंगी।''
''हां वही तो तभी तो कह रहा हूं कि मैं लेट हो गया'' आनंद ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
''नहीं आनंद कॉलेज में प्रोफेसर हो जाने से मेरा आशय तब नहीं था, वह तो हज़ारों लोग बन जाते हैं। मैं तो चाहती थी जो तुम आज हो, आज साहित्य में तुम जिस स्थान पर हो वह स्थान वही है जिसके बारे में मैंने कहा था, इसलिए तो मैं कह रहीं हूं कि तुम सही समय पर आये हो कुछ बन जाने के बाद'' शारदा ने कहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद आनंद ने कहा ''मुझे कुछ दिनों से यह अपराधा बोधा था कि मुझे तुम्हारे पास बरसों पूर्व आना चाहिए था तुम मेरी प्रतीक्षा में हो।''
''प्रतीक्षा तो मैंने की है लेकिन तुम्हारा अपराध बोध बरसों पुराना न होकर केवल एक ही वर्ष का होना चाहिए'' शारदा ने कहा।
''कैसे....?' आनंद ने कहा।
''वो ऐसे कि पिछले साल तुम्हें शिखर सम्मान मिला है, बस तभी से मुझे उम्मीद थी कि अब तुम्हें आना चाहिए क्योंकि अब तुम वो बन गए हो जो मैं चाहती थी'' शारदा ने कहा।
''तुम्हारी बातों ने मेरा बोझ हल्का कर दिया।'' आनंद ने चाय का कप रखते हुए कहा।
देर तक दोनों घर परिवार की बातें करते रहे। बातें करते करते आनंद ने घड़ी देखी चार बज गए थे ''अच्छा शारदा चलता हूं'' आनंद ने कहा।
''अरे ये क्या बात हुई? घर नहीं चलोगे क्या?'' शारदा ने उठते हुए कहा।
''नहीं शारदा आज नहीं, दस दिन बाद एक कार्यक्रम में भोपाल आना है। तब आऊंगा सरिता को भी साथ लेकर आऊंगा, तुम्हारे घर ही ठहरूंगा, अभी तीन दिन हो गए इंदौर छोड़े, सरिता वहां अकेली है'' आनंद ने कहा ''अच्छा लगा यह जानकर कि तुम्हें अपनों की परवाह है। तुम सचमुच वही बनकर आए हो जो मैं चाहती थी'' कहते हुए आनंद के कंधे पर धीरे से हाथ रख दिया शारदा ने, प्रोफेसर आनंद ने देखा कि शारदा की आंखों में एक चमक सी आ गई है, अपनी कंधे पर रखे शारदा के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और धीरे से मुस्कुरा दिये। प्रोफेसर आनंद को लगा अब वे कुसुम के साथ बहस कर सकते हैं, महुआ घटवारिन की कहानी के बारे में, क्योंकि अब वह कहानी पूरी जो हो गई है।
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कहानी- गिरगिट - जितेन्द्र शर्मा

जितेन्द्र शर्मा

वे कालेज के विद्यार्थी थे और पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले शहर के एक लेखक से मिलने के लिए आये हुए थे। लेखक के दो कमरों के मकान के बाहर खड़े वे दोनों उजबक की तरह इधर-उधर निगाहें दौड़ाते काफी देर तक खड़े रहे फिर उनमें से एक ने बहुत साहस जुटा कर काई जमे दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा एक स्त्री ने खोला जो लेखक की पत्नी थी। अपरिचित चेहरों को देखकर उसने प्रश्न भरी निगाह उन पर डाली। जीन्स पहने हुए, ऊंचे कद और भारी गालों वाले युवक ने खंखारते हुए पूछा ''पथिक जी हैं? उनसे मिलना है।''
''आप बैठिए वे अभी नहा रहे हैं।'' दोनों युवक अन्दर कमरे में रखे टूटे हुए सोफा में धंस गये और निगाहें घुमाकर कमरे का जायजा लेने लगे। कमरे में सिर्फ एक चारपाई बिछी हुई थी जिस पर फटी हुई नीले रंग की चादर थी। चारपाई के उपर ही कुछ कागज के पन्ने बिखरे हुए पड़े थे और एक मोटी सी पुस्तक खुली हुई उल्टी रखी थी। एक फाउन्टेन पैन खुला रखा था व कुछ फाईलें व पुस्तकें तहें लगी रखीं थी। पूरे कमरे में केवल एक फोटो टंगी हुई थी। वह थी कवि निराला जी की फोटो। आगंतुकों ने फोटो को नज़दीक से देखा फिर चारपाई पर रखी फाईलों को उलटने-पलटने लगे। तभी पथिक जी ने कमरे में प्रवेश किया। आगन्तुक यकायक चारपाई से सकपका कर उठे। जैसे कोई अपराध करते हुए पकड़े गये हों। वे सकपकाहट में उन्हें नमस्ते करना भी भूल गये। और सोफे पर जाकर बैठ गये। तत्काल ही उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया और वे फिर खड़े हो गये और झुक कर पथिक जी को नमस्ते की। औपचारिकता निभाने के बाद उन्होंने अपना परिचय दिया- मेरा नाम करण है और यह हैं मेरे मित्रा चरण। हम दोनों बी0 काम- द्वितीय वर्ष के विद्यार्थी हैं पर साथ ही हमारी साहित्य में बड़ी रूचि है। ''विभा'' मासिक पत्रिाका में आपकी कहानी पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। पत्रिाका में आपका पता भी छपा हुआ था सो आपसे मिलने चले आये।''
''बड़ा अच्छा किया। आप लोगों से मिल कर खुशी हुई पथिक पालथी मार कर चारपाई पर विराजमान हो गये। अच्छा लग रहा था कि पहली बार उन्हें लेखक की तरह पहचाना जा रहा है, बैंक के कर्मचारी के रूप में नहीं। अब तक तो जो भी उनके पास आता था बैंक के काम की वजह से आता था। आज का यह अपवाद उन्हें खुशी दे रहा है। वे उमर में उन युवकों से काफी बड़े थे शायद इसी लिए उन्होंने आवाज़ में अतिरिक्त वात्सल्य घोलते हुए पूछा ''आप लोगों को भी लिखने का शौक है?, ''जी शोक तो है, कुछ छुटपुट लिखा भी है पर कुछ भी छपा नहीं है। आपका मार्गदर्शन चाहिए।''
मार्गदर्शन जैसे शब्द को सुनकर पथिक चौंक उठे। उन्हें लगा उनके अन्दर कुछ-कुछ हो रहा है जो उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है। अपनी आवाज को संयत करते हुए वे बोले- ''सृजन अन्दर की चीज़ है। विश्व का साहित्य पढ़िये। दुनिया को खुली आंखों से देखिये और यथार्थ को भोगिये। फिर लिखिये। मार्ग दर्शन लेना ही है तो महान लोगों से लीजिए। असली बात तो यह है कि अपना रास्ता स्वयं खोजिए। दोनों युवक यकायक खड़े हो गये और बोले- ''अब चलते हैं कल फिर मिलेंगे। पथिक को ऐसा आभास हुआ कि उनकी बातों को उन्होंने बिल्कुल बकवास समझा है और उन्हें उनकी बातें कतई भी अच्छी नहीं लगी हैं फिर भी उन्होंने कहा- ''नहीं-नहीं आप बिना चाय पिये नहीं जा सकते, बैठिऐ तो।''
करण ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा- ''क्षमा कीजिए साढ़े आठ बजे कालेज में क्लास है और अब केवल दस मिनट बचे हैं। आज्ञा दीजिए फिर आयेंगे। वे दरवाजे के बाहर हो गये फिर पथिक की ओर मुड़ कर कमान की तरह कमर को झुका कर नमस्ते कर मुस्कुराते हुए चले गये। पथिक उनके इस अटपटे व्यवहार के बारे में सोचता ही रह गया। उनकी मुस्कुराहट में छिपा व्यंग्य उसे बेचैन कर रहा था। तभी दोनों युवक फिर कमरे के अन्दर आ गये जैसे अचानक ही उन्हें कोई बात याद गई हो या कोई वस्तु भूल गये हों।
करण ने पूछा- ''ये दीवार पर टंगा चित्रा किसका है? क्या ये आपके पूज्य पिता श्री हैं?''
''अरे क्या कह रहे हैं आप। ये तो महाकवि निराला जी का चित्रा है। पहचाना नहीं आप लोगों ने।''
''ओह! गलती हो गई। मैं तो इससे (चरण की ओर इशारा करके) पहले ही कह रहा था कि किसी साहित्यकार का चित्रा होगा।'' दोनों फिर मुस्कराए और तेजी से बाहर निकल गये। पथिक जी, व्यथित हो, आगंतुकों के बारे में, उनके चेहरे पर खिलती व्यंगात्मक मुस्कुराहट के बारे में और अचानक उठ कर चले जाने, पुन: लौट आने के बारे में देर तक सोचते रहे।
अगले दिन सुबह पथिक जी के मस्तिष्क में कहानी का एक प्लाट जन्म ले रहा था। उनके हाथ में सिगरेट थी और वे कहानी की प्रथम पंक्ति के बारे में सोच रहे थे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। उन्हें बेमन से दरवाजा खोलना पड़ा। सामने वे ही दोनों युवक हाथ जोड़े खड़े हुए थे।
''ओह! आप लोग आईये।'' दोनों युवकों ने कमरे में बेहिचक प्रवेश किया और खी-खी कर के हंसते हुए बोले- आपके दर्शन करने चले आये। दर्शन! तो दर्शन तो आपने कर लिये अब आप लोग जा सकते हैं। पथिक यह बात केवल सोचता रहा कह नहीं पाया। वे दोनों फिर सोफे पर धंस गये और मुस्कराते रहे। ये मुस्कराहट न जाने क्यों पथिक को चुभ रही थी। उन्हें ये युवक बेहुदे लग रहे थे पर व्यवहार वश वे उन्हें सम्मान देने को विवश थे।
आगंतुक काफी देर चुप-चाप बैठे रहे और लेखक की ओर देखते रहे कि उनके मुंह से शब्द निकलें और वे उन्हें पकड़ें- ''चाय पीयेंगे आप लोग?, जी आज तो छुट्टी का दिन है। खूब समय है, पी लेंगे'' करण बोला। दोनों युवक हाथों को टांगों के बीच जोड़े नीचे गर्दन किये बैठे थे। पथिक के मन में आया कि उन्हें कहें- अपराधी की तरह क्यों बैठे हैं। जब आप लोगों ने कोई शर्मनाक काम नहीं किया है तो ऐसे सिर झुकाने की जरूरत क्या है। पर वे बिना कुछ बोले अन्दर चाय बनवाने के लिए पत्नी के पास चले गये। चाय पीने के बाद करण के लिए समय काटना मुश्किल हो गया और उसने दो मिनट में, दसों बार, कलाई खड़ी देखी और बेचैनी में खड़ा हो गया। ''अब चलते हैं। साढ़े दस बज गये हैं'' साढ़े दस बजे का उनके किसी काम से कोई लेना देना नहीं था, बस साढ़े दस बज गये थे और मन की अकुलाहट बढ़ गई थी। अब चलें। वे मुस्कराते हुए चले गये।
उनका पथिक जी के यहां आना जाना नियमित हो गया था और यह पथिक के लिए फिजूल का सिर दर्द हो गया था।
दो चार बार तो घर पर होते हुए भी पथिक ने कहलवा दिया था कि वो घर पर नहीं हैं। एक दो बार तो ऐसा भी हुआ कि वे युवक दो-दो घंटे बाहर उनकी प्रतीक्षा करते रहे और पथिक को अपने जरूरी काम को निपटाने के लिए पिछले रास्ते से बाहर जाना पड़ा। पथिक जी के बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा था कि ये युवक बिना किसी आवश्यक कार्य के दो-दो घंटे तक प्रतीक्षा क्यों करते हैं। पर ऐसा नियमित रूप से होता रहा। और वे चुप-चाप इस कड़वे घूंट को पीते रहे।
अब कुछ बदलाव आ गया था। करण आजकल अकेला ही आ रहा था। चरण शायद कुछ घर के कामों में मशगूल हो गया होगा। करण अपनी कोई कहानी या कविता लेकर आता था और पथिक से उस पर उनकी राय मांगता था।
उसकी रचनाओं में सस्ते रोमांस के किस्से या केवल आत्म विलाप भर होता था। रचनायें इतनी बचकानी थी कि पथिक को उन पर तरस आता। रोज-रोज इन रचनाओं को पढ़ने का संत्राास पथिक को भोगना पड़ता। एक दिन उसने दिल कड़ा कर के कह ही दिया- बेहतर होगा कि लेखक बनने के बजाये तुम कुछ और काम करो। पर आश्चर्य है उनकी इस कड़ी बात का करण पर कोई असर नहीं हुआ और उसके चेहरे पर वही चिरपरिचित मुस्कुराहट खिल गई जिसे देखकर पथिक व्यथित हो जाता था। अगले दो दिन बाद वह फिर रचनाओं का पुलिंदा लेकर आ धमका। वह अपनी नवीनतम तीन कहानियां लेकर आया था। पथिक ने कहा- उसके पास समय नहीं है लेकिन फिर भी वह अपनी एक कहानी सुना सकता है। करण ने अपनी समझ से अपनी सर्वोत्ताम रचना सुनाई। जो पथिक को बिल्कुल पसंद नहीं आई। पथिक ने सीधो पूछा तुम कहना क्या चाहते हो इस कहानी के माध्यम से। करण ने कोई उत्तार नहीं दिया केवल मुस्कुराता रहा। पथिक ने कहा- मुझे तो ये कहानी मार्डन आर्ट की गैलरी में लटके किसी उल्टे चित्रा की भांति लग रही है। करण के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई और वह सदा की तरह एक दम खड़ा हो गया। कलाई घड़ी देखने लगा और मुस्कुराते हुए चला गया। कुछ दिन बाद वह फिर बेवक्त आ टपका और आते ही बोला- आपको एक तकलीफ देनी है।
''तकलीफ? आओ बैठो तो!''
''भारती साप्ताहिक पत्रा में उप संपादक की जगह खाली है। पता चला है कि आपकी उनसे अच्छी जान-पहचान है। आप वहां कह दें तो मेरा काम हो जायेगा।''
''सम्पादक महोदय से मेरा परिचय तो है। तुम स्वयं ही उनसे मिल लो। मेरा नाम ले लेना। शायद तुम्हारा काम हो जाये।
''ठीक है जैसे आप ठीक समझें।''
करण आश्वस्त हो गया, समय की बात थी कि करण का काम बन गया। पथिक भी खुश था कि चलो उससे पीछा छूटा। कम से कम उनका समय तो बर्बाद नहीं करेगा। हुआ भी कुछ ऐसे ही। अब उसका उनके यहां आना- जाना बिल्कुल ही बंद हो गया। कभी बाजार में चलते-फिरते मुलाकात हो जाती या एक-दो बार कॉफी हाउस में भी मिलना हुआ। उसके व्यवहार में एक बेगानापन आ गया था। और उसके चेहरे से चुभने वाली मुस्कुराहट भी गायब हो गई थी।
उसके बाद कई महीनों के अन्तराल के बाद वह घर पर आया। दरवाजे के बाहर ही खड़ा होकर बात करता रहा। बार-बार कहने पर भी अन्दर नहीं आया। बोला- ''मेरा लखनऊ में एक प्रतिष्ठित दैनिक पत्रा के संपादकीय विभाग में अपाइन्टमेन्ट हो गया है और परसों मेरी शादी भी है। शादी के बाद मैं लखनऊ चला जाऊंगा। हो सके तो शादी में आइएगा। वैसे बड़े-बड़े लोग शादी में आयेंगे। उस पत्रा के संपादक की लड़की के साथ विवाह तय हुआ है।'' वह एक सांस में ही कह गया और घड़ी देखता हुआ मुड़ गया- ''अच्छा अब चलता हूं'' और वह सचमुच ही चला गया। आज जाते समय उसके चेहरे पर मुस्काहट नहीं थी। वह अप्रत्याशित रूप से गंभीर था। पथिक उसे जाते हुए दूर तक देखता रहा।
पथिक की उससे अन्तिम मुलाकात शादी के दो साल बाद पिछले वर्ष हुई। वह शहर में आया हुआ था और उसने एक परिचित से पथिक को खबर भिजवाई थी कि वह चाहें तो उससे मिल लें। मिलने में कोई हर्ज भी नहीं था और ये एक अच्छी बात थी कि वह एक ऊंची जगह पहुंच गया था।
मिलने पर करण ने, जोकि अब परदेशी हो गया था, शिकायत की कि उसका अपना शहर उसकी कद्र नहीं करता। शहर में उसके सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन किया जाना चाहिए था। ''पर क्यों? तुमने साहित्य में ऐसा कुछ विशेष किया भी क्या है?''
''आप बहुत आदर्शवादी बनते हैं। अपने को देखिए और मुझे देखिए। आप वहीं हैं। मैंने क्या कुछ किया है- आपको दिखाई नहीं पड़ता?''
स्पष्टवादिता के लिए, क्षमा करें, पर आप व आप जैसे लोग समय से बहुत पीछे रह गए हैं। गिरगिट की तरह करण का यह बदला रूप देखकर पथिक दंग रह गया। उसे लगा वह गलत जगह आ गया है। उसके लिए वहां और अधिक टिकना कठिन हो गया था। मन पर जकड़ती जा रही घुटन की धुंधा को छिटककर पथिक खड़ा हो गया और आवाज को कठोर बनाकर बोला- ''अब चलता हूं।''
करण ने तपाक् से कलाई घड़ी देखी- ''हां मेरे पास भी समय नहीं है। साढ़े दस बजे मुझे कला प्रदर्शनी के उद्धाटन के लिए जाना है।''
रास्ते में पथिक सोचता जा रहा था कि करण अपने को उसके ऊपर इस हद तक क्यों लादना चाहता था कि उससे बर्दाश्त न हो सका। यह सच था कि करण ने समय की नब्ज बहुत पहले ही समझ ली थी और उसी का फल था कि आज वह एक ऊंचे पद पर था। उसने पथिक का उपयोग एक सीढ़ी के रूप में किया था। वह सफल लेखक नहीं बन सका, पर लेखन को उसने कैरियर के रूप में लिया और इस प्रयास में वह सफल रहा। यही वजह थी कि लेखक न बन पाने पर भी लेखक उसके चक्कर काटने लगे थे। पथिक से भी वह यही अपेक्षा करता है। पर उन दोनों के रास्ते तो शायद पहले से ही अलग-अलग थे और अब भी अलग हैं। श्रध्दायन, रायपुर रोड, अघोईवाला, देहरादून

फ्रांज काफ़्का की जीवनी 'काफ़्का' का सातवां अध्‍याय : एक चीनी यूनानी अन्तराल

पिएत्रो सिताती
अनुवाद : अशोक पाण्डे

न्यायालय की महन्तशाही की ही तरह चीन की महान दीवार के निर्देशक का दफ्तर किसी अगम्य स्थान पर स्थित है। अनाम सूत्राधार के तमाम सवालों के बावजूद कोई भी नहीं जान सका कि निर्देशक का दफ्तर कहां है और वहां कौन बैठा करता था। यहां भी धरती का केन्द्र अज्ञात ही है। लेकिन इस अज्ञात स्थान में दुनिया का महानतम ज्ञान इकठ्ठा है। हालांकि संभवत: महान दीवार का निदेशालय पवित्रा नहीं है तो भी खिड़कियों से होकर आने वाला ''पवित्रा संसारों का प्रतिविम्ब'' नक्शे बना रहे निर्देशकों के हाथों को आभासित करता है। निदेशालय की गतिविधि में जो बात सबसे उल्लेखनीय है वह उसका सम्पूर्ण नियंत्राण है। ऊपर वहां सबसे उच्च स्थान है। ईश्वर द्वारा आभासित चौड़ी खिड़कियों से मनुष्य की सारी इच्छाएं फन्तासियां और विचार आते हैं और उसकी सारी उपलब्धियां और उसके उद्देश्य और सभी ज्ञात कालखंडों और मनुष्यों के संरचनात्मक अनुभव भी।
असाधारण बात यह है कि संपूर्णता से प्रेरित इस पवित्रा निदेशालय ने केवल दीवारों के हिस्से बनाए हैं। ऐसा नहीं है कि चीन की महान दीवार एक संरचना है जो उत्तारी स्टेपीज से शुरू होकर तिब्बती पर्वतों के पैरों पर जा कर खत्म होती हो। यह कई संरचनाओं की श्रृंखला है - पांच सौ मीटर लम्बी दीवारें हैं जिन्हें बीस बीस मजदूरों की टुकड़ियों ने बनाया था और ये एक दूसरे से जुड़ी हुई नहीं हैं। इतिहास या गाथा के मुताबिक दो दीवारों के बीच बड़े अन्तराल पाए जाते हैं। लेकिन इस तरह की टुकड़े टुकड़े दीवार किस काम की हो सकती है? इस तरह की खंडित दीवार से किस तरह बचाव संभव है? आतताई दो दीवारों के बीच की जगह से भीतर घुस कर नीचे मैदानों की तरफ बढ़कर रेगिस्तानी इलाके में बनाई गई दीवारों को तहस नहस कर सकते हैं। जो भी हो आतताइयों को कभी किसी ने नहीं देखा। चीनी लोग उनके बारे में किताबों में पढ़ते हैं और अपने बरामदों में बैठे उनके अत्याचारों के बारे में बातें करते आहें भरा करते हैं। चित्राकारों के बनाए यथार्थवादी चित्राों में वे आतताइयों की लालच और क्रूरता से भरपूर आकृतियां देखते हैं। इन चित्रों को देककर बच्चे डर के मारे रोने लगते हैं। लेकिन आतताइयों के बारे में चीनियों का ज्ञान इतना ही है। ''हमने उन्हें कभी नहीं देखा है और अगर हम अपने गांव में बने रहें तो हम उन्हें कभी देखेंगे भी नहीं चाहे वे अपने जंगली घोड़ों पर बैठकर हमारी तरफ क्यों न आने लगें। हमारा देश बहुत विशाल है और उन्हें कभी हमारे पास नहीं आने देगा और वे खोखली हवा में अपनी राह भूल जाएंगे।'' सच्चाई यह है कि आतताइयों से बचने के लिए महान दीवार बनाने की बात कभी किसी ने नहीं सोची। निदेशालय का अस्तित्व बना हुआ है जब से चीन के पुरातन देवता बने हुए हैं और यह वास्तुशिल्पीय अभियान भी उतना ही पुराना है। महान दीवार एक दार्शनिक विचार है - एक आदर्श संरचना - एक दिमागी वास्तुशिल्प, जिसे दैवीय महन्तशाही ने चीनी समाज की विशालता और अनेकता को बांधे रखने के लिए खोजा था।
चीन की विडम्बना एक इसी बात पर टिकी हुई है। सम्पूर्ण निदेशालय दीवार का हिस्सा भर बनाना चाहता है क्योंकि दैवीय मस्तिष्क की संपूर्णता धरती पर खण्डित संरचनाओं में ही अभिव्यक्त हो सकती है। संपूर्ण हमेशा कठोर होता है जबकि खंडित लोचदार और धीमा जिसके भीतर यथार्थ के तत्वों को समाहित करने की जगह बची होती है जो चीन की सीमा और उसकी आबादी की अनेकता प्रस्तुत किया करते थे। खंडित ताओ के चिन्ह, पानी, जैसा होता है। निदेशालय मजदूरों को किसी विशाल प्रोजेक्ट में नहीं लगाना चाहता जिसमें वे हताशा से भर जाएं। वह जानता है कि मानव स्वाभाव को जंजीरें बरदाश्त नहीं होतीं। जब उसे किसी विशाल कार्य की जंजीर से बांधा जाता है वह बहुत जल्दी विरोध करना शुरू कर देता है और दीवारों, जंजीरों और खुद को हवा की तरफ फेंक देता है। उस काल में कई लोगों ने बेबेल की मीनार के बारे में सुन रखा था - कुछ ने सोचा कि मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार महान दीवार बेबेल की एक नई मीनार के लिए नींव का काम करेगी। इस बिन्दु पर हमारा अज्ञात सूत्राधार समझ पाने में असमर्थ दिखाई देता है। लेकिन निदेशालय के विचार (काफ्का के विचार) मुझे साफ नजर आते हैं। महान दीवार बेबेल की मीनार की प्रतिरोधी है। पहली की रचना मानवीय धैर्य ने की है जबकि दूसरी का उद्देश्य मनुष्य और देवताओं की सीमाओं को नकारना है। पहली एक ऊर्ध्वाधार संरचना है जबकि दूसरी लम्बवत। पहली एक खंडित रचना है जबकि 'द ट्रायल' के न्यायालय की तरह दूसरी का उद्देश्य संपूर्ण की वृत्ताात्मकता और भयानक तनाव को पुनर्जीवित करना है।
इस तरह स्वयं को आतताइयों से नहीं बल्कि खुद से बचाने वाली          दीवार की सुरक्षा के भीतर, चीन, अपने भीतर रह रहे हजारों समुदायों के साथ साम्य बनाए हुए बना रहता है। वह चीन जिसे काफ्का अपनी प्रतिभा के           माध्यम से हमारे सामने उसकी पूरी नाजुकी और रंगों के साथ लेकर आता है। हम दक्षिण के एक गांव में हैं। गरमियों की एक शाम, एक पिता अपने बेटे का हाथ थामे नदी के तट पर खड़ा है जबकि उसका दूसरा हाथ           उसके लम्बे पाइप को इस तरह सहला रहा है मानो वह कोई बांसुरी हो।             वह अपनी दाढ़ी को आगे की तरफ करता है और पाइप का लुत्फ उठाता हुआ नदी के उस पार ऊंचाइयों को देखने लगता है। उसकी चोटी नीचे को गिर जाती है और सुनहरी कढ़ाई किए हुए उसके गाउन के रेशम को हल्के से छूती है। तट के समीप एक नाव ठहरती है, नाव वाला पिता के कान में कुछ कहता है। बूढ़ा चुप हो जाता है और विचारों में खोकर बच्चे को देखने लगता है। वह अपना पाइप खाली करके उसे पेटी में खोंसता है बच्चे का           गाल सहलाता है और उसके सिर को अपने सीने से लगा लेता है। जब वे घर पहुंचते हैं, मेज पर चावल उबल रहा है, कुछ मेहमान आए हैं और मां गिलासों में वाइन डालना शुरू करती है। पिता अभी अभी नाव वाले से सुनी खबर दोहराता है - उत्तार में शहंशाह ने महान दीवार का निर्माण प्रारम्भ कर दिया है।
महान दीवार का एक हिस्सा पूरा हो जाता है। उत्सवों के उत्साह में मुखिया दूर दूर भेजे जाते हैं और अपनी यात्रााओं के दौरान वे यहां वहां तैयार हो चुके महान दीवार के हिस्सों को देखते हैं। वे उच्चाधिकारियों के दफ्तरों से होकर गुजरते हैं जहां उन्हें सम्मान के पदक दिए जाते हैं। वे गांवों से आने वाले मजदूरों की भीड़ को देखते हैं, वे दीवार बनाने को काम में लाए जाने के लिए समूचे जंगलों को काटा जाता और पहाड़ियों को खोदा जाता हुआ देखते हैं, वे पवित्रा जगहों पर दीवार के जल्दी बन जाने की दुआ करते श्रध्दालुओं की प्रार्थनाएं सुनते हैं। यह सब उनके अधैर्य को शान्त करता है। वे अपने गांवों को लौट आते हैं। घर की शान्त जिन्दगी उन्हें नई ताकत देती है जबकि उनकी आधिकारिक ताकत और बाहर से आने वाली खबरें और दीवार के पूरा हो जाने की आम लोगों की निश्चितता उनकी आत्माओं के साज के तारों को कसे रखती है। काम दुबारा प्रारम्भ करने का पागलपन अजेय हो जाता है तो वे अपने घरों से निकल पड़ते हैं सतत उम्मीद से भरपूर बच्चों की तरह। वे जल्दी घर छोड़ देते हैं और आधा गांव उन्हें दूर तक विदा करने आता है। सड़कों पर लोग हैं, झंडे हैं, शोर है - उन्होंने पहले कभी नहीं जाना था कि चीन कितना महान, कितना संपन्न और किस कदर प्यार किए जाने लायक है। हर खेतिहर एक भाई है जिसके लिए दीवार बनाई जा रही है और वह इस बात को लेकर जीवन भर कृतज्ञ रहने वाला है। तब तक के लिए काफ्का को सामूहिक श्रम कोई मशीनी और उबाऊ प्रक्रिया लगती थी जैसा कि 'अमेरिका' में होता था। फिलहाल उसकी किताबों में पहली बार वह उदात्ता जन समुदाय का यूटोपिया बन जाता है- एक व्यक्ति की नसों से रक्त का संचार होता है और समूचे असीम चीन में बिखर जाता है। और यह सामुदायिक सौहार्द इसलिए उपजा है कि दीवार कोई संपूर्ण या ठोस संरचना नहीं बल्कि टुकड़ों का एक धैर्यवान और लचीला समूह है।
चीन के केन्द्र में शहंशाह - ईश्वर और पीकिंग हैं : अपने सजीव शरीरों के साथ। कितना विराट है शहंशाह! वह एक विशाल जगह जैसा है! एक नगर!  एक अनन्त महल! चीनी आदमी कहीं भी रहता हो, चाहे वह पीकिंग से कुछ ही मील दूर क्यों न हो, केन्द्र से वह हमेशा एक महान दूरी पर रह रहा होता है। वह कहीं भी हो, उसे हमेशा सुदूरतम कक्षाओं में रहना होता है जहां वह सुदूर राजधानी से आने वाली रपटों और गाथाओं को सुनता है। लेकिन असलियत में वह कुछ भी नहीं जानता। वह शहंशाह का नाम नहीं जानता और राजवंश के नाम को लेकर उसे संदेह बना रहता है। जहां तक बीते हुए समय का सवाल है, उसके गांव में वर्षों पहले मृत शहंशाहों की पूजा की जाती है - पुरातन इतिहास के युध्द अब जाकर लड़े जाने शुरू हुए होते हैं और चमकते चेहरे के साथ उसका पड़ोसी समाचार लेकर आता है। सत्ता की सनक में पागल और वासना में उत्तोजित, पुरातन शाही रखैलें अपने कुकर्म किए जाना जारी रखती हैं। हजार साल की एक पुरानी मलिका अभी अभी लम्बे लम्बे घूंटों में अपने पति का खून पी रही होती है। लोग पीकिंग और शहंशाह के समय से बाहर रहते हैं - वे भूतकाल की घटनाओं को वर्तमान की तरह जीते हैं और वर्तमान को भूतकाल की तरह।
चीनी लोग इस तरह व्यवहार करते हैं मानो शहंशाह/भगवान का अस्तित्व ही न हो। उन्हें संपूर्ण की कोई इच्छा नहीं होती। वे कभी भी इस शहंशाह/ भगवान जैसा नहीं होना चाहते। अगर शहंशाह/भगवान का अस्तित्व ही नहीं तो साम्राज्य नाम की संस्था का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। बुध्दिमान लोग जानते थे कि आदमी को ज्यादा कसी हुई जंजीरों में नहीं बांधा जाना चाहिए - लगाम ढीली होनी चाहिए, जैसा कि ताओ उपदेश देता है, ताकि चीनी लोगों को पीछे खींचे जाने की अनुभूति न हो और वे लगाम को झकझोरने न लगें। केन्द्र बहुत दूर है और साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों के बीच की कड़ियां ढीली हैं। कानून बहुत अस्पष्ट है और उसे कभी लागू नहीं किया जाता। एकात्मकता और संपूर्णता के कुछ हिमायती, 'द ट्रायल' के चन्द उत्ताराधिकारी, ऐसा मान ही सकते हैं कि इस के कारण अराजकता फैल सकती है और कड़ियल धार्म जैसी एक दीवार बनाई जानी चाहिए। लेकिन हालांकि वह बेहद अनिश्चित है, इस कहानी का अज्ञात सूत्राधार अच्छी तरह जानता है कि चीनी लोग  आपस में इसी वजह से बंधे हुए हैं कि महान दीवार के बीच खाली जगहें हैं, कि साम्राज्य की व्यवस्था ढीलीढाली है और यह कि शहंशाह का अस्तित्व नहीं है।
शहंशाह की मृत्यु हो चुकी है - ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है - शायद हमेशा के लिए। अपनी मृत्युशैया से शहंशाह अपने राज्य के सबसे दीनहीन व्यक्ति को, जिसने चीन के सुदूृरतम इलाके में शरण ले रखी है, एक सन्देश भेजता है। वह सन्देशवाहक से नीचे झुकने का अनुरोध करता है और फुसफुसाकर अपना सन्देश लिखवाता है। वह सन्देश को लेकर इतना सचेत है कि उस के आग्रह पर सन्देशवाहक उसे दोबारा पढ़कर सुनाता है। अपना सिर हिलाकर वह स्वीकृति देता है। काफ्का के पूरे कार्य में इस क्षण के अलावा कहीं भी ईश्वर, वह भी मरता हुआ ईश्वर, अपने मातहतों के लिए इतनी परवाह करता है - उसका सन्देश किसी विश्वविद्यालय के लिए नहीं है बल्कि उसके लाखोंलाख क्षुद्रतम मातहतों में से एक को भेजा जा रहा है। यह रहस्यमय सन्देश अपने गन्तव्य तक कभी नहीं पहुंचता। ''लोग इतने ज्यादा हैं! मकानों का कोई अन्त नहीं। अगर मैदान खुले हुए और मुक्त होते तो सन्देशवाहक उड़ने लगता और उसके खटखटाने की शानदार आवाज आप अपने दरवाजे पर सुनते। इसके उलट वह जरा भी जल्दीबाजी में नहीं है। वह अब भी अन्तर्महल के गलियारों में अपना रास्ता तलाश रहा है वह कभी भी उनके पार नहीं जा सकेगा और अगर वह ऐसा कर भी लेता है तो वह किसी काम का नहीं होगा। उसे सीढ़ियों पर जूझते रहना होगा और अगर वह वहां से उतर भी गया तो उसके बाद उसे बरामदों का चक्कर लगाना होगा। यहां से भी निकल आया तो उसके सामने इन बरामदों को घेरे एक दूसरा महल होगा और सहस्त्राब्दियों तक ऐसा ही होता रहेगा। और अगर किसी दिन वह आखिरी द्वार से लपक कर दौड़ जाना चाहेगा तो ऐसा कभी नहीं हो सकेगा क्योंकि उसके सामने शाही नगर होगा - संसार का केन्द्र। यहां से कोई नहीं गुजर सकता। एक मृत व्यक्ति का सन्देश लेकर तो और भी नहीं। शाम ढलने पर अपनी खिड़की पर बैठकर आप अलबत्ता इस बारे में ख्वाब देख सकते हैं।''
यह आखिरी वाक्य अपने आप में पूरा अध्यात्म है - ईश्वर की मृत्यु के बाद भी ईश्वर में विश्वास रखने वाले जिस अध्यात्म में रहते हैं। एक विनम्र चीनी आदमी संपूर्ण अंधकार में लिपटे सन्देश की प्रतीक्षा नहीं करता जिसके माध्यम से 'द ट्रायल' का पादरी जोसेफ के से बात करता है। खिड़की पर बैठा वह दिन समाप्त होने पर सन्देशवाहक की प्रतीक्षा करता है - प्रकाश और अन्धाकार को घोलता हुआ। हम सब की तरह वह ''बिना उम्मीद के'' है (क्योंकि ईश्वर अपरिहार्य रूप से मर चुका है) और ''उम्मीद से भरा हुआ'' भी (क्योंकि ईश्वर कभी नहीं मरेगा)। वह अलौकिक की मृत्यु के साथ ही अलौकिक को जानना प्रारम्भ करता है। वह इस तरह जीता है मानो देवताओं का अस्तित्व न हो और तो भी वह उनका स्वप्न देखता है। इस तरह स्वप्न में खोए हुए उसका अस्तित्व हवाई होता है - बिना किसी त्रासद आमंत्राण के। अब चूंकि ईश्वर मर चुका है, वह अपने पिता के साथ एक नर्म और विश्वासपूर्ण सम्बन्ध को पुनर्जीवित करता है, जैसा हमें नदी के तट पर पिता पुत्रा की छवि के माध्यम से दिखाया जाता है - पिता के सीने से लगा पुत्रा का सिर - यह एक ऐसी छवि है जो काफ्का के सारे कृतित्व में हमें केवल यहीं दिखाई देती है।
'द ग्रेट वाल ऑफ चाइना' में ईश्वर एक खाली स्थान है, एक अनुपस्थित और मरती हुई आकृति, नम्रता की एक मरूमारीचिका और हालांकि हम उस सन्देश से नावाकिफ हैं जो उसने हम सब के लिए भेजा था, हम कभी विश्वास नहीं कर सकते कि उसका मन्तव्य हमें अपने आकर्षक शब्दों के जाल में फंसाना हो सकता था। सभी देवता चीन के सुदूर देवता जैसे नहीं होते। अचेतन के भीतर शक्तिशाली और बेहद सुन्दर आकृतियां होती हैं - जैसे मोहिनियां जिनका काफ्का ने कुछ समय बाद आहवान किया था - मोहिनियां जो इतनी सदियां बीत जाने के बाद चट्टानी चरागाह में पसरकर हवा में अपने भयावह केशों को मुक्त खोल देती हैं और चट्टानों पर अपने पंजे गड़ाती हैं। वे गाती हैं जैसा कि उन्होंने यूलिसिस के समय में गाया था - तब उन्होंने ट्रॉय के युध्द की गाथा गाई थी जबकि अब वे कुछ रहस्यमय और भयानक शब्दों को गाती हैं जिन्हें ईश्वर मनुष्य के सामने उदघाटित करना चाहता है। उनका गीत हर जगह को भेद देता है और दिलो-दिमागों को अपने आकर्षण में कैद कर लेता है, नाविकों के रस्से जिनसे वे मोहिनियों को बांध दिया करते थे किसी काम नहीं आते, उनके कानों का मोम भी किसी काम नहीं आता जिसकी मदद यूलिसिस लिया करता था। वे सब जो उनकी दैवीय आवाज को सुनते हैं, खो जाते हैं, वे रहस्योद्धाटन को बरदाश्त नहीं कर पाते और चट्टानों पर हव्यिों और मुरझाई त्वचा के ढेर हैं। लेकिन यूलिसिस के समय से हमारे समय तक ये मोहिनियां और भी शक्तिशाली बन चुकी हैं। अब उनका सबसे बड़ा आकर्षण है उनकी खामोशी। जहां 'द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना' के एक शुरूआती ड्राफ्ट 'न्यूज ऑफ द बिल्डिंग ऑफ द वॉल - अ फ्रैगमैंट' में देवता अदृश्य हो जाते थे या मर जाते थे, यहां वे मर चुके होने का दिखावा करते हैं। इस तरह देवताओं की मृत्यु - जो उन दिनों काफ्का का प्रिय विषय थी - उनका बेहद चतुर पैंतरा है। इस खामोशी में एक असहनीय आमंत्राण है। जैसे ही वे खामोश होती हैं हम अपने घमण्ड में यह सोचने का पाप करते हैं कि हमने उन्हें अपनी ताकत से खामोश करा दिया है जिसे हम अपनी विजय समझने लगते हैं असल में वह हमारी सुनिश्चित पराजय में तब्दील हो जाती है - हम अपनी दृष्टि खो देते हैं।
जब काफ्का का यूलिसिस मोहिनियों के समुन्दर में पहुंचता है वे गा नहीं रही होती हैं, वे समझती हैं कि वे उस पर खामोशी की मदद से विजय पा लेंगी या वे उसके चेहरे से टपक रही अतीव प्रसन्नता को देख कर गाना भूल जाती हैं। उनके भीतर किसी को 'सिडयूस' करने की इच्छा नहीं बचती और वे उसकी महान आंखों में चमक रही गरिमा को जब तक संभव हो दबोचे रहना चाहती हैं। उनसे बचने के लिए काफ्का का यूलिसिस होमर के यूलिसिस से भी ज्यादा सावधान है। वह अपने आप को मस्तूल से बांध लेता है और अपने कानों में मोम भर लेता है जबकि 'ओडिसी' का नायक मोहिनियों के गीत के लिए अपने कान खुले रखता है। उसे अपने संसाधनों पर पूरा भरोसा है जबकि बाकी के यात्रिायों की निगाह में वे बेकार हैं। वह मोहिनियों की खामोशी को नहीं सुनता। वह सोचता है कि वे गा रही हैं और कल्पना करता है कि अकेला वह सुरक्षा के कारण उनके गीत को नहीं सुन पा रहा। 'गाती हुई' मोहिनियों का दृश्य उसकी आंखों के सामने एक पल को आता है और वह अपनी वापसी की राह को देखने लगता है। अगर वह खुद को बचा सके और मोहिनियों को हरा दे तो ऐसा उसके सीमित और दृढ़निश्चयी चरित्रा के कारण होगा। वह एक साधारण आदमी है जो हमेशा अच्छी बातें सोचता है - वह 'ओडिसी' के महानायक से बिल्कुल अलहदा है। वह एक पल को भी नहीं सोचता कि मोहिनियों का गीत उसके हास्यास्पद सुरक्षातंत्रा को कभी भी हरा सकता है। देवताओं की खामोशी से वह इस कदर बेपरवाह है कि वह उसे एक ऐसा गीत समझ बैठता है जिसे वह सुनता नहीं। लेकिन वह कोई अपवित्रा आदमी नहीं - वह देवताओं को मार चुके होने के अपने कारनामे से खुद को अभिमानी महसूस नहीं होने देता। इस तरह स्थितियों के विशिष्ट संयोजन के कारण यूलिसिस एक ऐसा आदमी बन जाता है जो अलौकिक के अदृश्ष्य हो जाने के बावजूद बचा रहता है।
हालांकि कई सावधानियों के साथ काफ्का मोहिनियों की गाथा का एक दूसरा संस्करण पेश करता है- यह इकलौता संस्करण है जिस पर स्पष्टत: वह पूरी तरह विश्वास करता है। यूलिसिस कोई सामान्य आदमी भर नहीं है। असल में वह 'ओडिसी' का नायक ही है लेकिन उसके भीतर एक बेहतर अधयात्मिक समझ है जिस के कारण वह देवताओं को धोखा दे पाने के साथ साथ उनके साथ बने रह पाने में कामयाब होता है। जब वह मोहिनियों के होंठों को हिलता हुआ देखता है तो वह यह नहीं समझता कि वे गा रही हैं या कि कानों में पड़ा मोम उसे गाना सुनने नहीं दे रहा। वह समझ रहा है कि मोहिनियां खामोश हैं और उनकी खामोशी में वह देवताओं की मृत्यु को देख रहा है। बाकी लोगों के बरखिलाफ वह इस खामोशी में नहीं फंसता और यकीन करता है कि उसने उन्हें अपनी शक्ति से हराया है। लोमड़ी की तरह चालाक यूलिसिस यह दिखावा करता है कि उसे विश्वास है कि वे अब भी गा रही हैं। यह आधुनिक यूलिसिस खुद काफ्का है - वही शख्स जिसने हमें देवताओं की मृत्यु के बावजूद बने रहना सिखलाया है। जब चीन की सरहद पर रह रहे गरीब को राजा  का संदेश नहीं मिलता वह समझने लगता है कि प्राचीन देवता मर चुका है और इसके बावजूद वह उस देवता की स्मृति में 'बिना उम्मीद के और उम्मीद से भरपूर' जिए जाता है। यूलिसिस समझता है कि देवताओं की मृत्यु हमारी शुरूआत के समय लिया जाने वाला सबसे मुश्किल इम्तहान होता है और यह कि देवताओं की चालबाजी का जवाब चालबाजी से ही दिया जा सकता है।
मैं स्वीकार करता हूं कि 1917 में काफ्का द्वारा खुद के क्षयरोगी होने की सूचना मिलने के बाद ताओ और 'ओडिसी' के रंगों की मदद से किए गए इन दो कार्यों के लिए मेरे भीतर विशेष अभिरूचि है। उसके कार्य में इनका विशेष स्थान है। करीब दो साल पहले उसने 'इन द पैनल कॉलोनी' और 'द ट्रायल' को समाप्त किया था।
शान्त जीवन के इन वर्षों में फेलीस के साथ अपने संबंध तोड़ चुकने के बाद काफ्का अपने साहित्य के केन्द्र से दूर जाना चाह रहा था। तीन सालों बाद एक पत्रा में उसने मैक्स ब्रॉड को 'द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना' और 'द साइलैन्स ऑफ द साइरेन्स' का मतलब बतलाया था- ''यूनानी लोग बहुत विनम्र हुआ करते थे, उन्होंने कल्पना की कि पवित्रा संसार यथासंभव दूरी पर स्थित होता है ताकि मानवीय अस्तित्व को सांस लेने की हवा मिल सके''  गद्य के इन दो टुकड़ों में काफ्का कम से कम ''संपूर्ण प्रसन्नता'' की बौध्दिक परिकल्पना के नजदीक पहुंच सका हालांकि बाद में वह उसे 'ब्लास्फेमी' का दर्जा दे देता है। धरती पर की अलौकिक और दुनियावी दोनों तरह के जीवन की इससे ज्यादा चमकदार छवियां काफ्का के काम में और कहीं नजर नहीं आती।